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(एक वर्ष तक हंसते-हँसते
सब कुछ वहाँ लुटाये। खुद को अपने आप तपाकर
और सुदृढ वन आये ।।
रहा न कोई दृग के आगे
रीता वहाँ अकिंचन । मुक्त हस्त से महावीर ने
जहाँ लुटाया कचन ।।
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वर्षीदान हुआ जब पूरा
कर ली नव तैयारी। आत्मा के नव शुद्ध वरण मे
चलने की थी वारी॥
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सुरसरि की धारा हो जैसे
शुद्ध भाव थे जगते। हस्तामलक सिद्धि थी सारी
दूर नही कुछ लगते।।
76/जय महावीर