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स्थावर-जगम जो भी दिखते
सृष्टि लुभाने वाली। कुञ्ज-लता सुपमित छवि जग की
मन बहलाने बाली॥
सवमे है आसक्ति भरी सव
__ पथ के गेडे होते। ये आकर्पण पुण्य नही, बस
वीज जहर के बोते।।
सवसे बडा मोह का वन्धन
चाहे वह हो जैसा। रह सकता है मुक्त मनुज ही
शुद्ध रूप मे वैसा॥
निखिल सृष्टि के हित मे जो है
परम भाव वैरागी। पूर्ण ज्ञान परिपुष्ट समाहृत
सकल वासना त्यागी॥
80/ जय महावीर