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समझ गए, निर्मोही का मन
मोह घिरा क्यो होगा। मोह तिमिर है, उससे वेष्टित
ज्ञान शिरा क्यों होगा।
एक-पक्ष इस स्नेह प्रवल को
मन-ही-मन धिक्कारा। दृग से गुरु का रूप मनोहर
__मन मे तुरत उतारा।।
लगा कि जैसे दिव्य मूर्ति
भगवान् स्वय हैं आए। अपनी दिव्य प्रभा से भू पर
नव-नव ज्योति जगाए॥
परम विरागी थे संन्यासी
सव कुछ क्षण मे पाए। केवल ज्ञान मिला, तव भव मे
प्रभु की महिमा गाए॥
142 / जय महावीर