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महावीर के तेजोमय तप
पावन गगा जल-से। धुल कर दीप्त-पवित्र बने थे
अपने सात्विक वल से॥
शुभ परिणाम पुण्य है उसका
अशुभ पाप का कारण । देख लिया था इस धरती पर
इसका कठिन निवारण।।
अपना हित जो चाहे उसको
सवका हित है करना । और नही तो पडता जग मे
उसको सदा विचरना॥
आत्मा का सव दु ख स्वय का
निर्मित पुञ्ज गहन है। आत्मलीन होने पर ही तो
निर्मल होता मन है ।।
ज्य महावीर / 81