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चार मुष्टि से मस्तक के सबकेशो को था त्यागा । एक मुष्टि से दाढी-मूंछो
का जीवन भी भागा ॥
स्वय इन्द्र ने ग्रहण किया थाउन केशो को अपने । उन केशो मे गुथे हुए थेदिव्य अपरिमित सपने ॥
सिद्धो को फिर नमस्कार कर
जन-जन को वतलाया । सिद्ध वही है जिसने अपनीआत्मा को है पाया ॥
आत्म-ज्ञान से बढकर कोई
ज्ञान नही है जग मे । विघ्न अनेको आते लेकिन
आत्मोन्नति के मग मे ॥
जय महावीर / 87