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जैन योग के सात ग्रंथ
अनुवादक / संपादक आगम मनीषी मुनि दुलहराज
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जैन योग के सात ग्रंथ
१. कायोत्सर्ग प्रकरण
२. ध्यानशतक ३. योगशतक ४. समाधिशतक
अनुवादक/संपादक आगम मनीषी मुनि दुलहराज
25 जैन विश्
ज विज्जा चारह
५. इष्टोपदेश
६. . स्वरूपसम्बोधन ७. ज्ञानसार चयनिका
मक्खी
अती लाडनूं ॐ
जैन विश्व भारती प्रकाशन
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प्रकाशक : जैन विश्व भारती लाडनूं-३४१३०६ (राज.)
© प्रकाशकाधीन
सौजन्य :
प्रथम संस्करण : १९९५ द्वितीय संस्करण : २००६
मूल्य : 30.00 (तीस रुपये मात्र)
कंपोज एवं टाईपसेटिंग : सर्वोत्तम प्रिंट एण्ड आर्ट
Jain Educat मुद्रक : कला भारती, नवीन शहादरा, नई दिल्ली ।
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समर्पित है
आचार्यश्री महाप्रज्ञ को जो
दीर्घं पश्यतु मा ह्रस्वं '
के
उद्गाता ही नहीं
प्रयोक्ता भी हैं।
आगम मनीषी मुनि दुलहराज
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आशीर्वचन
योग शब्द बहुत व्यापक है। उसे जैनयोग, बौद्धयोग, पतंजलयोग-इस रूप में विभक्त नहीं किया जा सकता किन्तु अध्यात्म की जिस परंपरा ने योग की पद्धति में नए तत्त्वों का समावेश किया, वह पद्धति उस नाम से प्रख्यात हुई।
जैन योग आत्मोपलब्धि के परिपार्श्व में विकसित हुआ है इसलिए उसकी स्वतंत्र अभिधा न्यायोचित है।
योग साधना के प्रति विशिष्ट रुचि रखने वाले विद्वानों ने योग के विषय में अनेक ग्रंथ लिखे। प्रस्तुत पुस्तक में उनमें से सात ग्रन्थों का समावेश है।
इस लघुकाय ग्रंथ में इतनी विशाल सामग्री है कि एक-एक ग्रंथ पर एक-एक बृहद्काय ग्रंथ का निर्माण किया जा सकता है।
___ मुनि दुलहराजजी हमारे धर्मसंघ के बहुश्रुत मुनि हैं। वे आगम साहित्य के अध्येता और अधिकृत लेखक हैं। उन्होंने आगम साहित्य के संपादन के साथ पार्श्ववर्ती अनेक ग्रंथों का संपादन और अनुवाद किया है। उनकी श्रमनिष्ठा और कार्यनिष्ठा अनुकरणीय है।
आचार्य महाप्रज्ञ
भिवानी २५-९-२००६
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एक शब्द
जैन मनीषियों द्वारा प्रणीत जैन योग के अनेक ग्रंथ हैं। जैन विश्व भारती में 'अनेकांत शोधपीठ' के डायरेक्टर डॉ. नथमल टांटिया ने अपनी पुस्तक 'जैन मेडिटेशन' में जैन योग के शताधिक ग्रंथों की सूची प्रस्तुत की है।
एक प्रसंग में आचार्य महाप्रज्ञ ने हमें प्रेरणा दी कि जैन योग के ग्रंथों का अनुवाद प्रस्तुत किया जाए। 'कायोत्सर्ग शतक' और 'ध्यान शतक'-- इन शीर्षकों से दो पुस्तिकाएं पहले प्रकाशित हो चुकी थीं। शेष ५ ग्रंथों का अनुवाद किया और सात ग्रंथों का यह एक ग्रंथ तैयार हो गया।
मैं गणाधिपति पूज्य गुरुदेव श्री तुलसी तथा आचार्य महाप्रज्ञ का आभार मानता हूं और उनके मार्गदर्शन में चल रहे सारस्वत यज्ञ में अपनी एक लघु आहुति प्रस्तुत कर आनंदित होता हूं।
मैं साध्वी दर्शनविभाजी के सहयोग की स्मृति करता हूं, जिन्होंने एम. ए. फाइनल में अध्ययनरत होते हए भी मेरे इस कार्य में हाथ बंटाया।
मुनि दुलहराज
लाडनूं १-९-९५
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पाथेय
मुमुक्षा के क्षेत्र में धर्म और योग-ये दो शब्द सर्वाधिक प्रचलित हैं। योग की परम्परा प्राचीनकाल से चली आ रही है। धर्म के साथ अनेक कर्मकांड जुड़ गए। योग उनसे मुक्त रहा। कालक्रम के अनुसार उसकी अनेक शाखाएं प्रचलित हो गईं-अध्यात्मयोग, ध्यानयोग, राजयोग आदि। जैन आचार्य अनेकांतवादी थे, इसलिए उन्होंने किसी एक शाखा को प्राथमिकता नहीं दी, सबका समन्वय किया।
योग का आधार है-गुप्ति। पतंजलि ने लिखा-'योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः'। जैन साधना का सूत्र होगा-'मनोवाक्कायगुप्तिर्योगः'। आचार्य श्री तुलसी ने योग की परिभाषा की है-'मनोवाक्कायानापानेन्द्रियाहाराणां निरोधो योगः। शोधनं च। पूर्वं शोधनं ततो निरोधः।'
प्रस्तुत संकलन में योग के सात ग्रंथों का समावेश है कायोत्सर्ग प्रकरण, ध्यानशतक, योगशतक, समाधिशतक, इष्टोपदेश, स्वरूपसम्बोधन तथा ज्ञानसार चयनिका।
जैन साधना पद्धति में कायोत्सर्ग का स्थान पहला है और ध्यान का स्थान दूसरा। कायोत्सर्ग की सिद्धि होने पर ही ध्यान का विकास संभव बनता है। आवश्यकनियुक्ति का एक प्रकरण है-कायोत्सर्ग।
ध्यानशतक जिनभद्रगणि की रचना है। धवला में भी इनके समान गाथाएं उपलब्ध हैं। ध्यान की व्यापक अवधारणा के लिए यह बहुत महत्त्वपूर्ण ग्रंथ है।
योगशतक आचार्य हरिभद्र की रचना है। आचार्य हरिभद्र ने योग के बारे में अनेक ग्रंथ लिखे। उन्होंने जैनयोग में हठयोग आदि प्रचलित योगपरम्पराओं का समावेश किया। उसका प्रतिबिम्ब योगशतक में देखा जा सकता है।
समाधिशतक और इष्टोपदेश आचार्य पूज्यपाद की महत्त्वपूर्ण रचनाएं
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हैं। समाधिशतक का अनुशीलन करने वाला अध्यात्म की अतल गहराइयों में जा सकता है। पूज्यपाद ने इन ग्रंथों में अनेक रहस्यों का उद्भावन किया है। उन्होंने अनेक प्रश्न उपस्थित किए हैं-- ' मैं किससे बोलूं ? जो दिखाई देता है, वह अचेतन है। जो दिखाई नहीं देता, वह चेतन है।' काम के बारे में उनका चित्रण यथार्थ को उद्भावित करता है
'आरम्भे
तापकान्
प्राप्तावतृप्तिप्रतिपादकान् । अन्ते सुदुस्त्यजान् कामान् कामं कः सेवते सुधीः ॥ '
स्वरूपसम्बोधन अकलंकदेव की कृति है। उनके शास्त्रीयज्ञान, तर्कविद्या और अध्यात्म के प्रति हर व्यक्ति को समादर होगा, जिसने भी उनको पढ़ने का आयास किया है। इस छोटी-सी कृति में उन्होंने आत्मा के स्वरूप का वस्तुतः संबोध किया है।
उपाध्याय यशोविजयजी जैन न्याय और अध्यात्मविद्या के मूर्धन्य मनीषी हैं। उनकी प्रतिभा चतुर्दिक् व्याप्त है। अध्यात्मोपनिषद्, योगसार आदि ग्रंथों में उनका आध्यात्मिक अनुभव उजागर हुआ है। ज्ञानसार की चयनिका में उसका साक्षात्कार किया जा सकता है।
(इष्टोपदेश १७)
जैन आचार्यों द्वारा रचा हुआ योग का विशाल साहित्य है । मुनि दुलहराजजी ने उसमें से कुछेक कृतियों को चुनकर अध्यात्मविद्या में रुचि रखने वालों के सामने एक पाथेय प्रस्तुत किया है।
पूज्य गुरुदेव श्री तुलसी ने साधु-संघ, श्रावक समाज तथा व्यापक क्षेत्र में अध्यात्मविद्या के प्रति जो चेतना जागृत की, उसकी विशाल अपेक्षा है। उस अपेक्षा की पूर्ति के लिए इस प्रकार के अनेक प्रयत्न अपेक्षित हैं ।
लाडनूं १८-९-९५
आचार्य महाप्रज्ञ
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ग्रंथ परिचय
१. कायोत्सर्ग प्रकरण-आवश्यकनियुक्ति भाग २ में १३६ श्लोकों (१४१८
से १५५४) में कायोत्सर्ग प्रकरण का निरूपण है। हमने इनमें से ८२ श्लोकों का समावेश इस कायोत्सर्ग प्रकरण में किया है। इसके रचयिता हैं
आचार्य भद्रबाहु द्वितीय। २. ध्यानशतक-आवश्यकनियुक्ति भाग २, पृष्ठ ६१ से ८१ तक ध्यान
शतक के १०५ श्लोक हारिभद्रीया टीका सहित प्रकाशित हैं। आचार्य हरिभद्र ने इसे 'शास्त्रान्तरं' मानकर उद्धत किया है। उन्होंने इसके रचयिता का नाम निर्दिष्ट नहीं किया है। 'बृहत् जैन साहित्य का इतिहास', भाग ४, पृष्ठ २५० में ध्यानशतक का १०६ वां श्लोक उद्धृत है। उसमें इसे जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण की कृति माना है। कुछ विद्वान् इसे नियुक्तिकार भद्रबाहु की कृति मानते हैं। यह ग्रंथ 'वीर सेवा मन्दिर' दरियागंज, दिल्ली से सन् १९७६ में 'ध्यानशतक तथा ध्यान-स्तव' के
शीर्षक से प्रकाशित हुआ है। ३. योगशतक-यह विक्रम की आठवीं-नौवीं शताब्दी के महान् आचार्य श्री हरिभद्र की कृति है। मुनिराज श्री पुण्यविजयजी द्वारा संपादित तथा लालभाई दलपतभाई, भारतीय संस्कृत विद्यामंदिर अहमदाबाद द्वारा सन्
१९६५ में प्रकाशित है। ४. समाधिशतक-यह विक्रम की छठी शताब्दी के आचार्यश्री पूज्यपाद स्वामी
द्वारा रचित है। इसके संस्कृत टीकाकार हैं विक्रम की १२-१३ शताब्दी के विद्वान् आचार्य प्रभाचन्द्र। यह प्रकाशित है-जीवराज जैन ग्रंथमाला,
सोलापुर-सन् १९७४। इसमें १०५ श्लोक हैं। ५. इष्टोपदेश-इसके रचयिता हैं आचार्यश्री पूज्यपाद। इसके टीकाकार
हैं-विक्रम की १३ शताब्दी के विद्वान् पंडित आशाधरजी। इसमें ५२ श्लोक है। प्रकाशक है-परमश्रुत प्रभावक मंडल, श्रीमद् राजचन्द्र आश्रम, अगास, सन् १९७३।
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(१२) ६. स्वरूपसम्बोधन-यह विक्रम की ७वीं शताब्दी के महान् आचार्य
अकलंकदेव की लघु कृति है। इसमें केवल २५ श्लोक हैं। इसके संस्कृत टीकाकार हैं-पंडित आशाधरजी। एक टीका है अज्ञातनामा। प्रकाशक है
शांतिसागर जैन सिद्धांत प्रकाशिनी संस्था, शांतिवीर नगर, सन् १९६७। ७. ज्ञानसार चयनिका-विक्रम की १६-१७वीं शताब्दी के महान् विद्वान्
उपाध्याय यशोविजयजी ने बत्तीस अष्टकों में 'ज्ञानसार' ग्रंथ का प्रणयन किया। मूलग्रंथ श्री विश्वकल्याण प्रकाशन ट्रस्ट महेसाणा से प्रकाशित है। इसी ग्रंथ से चयनित है यह 'ज्ञानसार चयनिका।'
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अनुक्रम
१. कायोत्सर्ग प्रकरण २. ध्यानशतक ३. योगशतक ४. समाधिशतक ५. इष्टोपदेश ६. स्वरूपसम्बोधन ७. ज्ञानसार चयनिका
११३ १२१
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१. कायोत्सर्ग प्रकरण
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संकेतिका
आवश्यक छह हैं-सामायिक, चतुर्विंशतिस्तव, वंदना, प्रतिक्रमण, कायोत्सर्ग और प्रत्याख्यान। प्रस्तुत प्रकरण कायोत्सर्ग के विषय में है। कायोत्सर्ग का शाब्दिक अर्थ है-काया का उत्सर्ग। काया को अप्रकंप कर धर्म्य-शुक्ल ध्यान में लीन हो जाना कायोत्सर्ग है। यह ध्यान की अनिवार्य आवश्यकता है। कायोत्सर्ग के बिना ध्यान सिद्ध नहीं होता।
कायोत्सर्ग का एक अर्थ है-शरीर का शिथिलीकरण। इससे शून्यता का अभ्यास होता है और एकाग्रता बढ़ती है।
प्रस्तुत प्रकरण में कायोत्सर्ग के प्रकार, कायोत्सर्ग क्यों ? कायोत्सर्ग का कालमान, कायोत्सर्ग के लाभ, ध्यान और कायोत्सर्ग, कायिक-वाचिक और मानसिक ध्यान, कायोत्सर्ग कैसे? कायोत्सर्ग का परिणाम, कायोत्सर्ग के दोष आदि-आदि का वर्णन है।
__ जैन आगम-व्याख्या-साहित्य में कायोत्सर्ग के विषय में बिखरे निर्देश प्राप्त होते हैं। विक्रम की पांचवीं-छठी शताब्दी के महान् आचार्य भद्रबाहु (द्वितीय) की कृति आवश्यकनियुक्ति में 'कायोत्सर्ग' का पूरा प्रकरण है। उसमें १३६ गाथाएं हैं। हमने उन गाथाओं में से कुछेक गाथाओं को चुना है, जो इस विषय से साक्षात् संबद्ध हैं।
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१. कायोत्सर्ग प्रकरण
काए शरीर देहे बुंदी चय उवचए य संघाए।
उस्सय समुस्सए वा कलेवरे भत्थ तण पाणू॥ काय के पर्यायवाची शब्द तेरह हैं-काय, शरीर, देह, बोन्दि, चय, उपचय, संघात, उच्छ्य, समुच्छ्रय, कलेवर, भस्त्रा, तनु और पाणु।
२. उस्सम्ग-विउस्सरणा उज्झणा य अवकिरण-छड्डण-विवेगो।
वज्जण-चयणुम्मुअणा परिसाडण-साडणा चेव॥ उत्सर्ग के पर्यायवाची शब्द ग्यारह हैं-उत्सर्ग, व्युत्सर्जन, उज्झन, अवकिरण, छर्दन, विवेक, वर्जन, त्यजन, उन्मोचना, परिशातना, शातना।
३. सो उस्सग्गो दुविहो चेट्टाए अभिभवे य णायव्वो।
भिक्खायरिआइ पढमो उवसग्गाभिजंजणे बीओ॥ वह उत्सर्ग (कायोत्सर्ग) दो प्रकार का होता है-चेष्टा और अभिभव। भिक्षाचर्या आदि प्रवृत्ति के पश्चात् कायोत्सर्ग करना 'चेष्टा कायोत्सर्ग' है और प्राप्त उपसर्गों को सहन करने के लिए कायोत्सर्ग करना 'अभिभव कायोत्सर्ग' है।
४. इहरइवि ता न जुज्जइ अभिओगो किं पुणाइ उस्सग्गे।
ननु गव्वेण परपुरं अभिगिज्झइ एवमेअं पि॥ शिष्य ने पूछा-'गुरुदेव! साधारणतया भी अभियोग करना (बलप्रयोग करना या पराजित करना) उचित नहीं होता, फिर कायोत्सर्ग में वह कैसे उचित हो सकता है? यह कार्य वैसा ही है जैसे गर्व से शत्रु के नगर पर अधिकार करना।'
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४ : जैन योग के सात ग्रंथ ५. मोहपयडीभयं अभिभवितुं जो कुणइ काउस्सगं तु।
भयकारणे हु तिविहे नाभिभवो नेव पडिसेहो॥
आचार्य बोले-'भय मोहनीय कर्म की एक प्रकृति (अवस्था) है। उसका अभिभव करने के लिए कायोत्सर्ग किया जाता है, बाह्य कारणों का पराभव करने के लिए नहीं। भय उत्पन्न होने के तीन बाह्य कारण हैं-देव, मनुष्य और तिर्यंच। उनका अभिभव करने के लिए कायोत्सर्ग नहीं किया जाता। भय को मिटाने के लिए कायोत्सर्ग करने का निषेध नहीं है।'
आगारेऊण परं रणेव्व जइ सो करेज्ज उस्सग्गं। जुज्जए अभिभवो तो तदभावे अभिभवो कस्स॥
संग्राम में किसी को ललकार कर उसका अभिभव किया जाता है, वैसे ही दूसरे को ललकार कर कायोत्सर्ग किया जाए तो वह अभिभव हो सकता है। उसके अभाव में अभिभव किसका? ७. अट्ठविहं पि य कम्मं अरिभूयं तेण तज्जयट्ठाए।
अब्भुट्ठिया उ तवसंजमं च कुव्वंति निग्गंथा॥ __ आठों प्रकार के कर्म आत्मा के लिए शत्रु के समान हैं। अतः उन पर विजय पाने के लिए निर्ग्रन्थ कटिबद्ध हैं और वे तप तथा संयम में रत हैं। ८. तस्स कसाया चतारि नायगा कम्मसत्तसेन्नस्स।
काउसग्गमभंगं करेंति तो तज्जयट्ठाए॥ उस कर्मरूपी शत्रु-सेना के चार नायक हैं-क्रोध, मान, माया और लोभ। वे कायोत्सर्ग में बाधा उपस्थित करते हैं अतः उनको जीतने के लिए प्रयत्न करना चाहिए।
संवच्छरमुक्कोसं अंतमुहुत्तं च अभिभवुस्सगे।
चेट्टा उस्सग्गस्स उ कालपमाणं उवरि वुच्छं।। 'अभिभव कायोत्सर्ग' का उत्कृष्ट कालमान एक वर्ष का और जघन्य कालमान अंतर्मुहूर्त का होता है। 'चेष्टा कायोत्सर्ग' का कालमान हम आगे बतायेंगे।
९.
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१. कायोत्सर्ग प्रकरण : ५ उसिउस्सिओ य तह उस्सिओ अ उस्सिअनिसन्नओ चेव।
निसन्नउसिओ निसन्नो निसन्नगनिसन्नओ चेव॥ ११. निवन्नुसिओ निवन्नो निवन्नगनिवन्नगो अ नायव्यो। एएसिं तु पयाणं पत्तेयपरूवणं वोच्छं।
(युग्मम्) उच्छ्रित-उच्छ्रित, उच्छ्रित, उच्छ्रित-निषण्ण, निषण्ण-उच्छ्रित, निषण्ण, निषण्ण-निषण्ण, निपन्न-उच्छ्रित, निपन्न (सुप्स), निपन्न-निपन्न (सुप्त-सुप्त)-इन सभी पदों की मैं पृथक् रूप से व्याख्या करूंगा।
१२. उस्सिअनिस्सन्नग निवन्नगे अ इक्किक्किम्मि उ पयम्मि।
दव्वेण य भावेण य चउक्कभयणा उ कायव्वा॥ उच्छ्रित, निषण्ण और निपन्न-इन तीनों के द्रव्य तथा भाव से चारचार विकल्प करने चाहिए। जैसे
१. द्रव्य से उच्छ्रित, भाव से उच्छ्रित। २. द्रव्य से उच्छ्रित, भाव से अनुच्छ्रित। ३. द्रव्य से अनुच्छ्रित, भाव से उच्छ्रित। ४. द्रव्य से अनुच्छ्रित, भाव से अनुच्छ्रित।
१३. देहमइजड्डसुद्धी सुहदुक्खतितिक्खया अणुप्पेहा।
झायइ य सुहं झाणं एगग्गो काउस्सग्गम्मि॥ कायोत्सर्ग से ये लाभ प्राप्त होते हैं
१. देहजाड्यशुद्धि-श्लेष्म आदि दोषों के क्षीण होने से देह की जड़ता का नाश।
२. मतिजाड्यशुद्धि-जागरूकता के कारण बुद्धि की जड़ता का
नाशा
३. सुख-दुःख-तितिक्षा-सुख-दुःख को सहने की शक्ति का विकास।
४. अनुप्रेक्षा-भावनाओं के लिए समुचित अवसर का लाभ। ५. एकाग्रचित्त से शुभध्यान करने के अवसर का लाभ।
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६ : जैन योग के सात ग्रंथ
१४. अंतोमुहुत्तकालं चित्तस्सेगग्गया हवइ झाणं।
तं पुण अट्टं रुई धम्म सुक्कं च नायव्वं॥
अंतर्मुहूर्त तक चित्त की एकाग्रता को ध्यान कहा जाता है। वह चार प्रकार का है-आर्त, रौद्र, धर्म्य और शुक्ल।
१५. तत्थ य दो आइल्ला झाणा संसारवड्डणा भणिया।
दुन्नि य विमुक्कहेऊ तेसिऽहिगारो न इयरेसिं॥
प्रथम दो ध्यान-आर्त और रौद्र संसार बढ़ाने वाले और शेष दोधर्म्य और शुक्ल मुक्ति के हेतु हैं। यहां धर्म्य और शुक्ल ही अधिकृत हैं।
१६. संवरिआसवदारो अव्वाबाहे अकंटए देसे।
काऊण थिरं ठाणं ठिओ निसन्नो निवन्नो वा।। १७. चेअणमचेअणं वा वत्थु अवलंबिउं घणं मणसा। झायइ सुयमत्थं वा दविअं तप्पज्जए वावि॥
(युग्मम) इन दो गाथाओं में ध्याता, क्षेत्र, आसन और आलंबन का स्वरूपनिर्देश है
• ध्याता-इन्द्रिय आदि आस्रवद्वारों का संवरण करने वाला। • क्षेत्र-कोलाहल आदि बाधा तथा पत्थर और जीव-जन्तु से
रहित। • आसन-स्थिर खड़ा होना, बैठना या सोना। • आलंबन-चेतन या अचेतन वस्तु, श्रुत या अर्थ, द्रव्य या पर्याय में मन का सघन योग।
१८. तत्थ उ भणिज्ज कोई झाणं जो माणसो परीणामो।
तं न भवइ जिदिढं झाणं तिविहे वि जोगम्मि॥ कोई कहता है कि ध्यान तो मानसिक परिणाम है (ध्यान मानसिक ही होता है), यह यथार्थ नहीं है। क्योंकि मन, वचन और शरीर-तीनों योगों से ध्यान होता है, ऐसा अर्हत् द्वारा निरूपित है।
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१. कायोत्सर्ग प्रकरण : ७
१९. वायाईधाऊणं जो जाहे होइ उक्कडो धाऊ।
कुविउत्ति सो पवुच्चइ न य इअरे तत्थ दो नत्थि॥ शरीर में वात, पित्त और कफ-ये तीन वस्तुएं हैं। इनमें जिस समय जो धातु उत्कट (प्रचुर) होता है, वह कुपित कहलाता है। दूसरे दो धातुओं का निर्देश नहीं किया जाता। इसका यह अर्थ नहीं है कि दूसरे दो धातुओं का अस्तित्व ही नहीं है।
२०. एमेव य जोगाणं तिण्हवि जो जाहि उक्कडो जोगो।
तस्स तहिं निद्देसो इयरे तत्थिक्क दो व न वा॥ इसी प्रकार तीनों योगों में जिस समय जो योग उत्कट होता है, उसी का निर्देश किया जाता है। शेष दो योगों में से उस समय एक योग हो सकता है, दोनों हो सकते हैं या दोनों नहीं भी होते।'
२१. काए वि अ अज्झप्पं वायाइमणस्स चेव जह होइ।
कायवयमणो जुत्तं तिविहं अन्झप्पमाहंसु॥ जैसे मन में अध्यात्म होता है, वैसे ही शरीर और वचन में भी अध्यात्म होता है। शरीर में एकाग्रतापूर्वक चंचलता का निरोध करना कायिक ध्यान है। वचन में एकाग्रतापूर्वक असंयत भाषा का निरोध करना वाचिक ध्यान है। तीर्थंकरों ने अध्यात्म के तीन प्रकार बतलाए हैं
१. मन में अध्यात्म-मानसिक ध्यान (मनोगुप्ति)। २. वचन में अध्यात्म-वाचिक ध्यान (वाग्गुप्लि)। ३. काय में अध्यात्म-कायिक ध्यान (कायगुप्ति)।
२२. जइ एगग्गं चित्तं धारयओ वा निरंभओ वा वि।
झाणं होइ ननु तहो इयरेसु वि दोसु एमेव॥ १. इसका तात्पर्य यह है कि केवलज्ञानी के जब वाग्योग की उत्कटता होती है
तब काययोग भी रहता है। छद्मस्थ के वाग्योग की उत्कटता के समय मनोयोग और काययोग हो भी सकता है और नहीं भी। केवली जब शैलेशी (पर्वत की भांति निष्प्रकंप) अवस्था में होते हैं तब उनके केवल काययोग ही होता है।
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८ : जैन योग के सात ग्रंथ
यदि किसी वस्तु में चित्त को एकाग्र करना या निरोध करना ध्यान है तो वाणी और काया को एकाग्र करना या उनका निरोध करना भी ध्यान होता है।
२३. देसिअदंसिअमग्गो वच्चंतो नरवई लहइ सह।
रायत्ति एस वच्चइ सेसे अणुगामिणो तस्स। ___ मार्गदर्शक आगे-आगे चलता है। राजा आदि उसके द्वारा बताए हुए मार्ग पर चलते हैं। फिर भी कहा जाता है-'यह राजा जा रहा है।' शेष उसके अनुगामी होते हैं (उनका कोई निर्देश नहीं किया जाता)।
२४. पढमिल्लुगस्स उदए कोहस्सिअरे वि तिन्नि तत्थत्थि।
न य ते न संति तहिअ न य पाहन्नं तहेअं पि॥ प्रथम प्रकार के क्रोध (अनंतानुबंधी) की उदयावस्था में शेष तीनों प्रकारों (अप्रत्याख्यान, प्रत्याख्यान और संज्वलन) का भी अस्तित्व रहता ही है। ये तीनों नहीं हैं ऐसा नहीं, किन्तु वे हैं ही। उनकी प्रधानता न होने के कारण उनका व्यपदेश नहीं किया जाता।
२५. मो मे एयउ काओत्ति अचलओ काइअं हवइ झाणं।
एमेव य माणसिअं निरुद्धमणसो हवइ झाणं॥ 'मेरा शरीर कंपित न हो'-ऐसा सोचकर जो निश्चल हो जाता है उसके कायिक ध्यान होता है। उसी प्रकार मन का निरोध करने वाले के मानसिक ध्यान होता है।
२६. जह कायमणनिरोहे झाणं वायाइजुज्जइ न एवं।
तम्हा वई उ झाणं न होइ को वा विसेसुत्थ॥ 'जिस प्रकार काया और मन के निरोध को ध्यान कहा जाता है, वैसे ही वचन के विषय में नहीं कहा जा सकता। वह मन और काया की तरह सदा प्रवृत्त नहीं होता, इसलिए वाचिक ध्यान नहीं हो सकता। यहां विशेष क्या है-यह आप बताएं,' शिष्य ने आचार्य ने पूछा।
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१. कायोत्सर्ग प्रकरण : ९
२७. मा मे चलउ त्ति तणू जह तं झाणं णिरेइणो होइ।
अजया भासविवज्जिस्स वाइअं झाणमेवं तु॥ 'मेरा शरीर कंपित न हो'-इस प्रकार का निष्प्रकंप होना शारीरिक ध्यान है, वैसे ही असंयत भाषा का परिहार करना वाचिक ध्यान है। २८. एवंविहा गिरा मे वत्तव्वा एरिसा न वत्तव्या। .. इअ वेआलियवक्कस्स भासओ वाइअं झाणं॥
मुझे इस प्रकार की भाषा बोलनी चाहिए और इस प्रकार की नहींइस प्रकार बोलने वाले के वाचिक ध्यान होता है। २९. मणसा वावारंतो कायं वायं च तप्परीणामो।
भंगिअसुयं गुणतो वट्टइ तिविहे वि झाणम्मि।
भंगिक श्रुत (दृष्टिवाद का अंश या अन्य विकल्प-प्रधान श्रुत) का गुणन करने वाला व्यक्ति तीनों ध्यानों में प्रवृत्त होता है। उसका मन भंगिक श्रुत में नियोजित होता है, वचन से उसका उच्चारण और अंगुलियों द्वारा उसका लेखन या गुणन होता है-इन तीनों में एकलय होने के कारण वह तीनों ध्यानों में प्रवृत्त होता है।
३०. धम्मं सुक्कं च दुवे झायइ झाणाइ जो ठिओ संतो।
एसो काउस्सग्गो उसिउसिओ होइ नायव्वो॥
जो खड़ा होकर धर्म्य और शुक्ल-इन दो ध्यानों में प्रवृत्त होता है, यह उच्छ्रित-उच्छ्रित कायोत्सर्ग है।
खड़े होकर कायोत्सर्ग करना-द्रव्यतः उच्छ्रित।
धर्म्य-शुक्ल ध्यान करना-भावतः उच्छ्रित। ३१. धम्मं सुक्कं च दुबे न वि झायइ न वि य अट्टरुद्दाइं।
एसो काउस्सग्गो दव्वुस्सिओ होइ नायव्वो।
जो धर्म्य-शुक्ल अथवा आर्त और रौद्र-किसी ध्यान में प्रवृत्त नहीं होता, यह द्रव्य-उच्छ्रित कायोत्सर्ग है।
खड़े रहकर कायोत्सर्ग करना-द्रव्यतः उच्छ्रित। ध्यान का अभाव-भावतः शून्य।
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१० : जैन योग के सात ग्रंथ
३२. पयलायंत सुसुत्तो नेव सुहं झाइ झाणमसुहं वा।
अव्वावारिअचित्तो जागरमाणो वि एमेव॥
जो प्रचलायमान और सुषुप्त है वह न शुभ ध्यान में प्रवृत्त होता है और न अशुभ ध्यान में। इसी प्रकार अव्यापारित चित्तवाला व्यक्ति जागता हुआ भी न शुभ में प्रवृत्त होता है और न अशुभ में।
निद्रावस्था-ध्यान का अभाव । सुषुस अवस्था-ध्यान का अभाव।
जागृत अवस्था में चित्त का अ-व्यापार-ध्यान का अभाव। ३३. अचिरोववन्नगाणं मुच्छिअअव्वत्तमत्तसुत्ताणं।
ओहाडिअमव्वत्तं च होइ पाएण चित्तं ति॥ नवजात, मूर्छित, अव्यक्त, मत्त और सुप्त इनका चित्त प्रायः स्थगित और अव्यक्त होता है। इन अवस्थाओं में ध्यान नहीं होता। ३४. गाढालंबणलग्गं चित्तं वुत्तं निरेअणं झाणं।
सेसं न होइ झाणं मउअवत्तं भमंतं च॥
आलंबन में प्रगाढ़ रूप से संलग्न होकर निष्प्रकंप बना हुआ चित्त ही ध्यान होता है। आलंबन में मृदु भावना से संलग्न, अव्यक्त और अनवस्थित चित्त ध्यान नहीं कहलाता। ३५. उम्हासेसो वि सिही होउं लद्धिंधणो पुणो जलइ।
इअ अव्वत्तं चित्तं होउं वत्तं पुणो होइ॥ जिस अग्नि में कुछ उष्मा अवशिष्ट है, ईंधन से प्राप्त होने पर वह पुनः जल उठती है। इसी प्रकार अव्यक्त चित्त भी पुनः व्यक्त हो जाता है।
३६. पुव्वं च जं तदुत्तं चित्तस्सेगग्गया हवइ झाणं।
आवन्नमणेगग्गं चित्तं चिअ तं न तं झाणं॥ शिष्य ने पूछा- पहले जो ऐसा कहा गया है कि चित्त की एकाग्रता ध्यान है, तो फिर शारीरिक, मानसिक और वाचिक ये तीनों ध्यान एक साथ कैसे हो सकते हैं। क्योंकि तीनों में व्याप्त चित्त अनेक आलंबनों से युक्त होता है। अतः वह केवल चित्त ही होगा, ध्यान नहीं हो सकता।'
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१. कायोत्सर्ग प्रकरण : ११
३७. मणसहिएण उ काएण कुणइ वायाइ भासई जं च।
एवं च भावकरणं मणरहिअं दव्वकरणं तु॥
आचार्य ने कहा-'व्यक्ति मन सहित काया से प्रवृत्ति करता है और मन सहित वचन से बोलता है-यही भावकरण (भावक्रिया) है। जो क्रिया मन-रहित होती है वह द्रव्यकरण (द्रव्यक्रिया) है।
३८. जइ ते चित्तं झाणं एवं झाणमवि चित्तमावन्नं।
तेन किर चित्तं झाणं अह नेवं झाणमन्नं ते॥ शिष्य ने पूछा-'यदि आपको यह मान्य है कि चित्त ही ध्यान है तो इस प्रकार ध्यान भी चित्त होगा और तब कायिक तथा वाचिक ध्यान असंभव हो जाएगा। इसलिए 'चित्त ही ध्यान है'-ऐसा ही आपको मानना होगा। यदि आप ऐसा नहीं मानते तो यह स्पष्ट है कि ध्यान चैतसिक ही नहीं है, उससे भिन्न भी है।'
३९. नियमा चित्तं झाणं चित्तं झाणं न यावि भइअव्वं।
जइ खइरो होइ दुमो दुमो अ खइरा अखइरो अ॥
आचार्य ने कहा-'चित्त ही ध्यान है, यह नियमतः कहा जा सकता है, किन्तु ध्यान चित्त होता भी है और नहीं भी। जैसे खदिर वृक्ष होता है, किन्तु वृक्ष खदिर हो भी सकता है और नहीं भी।'
४०. अट्टं रुदं च दुवे झायइ झाणाइं जो ठिओ संतो।
एसो काउस्सग्गो दव्बुस्सिओ भावओ निसन्नो॥ खड़े होकर आर्त्त और रौद्र-ये दो ध्यान करना, द्रव्यतः उच्छ्रित और भावतः निषण्ण कायोत्सर्ग है। ४१. धम्म सुक्कं च दुवे झायइ झाणाइं जो निसन्नो अ।
एसो काउस्सग्गो निसन्नुस्सिओ होइ नायव्वो॥
१. इसका प्रतिपाद्य यह है कि भावकरण ही ध्यान है, द्रव्यकरण नहीं। अतः मन,
वचन और काया की ध्यानावस्था में उनका प्रवर्तन अनेक विषयगत नहीं, एक ही विषयगत होता है, अतः वह ध्यान ही है।
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१२ : जैन योग के सात ग्रंथ
बैठकर धर्म्य और शुक्ल ध्यान में संलग्न होना निषण्ण-उच्छ्रित कायोत्सर्ग है।
बैठकर कायोत्सर्ग करना-द्रव्यतः निषण्ण।
धर्म्य-शुक्ल ध्यान करना-भावतः उच्छ्रित। ४२. धम्मं सुक्कं च दुवे न वि झायइ न वि य अट्टरुद्दाई।
एसो काउस्सग्गो निसन्नओ होइ नायव्वो॥ धर्म्य, शुक्ल अथवा आर्त्त, रौद्र-किसी ध्यान में संलग्न नहीं होना निषण्ण कायोत्सर्ग है।
बैठकर कायोत्सर्ग करना-द्रव्यतः निषण्ण।
ध्यान का अभाव-भावतः शून्य। ४३. अट्ट रुदं च दुवे झायइ झाणाइं जो निसन्नो उ।
एसो काउस्सग्गो निसन्नगनिसन्नगो नाम॥ बैठकर आर्त्त और रौद्र ध्यान में संलग्न होना निषण्ण-निषण्ण कायोत्सर्ग है।
बैठकर कायोत्सर्ग करना-द्रव्यतः निषण्ण।
आर्त्त-रौद्र ध्यान करना-भावतः निषण्ण। ४४. धम्म सुक्कं च दुवे झायइ झाणाइं जो निवन्नो उ।
एसो काउस्सग्गो निवन्नुस्सिओ होइ नायव्वो॥ सोकर धर्म्य और शुक्ल ध्यान में संलग्न होना निपन्न-उच्छ्रित कायोत्सर्ग है।
सोकर कायोत्सर्ग करना-द्रव्यतः निपन्न। धर्म्य-शुक्ल ध्यान करना-भावतः उच्छित।
४५. धम्म सुक्कं च दुवे न वि झायइ न वि अ अट्टरुद्दाइं।
एसो काउस्सग्गो निवन्नओ होइ नायव्वो॥
धर्म्य, शुक्ल अथवा आर्त्त, रौद्र-किसी ध्यान में संलग्न नहीं होना निपन्न कायोत्सर्ग है।
सोकर कायोत्सर्ग करना-द्रव्यतः निपन्न। ध्यान का अभाव-भावतः शून्य।
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१. कायोत्सर्ग प्रकरण : १३
४६. अटुं रुदं च दुवे झायइ झाणाइ जो निवन्नो उ।
एसो काउस्सग्गो निवन्नगो होइ नायव्वो॥ सोकर आर्त और रौद्र ध्यान में संलग्न होना निपन्न-निपन्न कायोत्सर्ग है।
सोकर कायोत्सर्ग करना-द्रव्यतः निपन्न। आत-रौद्र ध्यान करना-भावतः निपन्न ।
४७. अतरंतो निसन्नो करिज्ज तह वि अ सहू निवन्नो उ।
संबाहुवस्सए वा कारणिअ समत्थ वि निसन्नो॥
जो असमर्थ है वह बैठकर कायोत्सर्ग करे। यदि बैठकर करने में असमर्थ हो तो सोकर करे। यदि रहने का स्थान संकीर्ण हो और मुनि गुरु के वैयावृत्य आदि में संलग्न हो तो समर्थ होते हुए भी बैठकर कायोत्सर्ग करे। ४८. काउस्सगं मोक्खपहदेसिओ जाणिऊण तो धीरा।
दिवसाइआरजाणट्टयाइ ठायंति उस्सग्गं॥
कायोत्सर्ग मोक्ष-मार्ग के रूप में उपदिष्ट है-ऐसा जानकर धृतिमान् मुनि दैवसिक आदि अतिचारों को जानने के लिए कायोत्सर्ग करते हैं।
४९. सयणासणन्नपाणे चेइअ जइ सिज्ज काय उच्चारे।
समिईभावणगुत्ती वितहायरणे अइआरो॥
शयन, आसन, अन्न, पानी, चैत्य, यति, शय्या, कायिकी (प्रसवण), उच्चार (मल), समिति, भावना और गुप्ति-इन विषयों में विपरीत आचरण करना अतिचार है। ५०. गोसमुहणंतगाई आलोए देसिए अईआरे।
सव्वे समाणइत्ता हिअए दोसे ठविज्जाहि॥ कायोत्सर्ग में स्थित मुनि प्रातःकाल में मुखवस्त्रिका तथा अन्यान्य उपधियों के प्रत्यूपेक्षण संबंधि दैवसिक अतिचारों का अवलोकन करेस्मरण करे। सभी अतिचारों को बुद्धि से जानकर उन दोषों को हृदय में स्थापित करे।
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४४ : जन या क सात ग्रंथ
५१. काउं हिअए दोसे जहक्कम जाव ताव पारेइ।
ताव सुहुमाणुपाणू धम्म सुक्कं च झाइज्जा॥ दोषों को हृदय में धारण कर, यथाक्रम उनकी आलोचना करे। जब तक गुरु कायोत्सर्ग सम्पन्न न करें, तब तक आन-प्राण को सूक्ष्म कर धर्म्य-शुक्ल ध्यान करे।
५२. देसिअ राइअ पक्खे चाउम्मासे तहेव वरिसे अ। ___इक्किक्के तिन्नि गमा नायव्वा पंचसेतेसु॥
दैवसिक, रात्रिक, पाक्षिक, चातुर्मासिक और सांवत्सरिक-इन पांचों (प्रतिक्रमणों) में एक-एक के तीन-तीन विकल्प होते हैं
१. सामायिक कर कायोत्सर्ग करना। २. कायोत्सर्ग कर सामायिक करना। ३. पुनः सामायिक कर कायोत्सर्ग करना।
५३. आइमकाउस्सग्गे पडिक्कमणे ताव काउ सामाझ्यं।
तो किं करेह बीयं तइयं च पुणोऽवि उस्सग्गे? शिष्य ने पूछा-'प्रथम कायोत्सर्ग में सामायिक कर लिया, फिर प्रतिक्रमण में दूसरा और अंतिम कायोत्सर्ग में तीसरा सामायिक क्यों किया
जाए?'
५४. समभावम्मि ठियप्पा उस्सग्गं करिय तो पडिक्कमइ।
एमेव य समभावे ठियस्स तइयं तु उस्सग्गे॥
आचार्य ने कहा-'समभाव में स्थित मुनि कायोत्सर्ग कर, दैवसिक आदि अतिचारों के लिए गुरु द्वारा प्रायश्चित्त प्राप्त कर समभावपूर्वक प्रतिक्रमण करता है। इसी समभाव में स्थित रहकर वह कायोत्सर्ग में तीसरा सामायिक करता है।'
५५. सज्झायझाणतवओसहेतु उवएसथुइपयाणेसु।
संतगुणकित्तणेसु अ न हुंति पुणरुत्तदोसा उ॥
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१. कायोत्सर्ग प्रकरण : १५
स्वाध्याय, ध्यान, तप, औषधि, उपदेश, स्तुतिपद, आज्ञा और संतों के गुण-कीर्तन में पुनरुक्त दोष नहीं होता ।
उस्सासं न निरुंभइ आभिग्गहिओवि किमु अ चिट्ठाउ ? सज्जमरणं निरोहे सुहुमुस्सासं तु जयणाए ॥ शिष्य ने पूछा- 'अभिभव कायोत्सर्ग करने वाला भी सम्पूर्ण रूप से श्वास का निरोध नहीं करता है तो फिर चेष्टा कायोत्सर्ग करने वाला उसका निरोध क्यों करेगा?' आचार्य ने कहा- 'श्वास के निरोध से मृत्यु हो जाती है, अतः कायोत्सर्ग में यतनापूर्वक सूक्ष्म श्वासोच्छ्वास लेना चाहिए।'
५६.
देसि राय पक्खिय चउमासे या तहेव वरिसे य । एएस हुंति नियया उस्सग्गा अनिअया सेसा ॥ दैवसिक, रात्रिक, पाक्षिक, चातुर्मासिक और वार्षिक- इनमें किए जाने वाले कायोत्सर्ग श्वासोच्छ्वास की दृष्टि से नियत और शेष अनियत होते हैं।
५७.
५८. सायं सयं गोसऽद्धं तिन्नेव सया हवंति पक्खमि । पंच य चाउम्मासे अट्ठसहस्सं च वारिसए ॥ सायंकालीन कायोत्सर्ग में श्वासोच्छ्वास का परिमाण सौ, प्रातःकालीन में पचास, पाक्षिक में तीन सौ, चातुर्मासिक में पांच सौ और वार्षिक में १००८ है । दैवसिक कायोत्सर्ग में सौ श्वासोच्छ्वास (चार लोगस्स का पाठ ) । '
चत्तारि दो दुवालस वीसं चत्ता य हुंति उज्जोआ । देसिय राय पक्खिय चाउम्मासे अ वरिसे य ।। इस प्रकार दैवसिक के चार, रात्रिक के दो, पाक्षिक के बारह, चातुर्मासिक के बीस और वार्षिक प्रतिक्रमण के चालीस उद्योतकर (लोगस्स) होते हैं।
५९.
१. कायोत्सर्ग में 'चंदेसु निम्मलयरा' तक पाठ किया जाता है। उसके पचीस चरण होते हैं। एक उच्छ्वास में एक चरण का स्मरण होता है।
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१६ : जैन योग के सात ग्रंथ ६०. पणवीसमद्धतेरस सिलोग पन्नत्तरिं च बोद्धव्वा।
सयमेणं पणवीसं बे बावन्ना य वारिसिए॥
चार उच्छ्वासों में एक श्लोक गृहीत होता है। इस परिमाण से दैवसिक में पचीस श्लोक, रात्रिक में साढ़े बारह श्लोक, पाक्षिक में पचहत्तर श्लोक, चातुर्मासिक में सवा सौ श्लोक और वार्षिक में दो सौ बावन श्लोक होते हैं।
६१. गमणागमणविहारे सुत्ते वा सुमिणदंसणे राओ।
नावानइसंतारे इरियावहियापडिक्कमणं॥ गमन, आगमन, विहार, शयन, स्वप्नदर्शन, नावादि से नदीसंतरण, ईर्यापथिकी प्रतिक्रमण-इनमें पचीस श्वासोच्छ्वास का कायोत्सर्ग किया जाता है।
६२. उद्देससमुद्देसे सत्तावीसं अणुन्नवणियाए।
अट्ठेव य ऊसासा पठ्ठवणपडिक्कमणमाई।।
सूत्र के उद्देश और समुद्देश के समय सतावीस श्वासोच्छ्वास का कायोत्सर्ग तथा अनुज्ञा, प्रस्थापना तथा काल-प्रतिक्रमण में आठ श्वासोच्छवास का कायोत्सर्ग होता है।
१. (क) आवश्यक भाष्यगाथा, २३४ :
भत्ते पाणे सयणासणे य अरिहंतसमणसिज्जासु।
उच्चारे पासवणे पणवीसं हंति ऊसासा॥ -भक्त, पान, शयन और आसन के निमित्त बाहर जाना, चैत्यगृह में वन्दनार्थ जाना, श्रमण-वसति से बाहर जाना तथा उच्चार-प्रस्रवण के लिए जाना-इन कार्यों के लिए पचीस श्वासोच्छवास का कायोत्सर्ग करना होता
है।
(ख) प्रक्षिप्त गाथा
नियआलयाओ गमणं अन्नत्थ उ सुत्तपोरिसिनिमित्तं।
होइ विहारो इत्थवि पणवीसं हुंति ऊसासा॥ --अपने स्थान से सूत्र पौरुषी के लिए बाहर जाना भी विहार ही है। इसमें बीस श्वासोच्छ्वास का कायोत्सर्ग करना होता है।
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१. कायोत्सर्ग प्रकरण : १७
६३. जुज्जइ अकालपढियाइएसु दुह्रअ पडिच्छियाईसु।
समणुन्नसमुद्देसे काउस्सग्गस्स करणं तु॥ इसी प्रकार अकाल में स्वाध्याय करने, अविनीत को वाचना देने तथा दूसरों को पढ़ाने और अर्थ की वाचना देने में भी कायोत्सर्ग करना होता है। ६४. जं पुण उद्दिसमाणा अणइकंतावि कुणह उस्सग्गं। ___एस अकओवि दोसो परिधिप्पइ किं मुहा भंते! ?
शिष्य ने पूछा-'भदन्त! वाचना देने में प्रवृत्त मुनि को, श्रुत का अतिक्रमण नहीं करते हुए भी, कायोत्सर्ग करना पड़ता है। अकृत दोष के लिए कायोत्सर्ग का यह व्यर्थ विधान क्यों किया गया है?' ६५. पावुग्घाइ कीरइ उस्सग्गो मंगलंति उद्देसो।
अणुवहियमंगलाणं मा हुज्ज कहिंचि णे विग्घं।
आचार्य ने कहा-'कायोत्सर्ग मंगल है। पाप (अनिष्ट या अमंगल) का निराकरण करने के लिए यह किया जाता है। मंगल का अनुष्ठान न करने पर हमारे कार्य में कहीं विघ्न न आ जाए इस दृष्टि से कार्य के प्रारंभ में मंगल अनुष्ठान (कायोत्सर्ग) करणीय है। ६६. पाणवहमुसावाए अदत्तमेहुणपरिग्गहे चेव।
सयमेगं तु अणूणं ऊसासाणं हविज्जाहि॥ स्वप्न में प्राणिवध, मृषावाद, अदत्तादान, मैथुन और परिग्रह के सेवन से पूरे सौ श्वासोच्छ्वास का कायोत्सर्ग होता है।
जमा
१. (क) दिट्ठीविपरियासे सय मेहुन्नंमि थीविपरियासे।
ववहारेणट्ठसयं अणभिस्संगस्स साहुस्स। -इसी प्रकार दृष्टि के विपर्यास में सौ, स्त्री के प्रति विपरीत चिंतन में १०८ श्वासोच्छ्वास का कायोत्सर्ग करना होता है। (ख) नावा (ए) उत्तरिउं वहमाई तह नइं च एमेव।
संतारेण चलेण व गंतुं पणवीस ऊसासा।। (प्रक्षिप्त गाथा) -नदी को नौका से, जंघा-संतरण या पैरों से चलकर पार करने और किसी प्रकार के वध आदि में पचीस श्वासोच्छ्वास का कायोत्सर्ग करना होता है।
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१८ : जैन योग के सात ग्रंथ ६७. पायसमा ऊसासा कालपमाणेणं हंति नायव्वा।
एवं कालपमाणं उस्सग्गेणं तु नायव्वं ।। एक उच्छ्वास का कालमान है एक चरण का स्मरण। इस प्रकार कायोत्सर्ग से काल-प्रमाण ज्ञातव्य है।
६८. मायाए उससग्गं सेसं च तवं अकुव्वओ सहुणो।
को अन्नो अणुहविही सकम्मसेसं अणिज्जरियं॥
जो मुनि समर्थ है, किन्तु माया के वशीभूत होकर कायोत्सर्ग आदि तप नहीं करता तो उसके अनिर्जरित शेष कर्मों का दूसरा कौन अनुभव करेगा? उसे ही उनका फल प्राप्त होगा।
निक्कूडं सविसेसं वयाणुरूवं बलाणुरूवं च।
खाणुव्व उद्धदेहो काउस्सगं तु ठाइज्जा॥ १. (क) आवश्यक भाष्यगाथा २३५ :
जो खलु तीसइवरिसो सत्तरिवरिसेण पारणाइसमो।
विसमे व कूडवाही निम्विन्नाणे हु से जड्डे॥ -दो मुनि कायोत्सर्ग करते हैं। एक तीस वर्ष का युवा है और दूसरा सत्तर वर्ष का वृद्ध। दोनों एक साथ कायोत्सर्ग प्रारंभ करते हैं, किन्तु यदि युवा मुनि वृद्ध मुनि के साथ-साथ कायोत्सर्ग को सम्पन्न करता है तो वह विषम मार्ग में चलने वाले विषमवाही बैल की भांति अज्ञानी और जड़ है। (ख) आवश्यक भाष्यगाथा २३६ :
समभूमेवि अइभरो उज्जाणे किमुअ कूडवाहिस्स?
अइभारेण भज्जइ तुत्तयघाएहि अ मरालो। -जो बैल विषमवाही होता है उसे समतल भूमि में भी अतिभार लगता है तो चढ़ाई में अतिभार लगे इसमें आश्चर्य ही क्या ? वह दुष्ट बैल भार की अधिकता तथा कोड़े की मार से पीड़ित होता है। (ग) एमेव बलसमग्गो न कुणइ मायाइ सम्ममुस्सग्गं।
मायावडिअ कम्मं पावइ उस्सग्गकेस च॥ (प्रक्षिप्त गाथा) -इसी प्रकार जो मुनि बलवान् होते हुए भी माया के वशीभूत होकर सम्यक् प्रकार से कायोत्सर्ग नहीं करता उसके माया-प्रत्ययिक कर्म का बन्ध होता है तथा वह कायोत्सर्ग के क्लेश को प्राप्त होता है।
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१. कायोत्सर्ग प्रकरण : १९ इसलिए मुनि माया-रहित होकर, विशेष रूप से अपनी अवस्था और बल के अनुरूप खड़े रहकर स्थाणु की भांति निष्प्रकंप होकर कायोत्सर्ग करे।
७०. तरुणो बलवं तरुणो अ दुब्बलो थेरओ बलसमिद्धो।
थेरो अबलो चउसुवि भंगेसु जहाबलं ठाई।। मुनि चार प्रकार के होते हैं१. तरुण और बलवान्। २. तरुण और दुर्बल। ३. स्थविर और बलवान्। ४. स्थविर और दुर्बल। इन चारों विकल्पों में मुनि यथाशक्ति कायोत्सर्ग करता है।
७१. पयलायइ पडिपुच्छइ कंटयवियारपासवणधम्मे।
नियडी गेलन्नं वा करेइ कूडं हवइ एयं॥
कायोत्सर्ग करते समय मुनि माया के वशीभूत होकर नींद का बहाना करता है, सूत्र या अर्थ या दोनों की पृच्छा प्रारंभ कर देता है, कांटा निकालने लगता है, मल-मूत्र विसर्जन के लिए चला जाता है, धर्मकथा में प्रवृत्त होता है रोगी होने का बहाना करता है-ये सब कूट अनुष्ठान हैं।
७२. पुव्वं ठंति य गुरुणो उस्सारियंमि पारेंति।
ठायंति सविसेसं तरुणा उ अनूणविरिया उ॥ शिष्य गुरु के कायोत्सर्ग में स्थित होने पर स्वयं स्थित हो, उनके सम्पन्न करने पर स्वयं उसे सम्पन्न करे और जो शक्ति-सम्पन्न तरुण हों वे विशेष रूप से कायोत्सर्ग करें।
७३.
चउरंगुल मुहपत्ती उज्जूए डब्बहत्थ रयहरणं। वोसट्टचत्तदेहो काउस्सग्गं करिज्जाहि॥
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२० : जन याग क सात ग्रथ
मुनि पंजों के बीच चार अंगुल का अन्तर रखकर, दाएं हाथ में मुखवस्त्रिका और बाएं हाथ में रजोहरण धारण कर, शरीर की प्रवृत्ति का विसर्जन और परिकर्म का त्याग कर कायोत्सर्ग करे।
७४. घोडग लयाइ खंभे कुड्डे माले य सवरि बहु नियले।
लंबुत्तर थण उद्धो संजय खलि (पोय) वायसकवितु॥ सीसुक्कंपिय सूई (मूअ) अंगुलिभमुहा य वारुणी पेहा। नाहीकरयलकुप्पर उस्सारिय पारियंमि थुई।
(युग्मम्) कायोत्सर्ग के ये इक्कीस दोष हैं१. घोटक-अश्व की भांति पैरों को विषम स्थिति में रखना। २. लता-हवा से प्रेरित लता की तरह प्रकंपित होना। ३. स्तंभ-खंभे का सहारा लेकर खड़ा होना। ४. कुड्य-भीत का सहारा लेकर खड़ा होना। ५. माल-ऊपर की छत से सिर को सटाकर खड़ा होना। ६. शबरी-नग्न भीलनी जिस प्रकार अपने गुह्य प्रदेश को हाथों
से ढंककर खड़ी होती है, वैसे अपने गुह्य प्रदेश को ढंककर
खड़ा होना। ७. बहू-कुलवधू की तरह सिर को नमाकर खड़ा रहना। ८. निगड़-पैरों को सटाकर या चौड़ा कर खड़ा होना। ९. लम्बोत्तर-चोलपट्ट को नाभि के ऊपर बांधकर नीचे उसे घुटनों
तक रखना। १०. स्तन-दंश-मशक से बचने के लिए अथवा अज्ञान से चोलपट्ट
को स्तनों तक बांधकर खड़ा होना। ११. उद्धि-एड़ियों को सटाकर, पंजों को फैलाकर खड़े होना। यह
बाह्य उद्धिका है। दोनों पैरों के अंगठों को सटाकर, एडियों
को फैलाकर खड़े होना, यह आभ्यन्तरिक उद्धिका है। १२. संयती-सूत के कपड़े या कंबल से शरीर को साध्वी की भांति
ढंककर खड़े होना।
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१. कायात्सग प्रकरण : २१
१३. खलीन-रजोहरण को आगे कर खड़े होना। १४. वायस-कौवे की भांति दृष्टि को इधर-उधर घुमाना। १५. कपित्थ-जू के भय से कपित्थ की भांति गोलाकार में जंघाओं
के बीच कपड़ा रखकर खड़े होना। १६. शीश प्रकंपन-यक्षाविष्ट व्यक्ति की भांति सिर को धुनते हुए
कायोत्सर्ग करना। १७. मूक-प्रवृत्ति के निवारण के लिए कायोत्सर्ग में 'हूं हूं' ऐसे शब्द
करना। १८. अंगुलि आलापकों को गिनने के लिए अंगुलियों को चालित
करना। १९. भू-भौंहों को नचाना। २०. वारुणी-कायोत्सर्ग में मदिरा की भांति बुदबुदाना। २१. प्रेक्षा-बंदर की भांति होठों को चालित करना।
साधक उपरोक्त दोषों का वर्जन करे। वह चौलपट्ट को नाभि के नीचे बांधे और दोनों हाथों को घटनों तक लंबा कर रखे। कायोत्सर्ग को नमस्कारमंत्र पूर्वक पारित कर स्तुति (नमोत्थुणं स्तोत्र) का उच्चारण करे।
७६. वासीचंदणकप्पो जो मरणे जीविए य समसण्णो।
देहे य अपडिबद्धो काउस्सग्गो हवइ तस्स॥
जो मुनि बी से काटने वाले या चंदन का लेप करने वाले पर समता रखता है, जीवन और मरण में समवृत्ति होता है तथा देह के प्रति अनासक्त होता है उसी के कायोत्सर्ग होता है।
७७. तिविहाणुवसग्गाणं दिव्वाणं माणुसाण तिरियाणं।
सम्ममहियासणाए काउस्सग्गो हवइ सुद्धो॥
देव, मनुष्य और तिर्यंच संबंधी उपसर्गों को जो समभाव से सहन करता है, उसके विशुद्ध कायोत्सर्ग होता है।
७८. इहलोगंमि सुभद्दा राया उदिओअ सिट्ठिभज्जा य।
सोदासखग्गथंभण सिद्धी सग्गो य परलोए॥
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२२ : जैन योग के सात ग्रंथ
इस श्लोक में कायोत्सर्ग के फल संबंधी उदाहरण दिए गए हैं१. सती सुभद्रा - वसन्तपुर नगर के सेठ जिनदत्त की पुत्री का नाम
सुभद्रा था। उस पर झूठा आरोप आया। देवता ने आरोप से मुक्त होने का उपाय बताया। वाराणसी के सारे नगर-द्वार बंद हो गए। सुभद्रा ने कायोत्सर्ग कर चालनी से पानी निकालकर
द्वारों पर छिड़का। वे खुल गए। सारे नगर में उसकी प्रशंसा हुई। २. राजा उदितोदित - राजा की पत्नी अन्तःपुर में आए मुनि को पीड़ित करती । राजा ने कायोत्सर्ग द्वारा सारा उपद्रव शांत कर डाला ।
३. श्रेष्ठी भार्या - चंपानगरी में सुदर्शन नाम का श्रेष्ठी-पुत्र रहता था। उसकी भार्या का नाम मित्रवती (मनोरमा) था। एक बार राजा की पटरानी ने सुदर्शन को अपने साथ भोग भोगने की प्रार्थना की। उसने इस प्रार्थना को ठुकरा दिया। एक दिन सुदर्शन कायोत्सर्ग में स्थित था। रानी ने उसे बंधवा कर अपने अंतःपुर में मंगा लिया। रानी ने भोग की प्रार्थना की। सुदर्शन मौन रहा। रानी ने कोलाहल किया। सिपाही आए और उसे पकड़कर राजा के समक्ष उपस्थित किया। राजा ने वध का आदेश दे डाला। सिपाही उसे वध - स्थान की ओर ले जा रहे थे। मित्रवती ने देखा । वह कायोत्सर्ग में स्थित हो गई । यक्ष की आराधना की। प्रधान वधक ने आदेश दिया कि सुदर्शन
आठ टुकड़े कर डालो। दूसरे वधकों ने तलवार का प्रहार किया । तलवार फूल की माला बन गई। राजा ने उसे मुक्त कर दिया। मित्रवती ने कायोत्सर्ग सम्पन्न किया ।
४. खड्ग-स्तंभन - एक मुनि था। उसने श्रामण्य का विधियुक्त पालन नहीं किया। वह मरकर खड्ग - गेंडा बना । वह पथिकों को मारने लगा। एक बार उस मार्ग से साधु निकल रहे थे। गेंडे ने उन्हें देखा। वह उन्हें मारने दौड़ा। वे कायोत्सर्ग में स्थित हो गए। उन्हें देख वह शांत हो गया । -
ये सारे ऐहिक फल हैं। कायोत्सर्ग का पारलौकिक फल है-मोक्ष अथवा स्वर्गगमन।
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१. कायोत्सर्ग प्रकरण : २३ ७९. काउस्सग्गे जह सुट्ठियस्स भज्जंति अंगमंगाइ।
इय भिंदति सुविहिया अट्टविहं कम्मसंघायं।
लंबे समय तक खड़े होकर कायोत्सर्ग करने वाले मुनि के अंगोपांग टूटते हैं, उसी प्रकार कायोत्सर्ग करने वाला मुनि अपने आठ प्रकार के कर्म-संघातों को तोड़ देता है।
८०. अन्नं इमं सरीरं अन्नो जीवुत्ति एव कयबुद्धी।
दुक्ख परिकिलेसकरं छिंद ममत्तं सरीराओ॥ ८१. जावइया किर दुक्खा संसारे जे मए समणुभूया।
इत्तो दुव्विसहतरा नरएसु अणोवमा दुक्खा॥ ८२. तम्हा उ निम्ममेण मुणिणा उवलद्धसुत्तसारेणं। काउस्सग्गो उग्गो कम्मक्खयट्ठाय कायव्वो॥
(त्रिभिर्विशेषकम्) 'शरीर भिन्न है और आत्मा भिन्न है'-इस प्रकार की बुद्धि का निर्माण कर तुम दुःख और क्लेशकारी शरीर के ममत्व का छेदन करो। संसार में मैंने जितने दुःखों का अनुभव किया है, उससे अति भयानक
और अनुपम दुःख नरक के होते हैं यह सोचकर निर्ममत्व का साधक तथा सूत्र के रहस्य को प्राप्त कर लेने वाला मुनि अपने कर्मों को क्षीण करने के लिए उग्र कायोत्सर्ग करे।
१. आवश्यक भाष्यगाथा २३७ :
जह करगओ निकिंतइ दारूं इंतो पुणोवि वच्चंतो
इअ कंतंति सुविहिया काउस्सग्गेण कम्माइं। -जिस प्रकार इधर-उधर आती-जाती करवत काठ को चीर डालती है, उसी प्रकार सुविहित मुनि कायोत्सर्ग के द्वारा कर्मों को काट डालते हैं।
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२. ध्यानशतक
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संकेतिका
प्रस्तुत ग्रंथ का नाम 'ध्यानाध्ययन', अपर नाम 'ध्यानशतक'। इसके कर्ता जिनभद्रगणि क्षमाक्षमण हैं। इनका अस्तित्वकाल ई. की ५-६ शताब्दी है। इसमें १०६ श्लोक हैं। अंतिम श्लोक में ग्रंथकर्ता का नाम और ग्रंथ-परिमाण का निर्देश है। यह प्राकृत भाषा में पद्यमय रचना है। आचार्य हरिभद्र ने इस ग्रंथ की महत्ता को जानकर इस पर टीका लिखी। यह टीका अत्यंत संक्षिप्त और अपर्याप्त है। बाद में किसी आचार्य ने इस पर व्याख्या लिखने का कष्ट नहीं किया, इसका कारण नहीं जाना जा सकता। इसके अध्ययन से लगता है कि प्राकृत भाषा में निबद्ध यह ग्रंथ अत्यंत मौलिक और इतना संक्षिप्त है कि इसका सम्पूर्ण ज्ञान करने के लिए बृहत्तर टीका की आवश्यकता हो जाती है।
आचार्य महाप्रज्ञजी के पास हम इस ग्रंथ का पारायण कर रहे थे। एक बार आपने कहा-'इस ग्रंथ को पढ़ने से लगता है कि इसके रचयिता जैन ध्यान-प्रणाली के विशेष ज्ञाता और पुरस्कर्ता थे। वे स्वयं ध्यान के सैद्धांतिक और क्रियात्मक पक्ष के पारगामी विद्वान् थे। ध्यान के क्रियात्मक अनुभव के बिना इतनी सूक्ष्मता से निरूपण होना असंभव है। जब तक ध्यान सिद्ध नहीं होता तब तक उसके निरूपण में वह सूक्ष्मता या सत्यता प्रगट नहीं हो सकती।'
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२. ध्यानशतक
वीरं सुक्कज्झाणग्गिदड्डकम्मिंधणं पणमिऊणं। जोईसरं सरण्णं झाणज्झयणं पवक्खामि॥
शुक्लध्यान की अग्नि से जिन्होंने कर्म-ईंधन को जला डाला ऐसे योगीश्वर और शरण्य भगवान् महावीर को प्रणाम कर, मैं 'ध्यानाध्ययन' का प्रवचन करूंगा। २. जं थिरमज्झवसाणं तं झाणं जं चलं तयं चित्तं।
तं होज्ज भावणा वा अणुपेहा वा अहव चिंता॥
जो स्थिर अध्यवसाय (एकाग्रता प्राप्त मन) है उसे ध्यान और जो अस्थिर अध्यवसाय है उसे चित्त कहा जाता है। चित्त तीन प्रकार का होता है
१.भावना-ध्यान के अभ्यास की क्रिया। २. अनुप्रेक्षा-जिस विषय पर स्मृति टिकी हुई थी, उस स्मृतिध्यान से च्युत मन को पुनः उसी स्मृति-ध्यान पर स्थिर करने
का प्रयत्न। ३.चिंता-चिंतन। ३. अंतोमुहुत्तमेत्तं चित्तावत्थाणमेगवत्थुम्मि।
छउमत्थाणं झाणं जोगनिरोहो जिणाणं तु॥ छद्मस्थ-अकेवली के एक वस्तु (पर्याय) में चित्त का एकाग्रतात्मकध्यान अंतर्मुहूर्त मात्र का होता है। फिर वह ध्यान-धारा भिन्न पर्याय में परिवर्तित हो जाती है। केवली के योग-निरोधात्मक ध्यान होता है। ४. अंतोमुहुत्तपरओ चिंता झाणंतरं व होज्जाहि।
सुचिरंपि होज्ज बहुवत्थुसंकमे झाणसंताणो॥
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२८ : जन याग के सात ग्रंथ
अंतर्मुहूर्त के पश्चात् कोई चिंतन अथवा ध्यानान्तर ( भावना या अनुप्रेक्षा) प्रारंभ हो जाता है। अनेक वस्तुओं का आलंबन लेने पर ध्यान का प्रवाह लंबे समय तक भी हो सकता है।
५.
अट्टं रुद्दं धम्मं सुक्कं झाणाइ तत्थ अंताई । निव्वाणसाहणाइं
भवकारणमट्टरुद्दाई॥
ध्यान चार प्रकार का होता है - आर्त्त, रौद्र, धर्म्य और शुक्ल । इनमें अंत के दो ध्यान- धर्म्य और शुक्ल निर्वाण के साधक हैं और आर्त्त तथा रौद्र- ये दो ध्यान भव- भ्रमण के कारक हैं।
६.
अण्णा
धणियं
च॥
द्वेष से मलिन होकर अमनोज्ञ शब्द आदि इन्द्रिय-विषयों के वियोग के लिए अत्यंत चिंता करना तथा उनकी पुनः प्राप्ति न हो - इसका निरंतर अनुस्मरण करना आर्त्तध्यान का पहला प्रकार है ।
सद्दाइविसयवत्थूण विओगचिंतणमसंपओगाणुसरणं
दोसमइलस्स।
७. तह सूलसीसरोगाइवेयणाए विजोगपणिहाणं । तप्पडियाराउलमणस्स ॥
तदसंपओगचिंजा
शूल, शिरोरोग आदि की वेदना होने पर उसके प्रतिकार के लिए आकुल व्याकुल होकर उसके वियोग के लिए तथा उन रोगों की पुनः प्राप्ति न हो इसके लिए एकाग्र चिंतन करना आर्त्तध्यान का दूसरा प्रकार है।
८. इट्ठाणं विसयाईण वेयणाए य रागरत्तस्स | अवियोगऽज्झवसाणं तह संजोगाभिलासो य ॥
अहमं
राग से रक्त व्यक्ति का इष्ट विषयों तथा इष्ट अनुभूतियों के अवियोग का एकाग्र अध्यवसाय तथा उनके पुनः संयोग की अभिलाषा करना आर्त्तध्यान का तीसरा प्रकार है।
देविंदचक्कवट्टित्तणाई
गुणरिद्धिपत्थणामईयं । नियाणचिंतणमण्णाणाणुगयमच्चतं ॥
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२. ध्यानशतक : २९
देवेन्द्र, चक्रवर्ती आदि वैभवशाली व्यक्तियों के विषय और वैभव की प्रार्थना करना निदान है। वह अतिशय अज्ञान से संवलित और अधम है। यह आर्त्तध्यान का चौथा प्रकार है।
एयं चउव्विहं रागदोसमोहंकियस्स जीवस्स । संसारवद्धणं
अट्टज्झाणं
तिरियगइमूलं ॥
आर्त्तध्यान के ये चारों प्रकार राग, द्वेष और मोहयुक्त व्यक्ति के होते हैं। आर्त्तध्यान तिर्यंच गति का मूल कारण और संसार को बढ़ाने वाला है।
१०.
११.
१२.
मज्झत्थस्स उ मुणिणो, सकम्मपरिणामजणियमेयंति । वत्थुस्सभावचिंतणपरस्स सम्म सहंतस्स ॥ कुणओ व पसत्थालंबणस्स पडियारमप्पसावज्जं । तब संजम पडियारं च सेवओ धम्ममणियाणं ॥
( युग्मम्)
जो मुनि वस्तु के स्वभाव का चिंतन करता है, मध्यस्थ (राग द्वेष-रहित) भाव में स्थित है, यह जानता है कि संयोग, वियोग, रोग आदि अपने ही कर्मों के परिणाम हैं, जो उन सबको समभाव से सहता है, जो प्रशस्त आलंबन लेता है, निरवद्य प्रतिकार करता है, जो कर्मजनित दुःखों के लिए तप और संयम को प्रतिकार मानकर बिना निदान किए उनका सेवन करता है, उसके धर्म्यध्यान होता है।
१३.
रागो दोसो मोहो य जेण संसारहेयवो भणिया । अट्टम य ते तिण्णि वि तो तं संसारतरुबीयं ॥ राग, द्वेष और मोह - तीनों संसार के हेतु हैं। ये आर्त्तध्यान में विद्यमान रहते हैं, इसलिए आर्त्तध्यान को संसार रूपी वृक्ष का बीज कहा गया है।
१४.
कावोयनीलकालालेस्साओ अट्टज्झाणोवगयस्स
णाइसकिलिट्ठाओ। कम्मपरिणामजणिआओ ॥
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३० : जैन योग के सात ग्रंथ
आर्तध्यान करते हुए व्यक्ति की कापोत, नील और कृष्ण-ये तीनों लेश्याएं अतिसंक्लिष्ट नहीं होतीं। ये लेश्याएं कर्म-परिणाम-जनित होती हैं।
१५. तस्सऽक्कंदणसोयणपरिदेवणताडणाई लिंगाई।
इट्ठाणिट्ठवियोगावियोगवियणानिमित्ताई आर्तध्यान के चार लक्षण हैं :१. आक्रंदन-जोर-जोर से चिल्लाना। २. शोचन-अश्रुपूर्ण आंखों से दीनता दिखाना। ३. परिदेवन-विलाप करना। ४. ताडण-छाती, सिर आदि को पीटना।
ये चारों इष्ट के वियोग, अनिष्ट के योग और वेदना के निमित्त से उत्पन्न होते हैं।
१६. निंदइ य नियकयाइं पसंसइ सविम्हओ विभूईओ।
पत्थेइ तासु रज्जइ तयज्जणपरायणो होइ॥
आर्तध्यान में व्यक्ति अपने कृत्यों की निंदा करता है, दूसरों की संपदाओं की साश्चर्य प्रशंसा करता है, उनकी अभिलाषा करता है, प्राप्त होने पर उनमें आसक्त होता है और उनको पाने के लिए सतत चेष्टा करता रहता है। १७. सद्दाइविसयगिद्धो सद्धम्मपरम्मुहो पमायपरो।
जिणमयमणवेक्खंतो वट्टइ अट्टमि झाणंमि॥
जो व्यक्ति शब्द आदि इन्द्रिय विषयों के आसक्त है, सद्धर्म से पराङ्मुख है, प्रमादी है, जो वीतराग के प्रवचन से निरपेक्ष है, वह आर्त्तध्यान में प्रवृत्त होता है। १८. तदविरयदेसविरयापमायपरसंजयाणुगं झोणं।
सव्वप्पमायमूलं वज्जेयव्वं जइजणेणं॥
१. यह कथन रौद्रध्यान की अपेक्षा से है।
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२. ध्यानशतक : ३१
यह आर्त्तध्यान अविरत ( मिथ्यादृष्टि), देश - विरत (श्रावक) और प्रमत्तसंयत (छट्ठे गुणस्थानवर्ती मुनि) के होता है। यह सभी प्रमादों का मूल है। मुनिजनों (तथा श्रावकों) को इसका वर्जन करना चाहिए ।
१९. सत्तवह- वेह - बंधण - डहणंकणमारणाइपणिहाणं । अइकोहग्गहघत्थं निग्घिणमणसोऽहमविवागं ॥
निर्दयी व्यक्ति का प्राणियों के वध, वेध, बंधन, दहन, अंकन और मारने आदि का क्रूर अध्यवसाय का होना तथा अनिष्ट विपाक वाले उत्कट क्रोध के ग्रह से ग्रस्त होना रौद्रध्यान का 'हिंसानुबंधी' नामक पहला प्रकार है।
२०.
पिसुणासब्भासब्भूय-भूयघायाइवयणपणिहाणं ।
मायाविणोऽइसंधणपरस्स
पच्छन्नपावस्स
मायावी, दूसरे को ठगने में प्रवृत्त तथा अपना पाप छिपाने के लिए तत्पर जीव के पिशुन-अनिष्ट सूचक वचन, असभ्य वचन, असत्य वचन तथा प्राणीघात करने वाले वचनों में प्रवृत्त न होने पर भी उनके प्रति दृढ़ अध्यवसाय का होना रौद्रध्यान का 'मृषानुबंधी' नामक दूसरा प्रकार है ।
२१. तह तिव्वकोहलोहाउलस्स परदव्वहरणचित्तं
भूओवघायणमणज्जं । परलोयावायनिरवेक्खं ॥
तीव्र क्रोध और लोभ से आकुल होकर प्राणियों का उपहनन, अनार्य आचरण और दूसरे की वस्तु का अपहरण करने की इच्छा करना तथा पारलौकिक अपायों-नरकगमन आदि से निरपेक्ष रहना, रौद्रध्यान का 'स्तेयानुबंधी' नामक तीसरा प्रकार हैं।
२२.
सद्दाइविसयसाहणधणसारक्खणपरायणमणिट्टं सव्वाभिसंकणपरोवघायकलुसाउलं
चित्तं ॥
शब्द आदि इंद्रिय विषयों की प्राप्ति के साधनभूत धन के संरक्षण के लिए तत्पर रहना, अनिष्ट चिंता में व्यापृत रहना, सबके प्रति
१. तत्र मिथुनादिवचनेष्वप्रवर्तमानस्यापि प्रवृत्तिं प्रति प्रणिधानं 1
1
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३२ : जैन योग के सात ग्रंथ शंकाशील होना, दूसरों की घात करने की कलुषता से आकुलचित्त रहना, रौद्रध्यान का 'विषयसंरक्षणानुबंधी' नामक चौथा प्रकार है।
२३. इय करणकारणाणुमइविसयमणुचिंतणं चउन्भेयं।
अविरयदेसासंजयजणमणसंसेवियमहण्णं इस प्रकार रौद्रध्यान के चार भेद हैं-हिंसानुबंधी, मृषानुबंधी, स्तेयानुबंधी और विषयसंरक्षणानुबंधी। इनको स्वयं करना, दूसरों से करवाना और इनका अनुमोदन करना तथा उसी विषय का पर्यालोचन करना रौद्रध्यान है। यह अश्रेयस्कर ध्यान अविरत और देश-असंयत (श्रावक) के होता है।
२४. एयं चउव्विहं रागदोसमोहाउलस्स जीवस्स।
रोद्दज्झाणं संसारवद्धणं नरयगइमूलं॥
रौद्रध्यान के ये चारों प्रकार राग, द्वेष और मोह से आकुल व्यक्ति के होते हैं। ये जन्म-मरण (संसार) को बढ़ाने वाले और नरकगति के मूल कारण हैं।
२५. कावोयनीलकालालेसाओ तिव्वसंकलिट्ठाओ।
रोइज्झाणोवगयस्स कम्मपरिणामजणियाओ॥ रौद्रध्यान के समय व्यक्ति की कापोत, नील और. कृष्ण-ये तीनों लेश्याएं अत्यंत संक्लिष्ट होती हैं। ये कर्मपरिणामजनित होती हैं।
२६. लिंगाइं तस्स उस्सण्णबहुलनाणाविहाऽऽमरणदोसा।
तेसिं चिय हिंसाइसु बाहिरकरणोवउत्तस्स॥
जो इन हिंसा, मृषावाद आदि में (रौद्रध्यान के चारों प्रकारों में) वाणी और शरीर से संलग्न है, उस रौद्रध्यानी के चार लक्षण हैं
उत्सन्नदोष-रौद्रध्यान के हिंसा आदि चार प्रकारों में से किसी एक में बहुलतया प्रवृत्त होना।
बहुलदोष-रौद्रध्यान के सभी प्रकारों में प्रवृत्त होना। नानाविधदोष-चमड़ी उधेड़ने, आंखें निकालने आदि हिंसात्मक
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२. ध्यानशतक : ३३
कार्यों में बार-बार प्रवृत्त होना।
आमरणदोष-हिंसा आदि करने में मृत्यु पर्यन्त अनुताप न होना।
२७. परवसणं अहिनंदइ निरवेक्खो निद्दओ निरणुतावो।
___ हरिसिज्जइ कयपावो रोद्दज्झाणोवगयचित्तो॥
जो रौद्रध्यान में संलग्न है वह दूसरों के दुःख का अभिनन्दन करता है, उससे आनंदित होता है। वह निरपेक्ष होता है-उसके मन में पाप का भय नहीं रहता। वह निर्दय और अनुताप-रहित होता है। वह पाप में प्रवृत्त होकर प्रसन्न होता है। ये रौद्रध्यानी के लक्षण हैं।
२८. झाणस्स भावणाओ देसं कालं तहाऽऽसणविसेसं।
आलंबणं कमं झाइयव्वयं जे य झायारो॥ तत्तोऽणुप्पेहाओ लेस्सा लिंगं च फलं च नाऊणं। धम्मं झाइज्ज मुणी तग्गयजोगो तओ सुक्कं॥
(युग्मम्) मुनि ध्यान की भावनाओं, देश, काल, आसन-विशेष, आलंबन, क्रम, ध्येय, ध्याता, अनुप्रेक्षा, लेश्या, लिंग और फल को जानकर धर्म्य-ध्यान में संलग्न हो। जब उसका अभ्यास पूर्ण कर ले, तब वह शुक्लध्यान में प्रवृत्त हो।
३०. पुव्वकयब्भासो भावणाहिं झाणस्स जोग्गयमुवेइ।
ताओ य नाणदंसणचरित्तवेरग्गनियताओ॥ जिसने भावनाओं के माध्यम से ध्यान का पहले अभ्यास किया है, वह ध्यान करने की योग्यता प्राप्त कर लेता है। भावनाएं चार प्रकार की हैं
१. ज्ञान भावना २. दर्शन भावना ३. चारित्र भावना ४. वैराग्य भावना
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२४ .
३१.
णाणे णिच्चभासो कुणइ मणोधारणं विसुद्धिं च । नाणगुणमुणियसारो तो झाइ सुनिच्चलमईओ ॥ जो ज्ञान का नित्य अभ्यास करता है, ज्ञान में मन को स्थिर करता है, सूत्र और अर्थ की विशुद्धि रखता है, ज्ञान के माहात्म्य से परमार्थ को जान लेता है, वह सुस्थिरचित्त से ध्यान कर सकता है।
३२.
संकाइदोसरहिओ असंमूढमणो
पसमथेज्जाइगुणगणोवेओ । दंसणसुद्धीए झामि ॥
होइ
जो अपने को शंका आदि दोषों से रहित, प्रशम, स्थैर्य आदि गुणों से सहित कर लेता है, वह दर्शन-शुद्धि (दृष्टि की समीचीनता) के कारण ध्यान में अभ्रांत चित्तवाला हो जाता है।
जन पाग सात प्रथ
३३.
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पोराणविणिज्जरं
नवकम्माणायाणं चारित्तभावणाए झाणमयत्तेण य
चारित्र भावना से नए कर्मों का अग्रहण, पूर्वसंचित कर्मों का निर्जरण, शुभ कर्मों का ग्रहण और ध्यान-ये बिना किसी प्रयत्न के ही उपलब्ध हो जाते हैं।
३४.
३५.
सुविदियजगस्सभावो निस्संगो निब्भओ निरासो य वेरग्भावियमणो झाणंमि सुनिच्चलो होइ ॥
जो जगत् के स्वभाव को जानता है, निस्संग (अनासक्त) है, अभय और आशंसा से विप्रमुक्त है, वह वैराग्य भावना से भावित मन वाला होता है। वह ध्यान में सहज ही निश्चल हो जाता है ।
सुभायाणं । समेइ ॥
निच्चं चिय जुवइपसुनपुंसगकुसीलवज्जियं जइणो । ठाणं वियणं भणियं विसेसओ झाणकालंमि ॥
१. जिस व्यक्ति में ज्ञान की निर्मलता, दृष्टि की निर्मलता, चारित्र की निर्मलता और वैराग्य या अनासक्ति होती है वह सहज ही ध्यानारूढ़ हो सकता है।
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२. ध्यानशतक : ३७
मुनि सदा युवती, पशु, नपुंसक तथा कुशील व्यक्तियों से रहित विजन-एकांत स्थान में रहे। विशेष रूप से ध्यानकाल में विजन स्थान को ही चुने।
३६. थिरकयजोगाणं पुण मुणीण झाणे सुनिच्चलमणाणं।
गामंमि जणाइण्णे सुण्णे रण्णे व. ण विसेसो॥
जो मुनि स्थिर-संहनन और धृति से युक्त हैं, कृतयोग-ज्ञान भावनाओं से अभ्यस्त हैं, जो ध्यान में अतिशय स्थिर मन वाले हैं उनके लिए जनाकीर्ण ग्राम और शून्य अरण्य में कोई अन्तर नहीं है।
३७. तो जत्थ समाहाणं होज्ज मणोवयणकायजोगाणं।
भूओवरोहरहिओ सो देसो झायमाणस्स॥ इसलिए जहां मन, वचन और काया के योगों (प्रवृत्तियों) का समाधान (स्वास्थ्य) बना रहे और जो जीवों के संघट्टन से रहित हो, वही ध्याता के लिए श्रेष्ठ ध्यान-स्थल है।
३८. कालोऽवि सोच्चिअ जहिं जोगसमाहाणमुत्तमं लहइ।
न उ दिवसनिसावेलाइनियमणं झाइणो भणियं॥
ध्यान के लिए काल भी वही श्रेष्ठ है जिसमें मन, वचन और काया के योगों का समाधान बना रहे। ध्यान करने वाले के लिए दिनरात या अन्य समय का नियमन नहीं है।
३९. जच्चिअ देहावत्था जिया ण झाणोवरोहिणी होई।
झाइज्जा तदवत्थो निसण्णो निवण्णो वा॥ जिस देहावस्था (आसन) का अभ्यास हो चुका है और जो ध्यान में बाधा डालने वाली नहीं है, उसी में अवस्थित होकर ध्याता स्थित-खड़े होकर कायोत्सर्ग आदि में, निषण्ण-बैठकर वीरासन आदि में अथवा निपन्न-सोकर दंडायतिक आदि आसन में ध्यान करे।
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३६ : जन याग क सात ग्रंथ
४०. सव्वाणु वट्टमाणा मुणओ जं देसकालचेट्ठासु।
वरकेवलाइलाभं पत्ता बहुसो समियपावा॥ सभी देश, काल और चेष्टा-आसनों में प्रवृत्त, उपशांत दोष वाले अनेक मुनियों ने (ध्यान के द्वारा) केवल-ज्ञान आदि की प्राप्ति की है।
४१. तो देसकालचेट्टानियमो झाणस्स नत्थि समयंमि।
जोगाण समाहाणं जह होइ तहा यइयव्वं॥
अतः आगमों में ध्यान के लिए देश, काल और आसन का कोई नियम नहीं है। जैसे योगों का समाधान हो, वैसे ही प्रयत्न करना चाहिए।
च
॥
४२. आलंबणाई वायणपुच्छणपरियट्टणाणुचिंताओ।
सामाइयाइयाई सद्धम्मावस्सयाई धर्म्यध्यान के ये आलंबन हैं१. वाचना
३. परिवर्तना २. प्रच्छना
४. अनुचिंता। ये चारों श्रुत-धर्मानुगामी आलंबन हैं। सामायिक आदि तथा सद्धर्मावश्यक आदि चारित्र-धर्मानुगामी आलंबन हैं।
४३. विसमंमि समारोहइ दढदव्वालंबणो जहा पुरिसो।
सुत्ताइकयालंबो तह झाणवरं समारुहइ॥
जैसे मजबूतं रस्सी का आलंबन लेकर मनुष्य विषम स्थान में भी ऊंचा चढ़ जाता है, वैसे ही सूत्र (वाचना आदि) का आलंबन लेकर व्यक्ति धर्म्यध्यान पर आरूढ़ हो जाता है।
४४. झाणप्पडिबत्तिकमो होइ मणोजोगनिग्गहाईओ।
भवकाले केवलिणो सेसस्स जहासमाहीए॥ केवली के भवकाल-शैलेषी अवस्था में शुक्लध्यान का प्रतिपत्तिक्रम इस प्रकार रहता है-पहले मनोयोग का, तदनन्तर वाक्योग
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२. ध्यानशतक : ३७
का और अन्त में काययोग का निरोध होता है। शेष अर्थात् धर्म्यध्यान में प्रवृत्त व्यक्ति के लिए यह क्रम नहीं है। उसके लिए यथासमाधि (यथास्वास्थ्य) फ्रेम का निर्देश है।
(आणा विजए अवाए विवागे संठाणओ य नायव्वा।
एए चत्तारि पया जायव्वा धम्मझाणस्स)२ धर्म्यध्यान के ध्यातव्य पद चार हैं१. आज्ञाविचय
३. विपाकविजय २. अपायविचय
४. संस्थानविचय। ४. सस्थानावर
४५. सुनिउणमणाइणिहणं भूयहियं भूयभावणमहग्छ ।
अमियमजियं महत्थं महाणुभावं . महाविसयं॥ झाइज्जा निरवज्जं जिणाणमाणं जगप्पईवाणं। अणिउणजणदुण्णेयं नयभंगपमाणगमगहणे॥
(युग्मम्) जगत्प्रदीप अर्हत् की आज्ञा (वीतराग द्वारा प्रदत्त बोध) का आशंसा से मुक्त होकर ध्यान करे। वह आज्ञा अतिनिपुण, अनादिअनंत, प्राणियों के लिए हितकर, सत्यग्राही, अनर्घ्य, अपरिमित, अपराजित, महान् अर्थवाली, महान् सामर्थ्य से युक्त, महान् विषयवाली, अनिपुण लोगों द्वारा अज्ञेय तथा नय, भंग, प्रमाण और गम (विकल्प) से गहन है।
१. धर्म्यध्यान करने वालों में से कुछ व्यक्ति मन का निरोध कर, फिर वचन, शरीर और श्वासोच्छ्वास का निरोध करते हैं और कुछ व्यक्ति शरीर, वचन और श्वासोच्छवास का निरोध कर फिर मन का निरोध कर पाते हैं। आवश्यक में-'ठाणेणं मोणेणं झाणेणं'-इन शब्दों द्वारा तीसरा क्रम प्रतिपादित है। इसका अर्थ है-पहले शरीर की चेष्टा का विसर्जन, फिर वाणी का और फिर मन का। इस क्रम में श्वासोच्छ्वास का निरोध कार्यनिरोध के अंतर्गर्भित है। २. यह गाथा अन्यकर्तृक मानी गई है।
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३८ : जन याग क सात ग्रथ
४७. तत्थ य मइदोब्बलेणं तविहायरियविरहओ वावि।
णेयगहणत्तणेण य णाणावरणोदएणं च॥ हेऊदाहरणासंभवो य सइ सुट्ट जं न बुज्झेज्जा। सव्वण्णुमयमवितहं तहावि तं चिंतए मइमं॥
(युग्मम्) उपर्युक्त आज्ञा का सम्यक् अवबोध न होने के ये कारण हैं१. मति की दुर्बलता। २. उसका अवबोध देने वाले आचार्य का अभाव। ३. ज्ञेय की गहनता। ४. ज्ञान के आवरण की सघनता। ५. हेतु का अभाव। ६. उदाहरण का अभाव।
इन कारणों से सर्वज्ञ द्वारा प्रणीत अवितथ वचन का सम्यक् रूप से अवबोध नहीं होता। इतना होने पर भी बुद्धिमान् मनुष्य को 'सर्वज्ञ का मत अवितथ है-सत्य है'-ऐसा चिन्तन करना चाहिए।
४९. अणुवकयपराणुग्गहपरायणा जं जिणा जगप्पवरा।
जियरागदोसमोहा य णण्णहावाइणो तेणं॥
जगत् में श्रेष्ठ, राग-द्वेष और मोह के विजेता, अनुपकारी पर भी अनुग्रह करने में तत्पर अर्हत् अन्यथावादी नहीं होते, वे कभी वितथ नहीं कहते।
५०. रागहोसकसायाऽऽसवादिकिरियासु वट्टमाणाणं।
इहपरलोयावाओ झाइज्जा वज्जपरिवज्जी॥ वय॑परिवर्णी अर्थात् अप्रमत्त मुनि का राग, द्वेष, कषाय, आस्रव आदि क्रियाओं में प्रवर्तमान व्यक्तियों के इहलोक और परलोक के अपायों (दोषों) का चिंतन करना धर्म्यध्यान का 'अपाय विचय' नामक दूसरा प्रकार है।
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२. ध्यानशतक : ३९
५१. पयइठिइपएसाऽणुभावभिन्नं सुहासुहविहत्तं।
जोगाणुभावजणियं कम्मविवागं विचिंतेज्जा॥ प्रकृति, स्थिति, प्रदेश और अनुभाव आदि भेदों से भिन्न, शुभ और अशुभ में विभक्त, योग (मन, वचन और काया की प्रवृत्ति) तथा अनुभाव (मिथ्यादर्शन, अविरति, प्रमाद और कषाय) से उत्पन्न कर्मविपाक का चिंतन करना धर्म्यध्यान का 'विपाक विचय' नामक तीसरा प्रकार है।
५२. जिणदेसियाइ लक्खणसंठाणासणविहाणमाणाई।
उप्पायट्ठिइभंगाइपज्जवा जे य दव्वाणं॥
अर्हत् द्वारा प्ररूपित द्रव्यों के लक्षण, संस्थान-आकार, आसन-आधार, विधान-जीव-पुद्गल आदि का भेद, मान-परिमाण, उत्पाद, स्थिति-ध्रौव्य, भंग-व्यय-इन पर्यायों का चिंतन करे।
५३. पंचत्थिकायमइयं लोगमणाइणिहणं जिणक्खायं।
णामाइभेयविहिअं तिविहमहोलोयभेयाई॥ लोक पंचास्तिकायमय, अनादि-अनन्त, नाम आदि निक्षेपों के भेद से अवस्थापित, अधोलोक, तिर्यक्लोक और ऊर्ध्वलोक-इन तीन भेदों से विभक्त है। (लोक के इस संस्थान का चिंतन करे)।
५४. खिइवलयदीवसागरनिरयविमाणभवणाइसंठाणं । ___ वोमाइपइट्ठाणं निच्चं लोगट्ठिइविहाणं॥
पृथिवी, वलय-घनोदधि आदि, द्वीप, सागर, नरक, विमान और भवन के संस्थानों का चिंतन करे तथा आकाश आदि पर प्रतिष्ठित शाश्वतिक लोकस्थिति के प्रकार का भी चिंतन करे। ५५. उवओगलक्खणमणाइनिहणमत्थंतरं सरीराओ।
जीवमरूविं कारिं भोयं य सयस्स कम्मस्स॥ जीव उपयोग लक्षण वाला, अनादि-अनन्त, शरीर से भिन्न, अरूपी, अपने कर्मों का कर्त्ता और भोक्ता है।
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४० : जैन योग के सात ग्रंथ
५६.
५७.
अण्णाणमारुएरियसंयोगविजोगवीइसंताणं संसारसागरमणोरपारमसुहं
( युग्मम् )
जीव के अपने कर्मों से उत्पन्न यह संसार - सागर जन्म-मरण के जल से भरपूर, क्रोध - मान आदि कषायों से अगाध, सैकड़ों दुःख रूपी श्वापदों से युक्त, मोह के आवर्त्तो से सहित, महाभयंकर, अज्ञान रूपी वायु से प्रेरित संयोग और वियोग के प्रवाह से युक्त, अनादि - अनन्त और अशुभ है - ऐसा चिंतन करे ।
तस्स य सकम्मजणिअं जम्माइजलं कसायपायालं ।
वसणसयसावयमणं
मोहावत्तं
महाभीमं ॥
५८. तस्स य संतरणसहं णाणमयकण्णधारं
५९.
६०.
संवरकयनिच्छिदं वेरग्गमग्गपडियं
आरोढुं मुणिवणिया जह तं निव्वाणपुरं
सम्मदंसणसुबंधमणग्धं । चारित्तमयं महापोयं ॥
I
विचिंतेज्जा ॥
तवपवणाइद्धजइणतरवेगं । विसोत्तियावीइनिक्खोभं ॥
महग्घसीलंगरयणपडिपुन्नं । सिग्घमविग्घेण पावंति ॥
(त्रिभिर्विशेषकम् )
ऐसे संसार-सागर को तैरने में समर्थ वह चारित्र रूपी महान् नौका सम्यग्दर्शन के सुबंधन से युक्त, अमूल्य, ज्ञानरूपी नाविक से सहित, संवर की प्रवृत्ति से निश्छिद्र, तप रूपी पवन से प्रेरित होकर तीव्र गति से चलने वाली, वैराग्य मार्ग में बढ़ने वाली और विस्रोतसिका - दुर्ध्यान की लहरों से निष्प्रकंप है।
मुनि-वणिक् महार्घ्य शीलांगरत्नों से परिपूर्ण उस नौका में आरूढ होकर शीघ्र ही, बिना किसी बाधा के, उस निर्वाणपुरी को पा लेते हैं । ६१.
तत्थ य तिरयणविणिओगमइयमेगंतियं निराबाहं । साभावियं निरुवमं जह सोक्खं अक्खयमुवेंति ॥
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२. ध्यानशतक : ४१ वहां वे जीव त्रिरत्न विनियोगमय-क्रियाकरणात्मक, ऐकान्तिक, निराबाध, स्वाभाविक, निरुपम और अक्षय सुख को प्राप्त होते हैं।
६२. किं बहुणा? सव्वं चिय जीवाइपयत्थवित्थरोवेयं ।
सव्वनयसमूहमयं झाएज्जा समयसब्भावं॥ ___ अधिक क्या कहा जाए ? ध्याता अर्हत् प्रवचन को ध्यान का विषय बनाए, जिसमें जीव आदि तत्त्वों का, सभी नयों (विचारपक्षों) द्वारा विस्तार से वर्णन किया गया है।
६३. सव्वप्पमायरहिया मुणओ खीणोवसंतमोहा य।
झायारो नाणधणा धम्मज्झाणस्स निहिट्ठा।
जो मुनि सभी प्रमादों से रहित हैं, जिनका मोह क्षीण या उपशांत हो चुका है, वे ज्ञानी मुनि धर्म्यध्यान के अधिकारी माने गए हैं।
६४. एएच्चिअ पुव्वाणं पुव्वधरा सुप्पसत्थसंघयणा।
दोण्ह सजोगाजोगा सुक्काण पराण केवलिणो॥ धर्म्यध्यान के अभ्यास में परिपक्व जो पूर्वधर और सुप्रशस्त (वज्र-ऋषभनाराच) संहनन वाले मुनि होते हैं वे ही शुक्लध्यान के प्रथम दो प्रकारों-पृथक्त्ववितर्क सविचार तथा एकत्ववितर्क अविचार के ध्याता हो सकते हैं। उसका तीसरा प्रकार सूक्ष्मक्रिया अनिवृत्ति सयोगी केवली के और चौथा प्रकार व्यवच्छिन्नक्रिय-अप्रतिपाती अयोगी केवली के होता है।
६५. झाणोवरमेऽवि मुणी णिच्चमणिच्चाइचिंतणपरमो।
होइ सुभावियचित्तो धम्मज्झाणेण जो पुव्विं॥ जिस मुनि का अंतःकरण पहले ही धर्म्यध्यान से सुभावित है, वह ध्यान से उपरत होने पर भी सदा अनित्य आदि भावनाओं के चिंतन में संलग्न रहता है।
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४२ : जैन योग के सात ग्रंथ
६६. होति कमविसुद्धाओ लेसाओ पीयपम्मसुक्काओ।
धम्मज्झाणोवगयस्स तिव्वमंदाइभेयाओ॥ धर्म्यध्यान के समय पीत (तेजः), पद्म और शुक्ल-ये तीन लेश्याएं क्रमशः विशुद्ध होती हैं। परिणामों के आधार पर वे तीव्र या मन्द होती हैं।
६७. आगम उवएसाऽऽणाणिसग्गओ जं जिणप्पणीयाणं।
भावाणं सद्दहणं धम्मज्झाणस्स तं लिंगं॥
आगम, उपदेश, आज्ञा और निसर्ग-इनसे अर्हत् प्रणीत तत्त्वों, पदार्थों में श्रद्धा करना ये धर्म्यध्यान के चिह्न हैं, लक्षण हैं। दूसरे शब्दों में आगमरुचि, उपदेशरुचि, आज्ञारुचि और निसर्गरुचि-यह चतुर्विध रुचि (श्रद्धा) धर्म्यध्यान का लक्षण है।
६८. जिणसाहूगुणकित्तणपसंसणावियणदाणसंपण्णो ।
सुअसीलसंजमरओ धम्मज्झाणी मुणेयव्वो॥ धर्म्यध्यानी वह है जो अर्हत् और साधु के गुणों का उत्कीर्तन करता है, प्रशंसा करता है, उनका विनय करता है, दान देता है तथा श्रुत, शील और संयम में रत रहता है। ६९. अह खंतिमद्दवऽज्जवमुत्तीओ जिणमयप्पहाणाओ।
आलंबणाई जेहिं सुक्कज्झाणं समारुहइ॥ जिनमत में क्षमा, मृदुता, ऋजुता, निर्लोभता आदि गुणों की प्रधानता है। इन आलंबनों से मुनि शुक्लध्यान में आरूढ़ होता है। ७०. तिहुयणविसयं कमसो संखिविउ मणो अणुंमि छउमत्थो।
झायइ सुनिप्पकंपो झाणं अमणो जिणो होइ॥ मन का विषय तीनों लोक है। शुक्लध्यान में संलग्न छद्मस्थ मुनि मन को क्रमशः संक्षिप्त करता हुआ उसको अणु में स्थापित कर, निष्प्रकंप होकर ध्यान करता है। केवली अमन होता है, अतः उसके मानस-ध्यान नहीं होता। उसके केवल कायिक-ध्यान (काय-चेष्टा निरोधात्मक ध्यान) होता है।
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७१.
जह सव्वसरीरगयं मंतेण विसं निरुभए डंके । तत्तो पुणोऽवणिज्ज पहाणतरमंतजोगेणं ॥ तह तिहुयणतणुविसयं मणोविसं मंतजोगबलजुत्तो । परमाणुंमि निरुंभइ अवणेइ तओ वि जिणवेज्जो ॥ ( युग्मम्)
जैसे सारे शरीर में फैले हुए विष को मंत्र प्रयोग से सर्प द्वारा डसे हुए स्थान पर एकत्रित कर विशेष मंत्र - प्रयोग से उसे निकाल दिया जाता है, उसी प्रकार मंत्र (जिनवचन) और ध्यान के सामर्थ्य से युक्त अर्हत् रूपी वैद्य त्रिभुवन को विषयी बनाने वाले मन रूपी विष की एक परमाणु में निरुद्ध कर, उसका ( मन का) अपनयन कर देते हैं ।
७२.
७३.
७४.
प्यागरातका ४२
उस्सारियेंधणभरो जह परिहाइ कमसो हुयासुव्व । थोविंधणावसेसो निव्वाइ तओsaणीओ य ॥
तह विसइंधणहीणो मणोहुयासो कमेण तणुयम्मि । विसइंधणे निरुंभइ निव्वाइ तओऽवणीओ य ।। ( युग्मम् )
जैसे ईंधन के निकालते रहने पर अग्नि क्रमशः क्षीण होती जाती है और वह थोड़े ईंधन वाली रह जाती है। तत्पश्चात् अल्प ईंधन को निकाल देने पर वह बुझ जाती है।
उसी प्रकार विषयरूपी ईंधन से परिहीन मनरूपी अग्नि क्रमशः क्षीण होती जाती है। थोड़े से विषय - ईंधन के रहने पर वह निरुद्ध हो जाती है और उसे पूर्णतः निकाल देने पर वह बुझ जाती है।
७५. तोयमिव नालियाए तत्तायसभायणोदरत्थं वा । परिहाइ कमेण जहा तह जोगिमणोजलं जाण ॥
जैसे नालिका - क्षुद्र घट का अथवा तपे हुए लोहे के भाजन में ठहरा हुआ पानी क्रमशः क्षीण होता जाता है, वैसे ही शुक्लध्यान में लीन योगी का मनोजल भी क्रमशः क्षीण होता जाता है। वह अमन हो जाता है।
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४४ : जन याग के सात ग्रंथ
७६.
इसी प्रकार केवली क्रमशः वाग्योग और काययोग का निरोध कर, मेरु की भांति स्थिर होकर शैलेशी' अवस्था को प्राप्त कर लेता है।
७७.
७८.
एवं चिअ वयजोगं निरुंभइ कमेण कायजोगंपि । तो सेलेसोव्व थिरो सेलेसी केवली होइ ॥
उप्पायइिभंगाइपज्जवाणं
नाणानयाणुसरणं
८०.
सवियारमत्थवंजणजोगंतरओ पुहुत्तविअक्कं
होइ
जगदव्वंमि ।
पुव्वगयसुयाणुसारेणं ॥
( युग्मम्)
अनासक्त पूर्वधर मुनि पूर्वगतश्रुत के अनुसार एक द्रव्य में विद्यमान उत्पाद, स्थिति, व्यय आदि पर्यायों का अनेक नयों से चिंतन करते हैं, वह शुक्लध्यान का 'पृथक्त्व - वितर्क - सविचार' नामक पहला प्रकार है। सविचार का अर्थ है - अर्थ से अर्थान्तर, व्यंजन से व्यंजनान्तर और विवक्षित योग से योगान्तर में संक्रमण होना ।
तयं पढमसुक्कं । सविआरमरागभावस्स ॥
७९. जं पुण सुणिप्पकंपं निवायसरणप्पईवमिव चित्तं । उप्पायइिभंगाइयाणमेगंमि
पज्जाए ॥
अवियारमत्थवंजणजोगंतरओ तयं बितियसुक्कं । पुव्वगयसुयालंबणमेगत्तवितक्कमवियारं
||
( युग्मम्)
उत्पाद, स्थिति, व्यय आदि पर्यायों में से किसी एक पर्याय में अपने मन को, निर्वातगृह में रखे हुए प्रदीप की भांति निष्प्रकंप बनाकर चिंतन करना शुक्लध्यान का 'एकत्व - वितर्क - अविचार' नामक दूसरा प्रकार है। यह भी पूर्वगतश्रुत के आलंबन के आधार पर होता है। इसमें अर्थ से अर्थान्तर, व्यंजन से व्यंजनान्तर और योग से योगान्तर में संक्रमण नहीं होता ।
१. शीलेश : सर्वसंवररूपचरणप्रभुस्तस्येयमवस्था । शैलेशो वा मेरुस्तस्येव याऽवस्था स्थिरतासाधर्म्यात् सा शैलेशी । सा च सर्वथा योगनिरोधे पंचह्रस्वाक्षरोच्चारकालमाना।
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२. ध्यानशतक : ४५ ८१. निव्वाणमणकाले केवलिणो दरनिरुद्धजोगस्स।
सुहुमकिरियाऽनियहि तइयं तणुकायकिरियस्स॥ मोक्षगमन के प्रत्यासन्न काल में केवली के मन और वचन की प्रवृत्ति निरुद्ध हो जाती है, किन्तु उच्छवास-निःश्वासरूप काया की सूक्ष्म प्रवृत्ति वर्तमान रहती है। यह शुक्लध्यान का 'सूक्ष्मक्रिया अनिवृत्ति' नामक तीसरा प्रकार है।
८२. तस्सेव ये सेलेसीगयस्स सेलोव्व णिप्पकंपस्स।
वोच्छिन्नकिरियमप्पडिवाइज्झाणं परमसुक्कं।
शैलेशी अवस्था को प्राप्त केवली मेरु की भांति निष्प्रकंप हो जाता है। यह शुक्लध्यान का 'व्यवच्छिन्नक्रिय-अप्रतिपाती' नामक चौथा प्रकार है। यह परमशुक्ल ध्यान है। ८३. पढमं जोगे जोगेसु वा मयं बितियमेगजोगंमि।
तइयं च कायजोगे सुक्कमजोगंमि य चउत्थं॥
शुक्लध्यान के प्रथम प्रकार में एक ही योग या तीनों योग विद्यमान रह सकते हैं। दूसरे प्रकार में तीन में से कोई एक योग विद्यमान रहता है। तीसरे प्रकार में केवल एक काययोग ही विद्यमान रहता है। तथा चौथे प्रकार में कोई योग नहीं रहता। वह अयोगी को ही प्राप्त होता है। ८४. जह छउमत्थस्स मणो झाणं भण्णइ सुनिच्चलो संतो।
तह केवलिणो काओ सुनिच्चलो भण्णए झाणं॥
जैसे छद्मस्थ व्यक्ति के सुनिश्चल मन को ध्यान कहा जाता है, वैसे ही केवली के सुनिश्चल काया को ध्यान कहा जाता है। ८५. पुव्वप्पओगओ चिय कम्मविणिज्जरणहेउतो यावि।
सहत्थबहुत्ताओ तह जिणचंदागमाओ य॥ चित्ताभावेवि सया सुहुमोवरयकिरियाइ भण्णंति। जीवोवओगसब्भावओ भवत्थस्स झाणाई॥
(युग्मम्)
८६.
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४६ : जैन योग के सात ग्रंथ
भवस्थ सयोगी या अयोगी केवली के चित्त का अभाव होने पर भी जीव का उपयोग रहता ही है। अतः उनमें शुक्लध्यान के सूक्ष्म और उपरत-क्रिया-ये दो अंतिम प्रकार होते हैं। उनमें ध्यान का अस्तित्व मानने के चार हेतु ये हैं१. जीव के पूर्व प्रयोग के कारण। २. कर्मों की निर्जरा के कारण। ३. शब्द के अनेक अर्थों के कारण। ४. आगमिक साक्षी के कारण।
८७. सुक्कज्झाणसुभाविअचित्तो चिंतेइ झाणविगमेऽवि।
णिययमणुप्पेहाओ चत्तारि चरित्तसंपन्नो॥ ८८. आसवरदारावाए तह संसारासुहाणुभावं च। भवसंताणमणंतं वत्थूणं विपरिणामं च॥
(युग्मम्) शुक्लध्यान से सुभावित चित्तवाला चारित्रसम्पन्न मुनि ध्यान से उपरत होने पर भी सदा चारों अनुप्रेक्षाओं का चिंतन करता है। वे ये हैं
१. आस्रवों के अपाय का चिंतन। २. संसार के अशुभ अनुभाव का चिंतन। ३. भवसंतति की अनन्तता का चिंतन। ४. वस्तुओं के विपरिणाम का चिंतन। ८९. सुक्काए लेसाए दो ततियं परमसुक्कलेस्साए।
थिरयाजियसेलेसिं लेसाईयं परमसुक्कं॥
शुक्लध्यान केवक पहले दो प्रकारों में शुक्ललेश्या और तीसरे प्रकार में परमशुक्ललेश्या होती है। चतुर्थ प्रकार लेश्यातीत होता है। वह स्थिरता से शैलेश को जीतनेवाला अर्थात् मेरु पर्वत से भी निष्प्रकम्पतर होने के कारण परमशुक्ल होता है। ९०. अवहाऽसंमोहविवेगविउसग्गा तस्स होति लिंगाई।
लिंगिज्जइ जेहिं मुणी सुक्कज्झाणोवगयचित्तो॥ ९१. चालिज्जइ बीभेइ य धीरो न परीसहोवसग्गेहि।
सुहुमेसु न संमुज्झइ भावेसु न देवमायासु॥
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२. ध्यानशतक : ४७
९२. देहविवित्तं पेच्छइ अप्पाणं तह त सव्वसंजोगे। देहोवहिवोसग्गं निस्संगो सव्वहा कुणइ॥
(त्रिभिर्विशेषकम्) शुक्लध्यानोपगत चित्त वाले मुनि की पहचान के ये चार लक्षण हैं
१.अव्यथ-परीषह और उपसर्गों से न डरना, न चलित होना। २.असंमोह-अत्यंत गहन भावों तथा देवमाया से संमूढ़ न होना। ३. विवेक-शरीर और आत्मा तथा सभी संयोगों को आत्मा से
भिन्न मानना। ४.व्युत्सर्ग-अनासक्त होकर देह और उपधि का सर्वथा त्याग
करना।
९३. होति सुहासवसंवरविणिज्जराऽमरसुहाई विउलाई।
झाणवरस्स फलाइं सुहाणुबंधीणि धम्मस्स॥
उत्तम धर्म्यध्यान के ये फल हैं-शुभआस्रव, संवर, निर्जरा, देवसुख- ये सारे दीर्घस्थिति, विशुद्धि और उपपात के विस्तीर्ण तथा शुभानुबंधी फलों की प्राप्ति कराने वाले होते हैं। (इसका अभिप्राय यह है कि धर्म्यध्यान से पुण्य कर्मों का बंध, पाप कर्मों का निरोध और पूर्व संचित कर्मों का क्षय होता है। ये सब उत्तरोत्तर विशुद्धि को प्राप्त होते हैं। उससे परभव में देवगति की प्राप्ति होती है। वहां आयु की दीर्घता
और सुखोपयोग की बहुलता होती है।) ९४. ते य विसेसेण सुभासवादओऽणुत्तरामरसुहं च।
दोण्हं सुक्काण फलं परिनिव्वाणं परिल्लाणं॥
शुभ आस्रव, संवर और निर्जरा की विशेष प्राप्ति तथा अनुत्तरविमान-वासी देवों का सुख मिलना-यह शुक्लध्यान के प्रथम दो प्रकारों का फल है तथा अंतिम दो प्रकारों का फल है-परिनिर्वाण।
९५.
आसवदारा संसारहेयवो जं ण धम्मसुक्केसु। संसारकारणाइ न तओ धुवं धम्मसुक्काइं॥
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४८ : जैन योग के सात ग्रंथ
आस्रवद्वार संसार के हेतु हैं इसलिए वे धर्म्य और शुक्लध्यान में नहीं होते। इसीलिए धर्म्य और शुक्लध्यान निश्चितरूप से संसार के हेतु नहीं होते, किन्तु मुक्ति के कारण होते हैं।
९६. संवरविणिज्जराओ मोक्खस्स पहो तवो पहो तासिं।
झाणं च पहाणंगं तवस्स तो मोक्खहेऊयं॥
संवर और निर्जरा-दोनों मोक्ष के मार्ग हैं और उनका (संवर और निर्जरा का) पथ है-तप। तप का प्रधान अंग है-ध्यान, इसलिए ध्यान मोक्ष का हेतु है।
९७.
अंबरलोहमहीणं कमसो जह मलकलंकपंकाणं। सोज्झावणयणसोसे साहेति जलाऽणलाऽऽइच्चा॥
तह सोज्झाइसमत्था जीवंबरलोहमेइणिगयाणं। झाणजलाऽणलसूरा कम्ममलकलंकपंकाणं॥
(युग्मम्) जिस प्रकार पानी वस्त्र पर लगे मैल को साफ करता है, वैसे ही ध्यान जीव से संलग्न कर्मरूप मैल को साफ कर देता है। जिस प्रकार अग्नि लोह पर लगे जंग को दूर कर देती है, वैसे ही ध्यान जीव से संबद्ध कर्मरूप कलंक को दूर कर देता है। जिस प्रकार सूर्य पृथ्वी के कीचड़ को सुखा देता है, वैसे ही ध्यान जीव से संलग्न कर्मरूप कीचड़ को सुखा देता है। ९९. तापो सोसो भेओ जोगाणं झाणओ जहा निययं।
तह तावसोसभेआ कम्मस्स वि झाइणो नियमा। जिस प्रकार ध्यान से मन, वचन आदि योगों का ताप-दुःख, शोष-दौर्बल्य और भेद-विदारण अवश्य ही होता है उसी प्रकार ध्यान से ध्याता के कर्मों का भी ताप, शोष और भेद अवश्य होता है।
१००. जह रोगासयसमणं विसोसणविरेयणोसहविहीहिं।
तह कम्मामयसमणं झाणाणसणाइजोगेहिं॥
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२. ध्यानशतक : ४९
जैसे रोग के निदान की चिकित्सा विशोषण, विरेचन, औषधिदान आदि विधियों से की जाती है, वैसे ही कर्मरूपी रोग का शमन ध्यान, अनशन आदि योगों से किया जाता है।
१०१. जह चिरसंचियमिंधणमनलो पवणसहिओ दुयं दहइ।
तह कम्मेधणममियं खणेण झाणाणलो डहइ॥ जिस प्रकार पवन से प्रेरित अग्नि चिरसंचित ईंधन को शीघ्र ही जला देती है, उसी प्रकार ध्यानरूपी अग्नि क्षण-भर में अपरिमित कर्मईंधन को भस्म कर देती है।
१०२. जह वा घणसंघाया खणेण पवणाहया विलिज्जंति।
झाणपवणावहूया तह कम्मघणा विलिज्जति॥
जैसे पवन से आहत बादलों का समूह क्षण में ही विलीन हो जाता है, वैसे ही ध्यान-पवन से विक्षिप्त कर्मरूपी बादल विलीन हो जाते हैं।
१०३. न कसायसमुत्थेहि य बाहिज्जइ माणसेहिं दुक्खेहिं। ईसाविसायसोगाइएहिं
झाणोवगयचित्तो॥ ध्यान में संलग्न मन वाला व्यक्ति कषायों से उत्पन्न ईर्ष्या, विषाद, शोक आदि मानसिक दुःखों से बाधित नहीं होता।
१०४. सीयाऽऽयवाइएहि य सारीरेहिं सुबहुप्पगारेहिं।
झाणसुनिच्चलचित्तो न बाहिज्जइ निज्जरापेही॥ ध्यान में अत्यंत निश्चलचित्त वाला निर्जरार्थी मुनि शीत, आतप आदि अनेक प्रकार के शारीरिक दुःखों से पीड़ित नहीं होता।
१०५. इय सव्वगुणाधाणं दिट्ठादिट्ठसुहसाहणं झाणं।
सुपसत्थं सद्धेयं नेयं जेयं च निच्चंपि॥ इस प्रकार ध्यान सभी गुणों का आधार है, दृष्ट और अदृष्ट सुखों का साधन है, सुप्रशस्त है, श्रद्धेय है, ज्ञेय है और नित्य ध्येय है।
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५० : जैन योग के सात ग्रंथ १०६. पंचुत्तरेण गाहासएण झाणसयगं समुद्दिढ़।
जिणभद्दखमासमणेहिं कम्मसोहीकरं जइणा॥ जिनभद्रक्षमाश्रमण ने एक सौ पांच श्लोकों में कर्मशोधक ध्यानशतक का निरूपण किया है।
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३. योगशतक
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संकेतिका
__इस ग्रंथ के कर्ता हैं विक्रम की ८-९वीं शताब्दी के महान् आचार्य श्री हरिभद्रसूरि। ये ब्राह्मण कुल में जन्में, पर जैन साध्वी याकिनी महत्तरा से प्रतिबुद्ध होकर जैन प्रव्रज्या ग्रहण की। इन्होंने छोटे-बड़े शताधिक ग्रंथों की रचना कर जैन साहित्य भंडार को भरा। कहा जाता है कि जब इनके दो प्रिय शिष्यों का वियोग हो गया तब इन्होंने अपनी पूरी शक्ति का नियोजन साहित्य निर्माण में किया। इन्होंने योग विषयक अनेक ग्रंथ लिखे। उनमें 'योगदृष्टिसमुच्चय', 'योगबिन्दु', 'योगविंशिका' आदि मुख्य हैं। अभी कुछ ही वर्षों पूर्व 'योगशतक' ग्रंथ की हस्तप्रति प्राप्त हुई और आज यह स्वोपज्ञ टीका के साथ प्रकाशित है। इसमें सौ श्लोक हैं। इनमें योग के अधिकारी, अनधिकारी की स्फुट चर्चा है तथा शैक्ष और परिपक्व साधक को किन-किन अवलंबनों का सहारा लेना होता है, इसका दिग्दर्शन है। योग साधक की आहार-चर्या पर भी इसमें अनेक निर्देश हैं।
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३. योगशतक
णमिऊण जोगिणाहं सुजोगसंदंसगं महावीरं। वोच्छामि जोगलेसं जोगज्झयणाणुसारेणं॥
समाधियोग के प्रदर्शक योगीराज भगवान् महावीर को नमन कर मैं योगाध्ययन के अनुसार योग के सारभूत तत्त्वों का निरूपण करूंगा।
२. निच्छयओ इह जोगो सण्णाणाईण तिण्ह संबंधो।
मोक्खेण जोयणाओ णिहिट्ठो जोगिनाहेहिं॥ योगीश्वरों (अर्हतों) ने सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन और सम्यग्चारित्र-इन तीनों के एक साथ अवस्थान को निश्चयदृष्टि से योग कहा है, क्योंकि यह योग आत्मा को मोक्ष के साथ नियोजित करता है।
३. सण्णाणं वत्थुगओ बोहो सइंसणं तु तत्थ रुई।
सच्चरणमणुट्ठाणं विहि-पडिसेहाणुगं तत्थ॥
सम्यग्ज्ञान है-वस्तु का यथार्थबोध, सम्यग्दर्शन है-उसमें यथार्थ रुचि और सम्यक्चारित्र है-उसी विषय में शास्त्रोक्त विधि-निषेधों के अनुसार आचरण करना।
४. ववहारओ उ एसो विन्नेओ एयकारणाणं पि।
जो संबंधो सो वि य कारण कज्जोवयाराओ॥ कारण में कार्य का उपचार कर सम्यग्ज्ञान आदि कारणों का आत्मा के साथ जो संबंध है, उसको भी व्यवहार दृष्टि से योग कहा गया है। ५. गुरुविणओ सुस्सूसाइया य विहिया उ धम्मसत्थेसु।
तह चेवाणुट्ठाणं विहि-पडिसेहेसु जहसत्ति॥
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५४ : जैन योग के सात ग्रंथ
वह व्यवहार-योग इस प्रकार है-गुरु का विनय करना, धर्मशास्त्रों का विधिपूर्वक श्रवण, ग्रहण आदि करना तथा शास्त्रोक्त विधिनिषेधों का यथाशक्ति पालन करना। (शक्ति का गोपन न कर अनुष्ठान करना)।
एत्तो च्चिय कालेणं णियमा सिद्धी पगिट्ठरूवाणं। सण्णाणाईण तहा जायइ अणुबंधभावेण॥ इस व्यवहार-योग के पालन से कालक्रम से सम्यग्ज्ञान आदि तीनों की उत्तरोत्तर विशुद्ध अवस्था अविच्छिन्न रूप से अवश्य प्राप्त होती
है।
मग्गेणं गच्छंतो सम्मं सत्तीए इट्ठपुरपहिओ।
जह तह गुरुविणयाइसु पयट्टओ एत्थ जोगि त्ति॥ जैसे यथाशक्ति सम्यक्मार्ग पर चलता हुआ व्यक्ति अपने अभिलषित नगर का पथिक होता है, वैसे ही जो गुरु के विनय आदि में प्रवृत्त है वह व्यक्ति योगी कहलाता है क्योंकि उसे इष्टयोग की प्राप्ति अवश्य होती है। ८. अहिगारिणो उवाएण होइ सिद्धी समत्थवत्थुम्मि।
फलपगरिसभावाओ विसेसओ जोगमग्गम्मि।
योग अधिकारी तथा उचित उपायों के द्वारा ही प्रत्येक वस्तु में (कार्य में) क्रमशः फल का प्रकर्ष होते-होते कार्य की निष्पत्ति होती है। विशेषरूप से योग के मार्ग में अधिकारी और उपायों का महत्त्व है।
९. अहिगारी पुण एत्थं विण्णेओ अपुणबंधगाइ त्ति।
तह तह णियत्तपगईअहिगारो गभेओ त्ति॥ योग के मार्ग में अपुनर्बन्धक' तथा सम्यक्दृष्टि और सम्यक्चारित्री ही अधिकारी माने गए हैं और अधिकार भी कर्मप्रकृति की निवृत्ति-क्षयोपशम आदि के भेद से अनेक प्रकार का होता है। १. देखें-श्लोक १३।
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३. योगशतक : ५५
१०. अणियत्ते पुण तीए एगंतेणेव हंदि अहिगारे।
तप्परतंतो भवरागओ दढं अणहिगारि ति॥ कर्म प्रकृति का सर्वथा निवर्तन न होने पर निश्चित रूप से अधिकार प्राप्त नहीं होता। जो जीव प्रकृतिपरतंत्र-कर्म के अधीन होता है तथा जिसका भवराग दृढ़ होता है, वह अनधिकारी है।
११. तप्पोग्गलाण तग्गहणसहावावगमओ य एयं ति।
___ इय दट्ठव्वं इहरा तहबंधाई न जुज्जति॥
कर्म-पुद्गलों का स्वभाव है कि वे आत्मा के द्वारा गृहीत होते हैं तथा छोड़े जाते हैं। इसीलिए अधिकारी और अनधिकारी का कथन किया गया है। अन्यथा (ग्रहण और अपगम न मानने पर) बंध आदि की व्यवस्था घटित नहीं होती। १२. एयं पुण णिच्छयओ अइसयणाणी वियाणए णवरं।
इयरो वि य लिंगेहिं उवउत्तो तेण भणिएहिं॥
आत्मा और कर्म-पुद्गलों के संबंध के विषय में निश्चित रूप से केवल अतिशयज्ञानी-केवलज्ञानी ही जानते हैं और दूसरे (छद्मस्थ) व्यक्ति भी अनुमान प्रमाण से अथवा केवली के कथन से उसको जान पाते हैं।
१३. पावं न तिव्वभावा कुणइ ण बहुमण्णई भवं घोरं।
उचियट्टिइं च सेवइ सव्वत्थ वि अपुणबंधो त्ति॥
जो तीव्र भावना से पापकर्म नहीं करता, जो घोर संसार में रचापचा नहीं रहता, जो समस्त क्रिया-कलापों में उचित व्यवस्था का पालन करता है, वह अपुनर्बन्धक होता है। १४. सुस्सूस धम्मराओ गुरु-देवाणं जहासमाहीए।
वेयावच्चे णियमो सम्मद्दिट्ठिस्स लिंगाइ॥
जो धर्म सुनने की इच्छा करता है, धर्मानुरागी है, अपनी शक्ति के अनुसार तथा मानसिक स्वस्थता से गुरु और देव की नियमित परिचर्या करता है, वह सम्यग्दृष्टि होता है। ये सम्यग्दृष्टि के चिह्न हैं।
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५६ : जैन योग के सात ग्रंथ
१५. मग्गणुसारी सद्धो पण्णवणिज्जो कियापरो चेव।
गुणरागी सक्कारंभसंगओ तह य चारित्ती॥
जो मार्गानुसारी है, श्रद्धालु है, प्रज्ञापनीय है, क्रिया में तत्पर और गुणानुरागी है तथा शक्य प्रवृत्ति में ही प्रवृत्त होता है-ये चारित्री के लक्षण हैं।
१६. एसो सामाझ्यसुद्धिभेयओ णेगहा मुणेयव्वो।
आणापरिणइभेया अंते जा वीयरागो ति॥ यह चारित्री सामायिक-समता की शुद्धि के भेद से अनेक प्रकार का होता है। समता की शुद्धि के भेद का कारण है-भगवद् आज्ञा के पालन की तरतमता। इस शुद्धि का अंतिम प्रकार है-वीतराग अवस्था-क्षायिक वीतराग।
१७. पडिसिद्धेसु अदेसे विहिएसु य ईसिरागभावे वि।
सामाइयं असुद्धं सुद्धं समयाए दोसुं पि॥ प्रतिषिद्ध प्रवृत्तियों के प्रति द्वेष, अप्रीति तथा विहित-सम्मत प्रवृत्तियों के प्रति थोड़ा भी रागभाव सामायिक-समता को अशुद्ध बना डालता है। प्रतिषिद्ध और विहित-दोनों प्रवृत्तियों के प्रति मध्यस्थता ही समता का निर्मल रूप है, शुद्ध सामायिक है।
१८. एयं विसेसणाणा आवरणावगमभेयओ चेव। . इय दट्ठव्वं पढमं भूसणठाणाइपत्तिसमं॥
यह शुद्ध सामायिक दो कारणों से निष्पन्न होती है-(१) विशेष ज्ञान के द्वारा तथा (२) चारित्र मोहनीय के विशेष आवरण के दूर होने से। इस प्रकार भूषण, स्थान आदि की प्राप्ति में तथा सिद्धि में सहायक समता को प्रथम सम्यक्त्व सामायिक की उपलब्धि माननी चाहिए।
१९. किरिया उ दंडजोगेण चक्कभमणं व होइ एयस्स।
आणाजोगा पुव्वाणुवेहओ चेव णवरं ति॥
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३. योगशतक : ५७ जैसे (कुम्हार का) चाक डंडे के योग से घूमता रहता है, वैसे ही आज्ञा के योग से तथा 'पूर्वानुवेध'-पूर्वार्जित संस्कारों के योग से इस सामायिक वाले साधक की प्रवृत्ति-निवृत्ति रूप चर्या होती रहती है।
२०. वासी-चंदणकप्पो समसुह-दुक्खो मुणी समक्खाओ।
भव-मोक्खापडिबद्धो अओ य पाएण सत्थेसु॥
इसलिए शास्त्रों में प्रायः उसी को मुनि कहा है जो 'वासीचंदनकल्प' बर्ची से काटे जाने या चंदन से लेप किए जाने पर भी, समभाव में रहता है, जो सुख और दुःख में सम रहता है और जो संसार और मोक्ष के प्रति प्रतिबद्ध नहीं होता।
ठाणा
२१. एएसिं णियणियभूमियाए उचियं जमेत्थऽणुट्ठाणं।
आणामयसंयुत्तं तं सव्वं चेव योगो ति॥ इन अपुनर्बंधक आदि जीवों के, अपनी-अपनी भूमिका के लिए, उचित तथा आज्ञारूप अमृत से संयुक्त जो जो अनुष्ठान हैं वे सब 'योग' हैं।
२२. तल्लक्खणयोगाओ उ चित्तवित्तीणिरोहओ चेव।
तह कुसलपवित्तीए मोक्खेण उ जोयणाओ ति॥ योग के अनेक लक्षण हैं१. चित्तवृत्ति का निरोध योग है। २. कुशल प्रवृत्ति योग है। ३. मोक्ष के साथ योजित करने वाली प्रवृत्ति योग है। ये सब भिन्न-भिन्न भूमिका के साधकों में घटित होते हैं।
२३. एएसिं पि य पायं वज्झाणायोगओ उ उचियम्मि।
अणुठाणम्मि पवित्ती जायइ तहसुपरिसुद्ध त्ति॥ .. इन भिन्न-भिन्न अधिकारियों की प्रायः प्रवृत्ति उचित अनुष्ठान में ही होती है क्योंकि उसमें अपध्यान का योग नहीं होता तथा वह विशेष परिशुद्ध भी होती है।
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५८ : जैन योग के सात ग्रंथ
२४. गुरुणा लिंगेहिं तओ एएसिं भूमिगं मुणेऊणं।
उवएसो दायव्वो जहोचियं ओसहाऽऽहरणा॥ इसलिए इन अधिकारियों की भूमिकाओं को लक्षणों से जान कर गुरु औषध के दृष्टांत का अनुसरण कर उन्हें यथायोग्य उपदेश दे।
२५. पढमस्स लोगधम्मे परपीडावज्जणाइ ओहेणं।
गुरुदेवाऽतिहिपूयाइ दीणदाणाइ अहिगिच्च॥ प्रथम कोटि (अपुनर्बंधक आदि) के साधक को सामान्य रूप से लोक-धर्म का उपदेश देना चाहिए, जैसे-दूसरों को पीड़ा नहीं पहुंचाना, गुरु, देव तथा अतिथि की पूजा करना, तथा हीन-दीन व्यक्तियों को दान देना आदि।
२६. एवं चिय अवयारो जायइ मग्गम्मि हंदि एयस्स।
रणे पहपब्भट्ठोऽवट्टाए वट्टमोयरइ॥
जैसे अरण्य में पथभ्रष्ट व्यक्ति पगडंडी से चलता हुआ मार्ग में आ जाता है, उसी प्रकार लौकिक धर्म के आधार से योग के प्रारंभिक साधकों का मोक्ष मार्ग में अवतरण हो जाता है।
२७. बीयस्स उ लोगुत्तरधम्मम्मि अणुव्वयाइ अहिगिच्च।
परिसुद्धाणायोगा तस्स तहाभावमासज्ज॥
दूसरी कक्षा के योगियों को विशुद्ध आज्ञायोग के आधार पर उसके यथावत् भावों को समझकर अणुव्रत आदि का आश्रय लेकर लोकोत्तर धर्म का उपदेश देना चाहिए।
२८. तस्साऽऽसण्णत्तणओ तम्मि दढं पक्खवायजोगाओ।
सिग्धं परिणामाओ सम्म परिपालणाओ य॥
क्योंकि यही उपदेश श्रावक धर्म के निकट है और इसी में उस साधक का दृढ़ पक्षपात-अनुबंध होता है। इससे ही क्रिया का परिणाम भी शीघ्र आता है और वह इसका सम्यग् परिपालन भी कर सकता है।
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३. योगशतक : ५९
तइयस्स पुण विचित्तो तहुत्तरसुजोगसाहगो णेओ । सामाइयाइविसओ णयणिउणं भावसारो त्ति ॥ तीसरी कक्षा के साधकों को सामायिक आदि विषय का आश्रय लेकर नाना प्रकार से उत्तरोत्तर योगभूमिकाओं की उपलब्धि कराने वाला उपदेश नयविधि से देना चाहिए। वह उपदेश भावना प्रधान हो, जिस भाव को कहना चाहे उससे ओतप्रोत हो ।
२९.
३०.
३१.
३२.
सद्धम्माणुवरोहा वित्ती दाणं च तेण जिणपूय - भोयणविही संझाणियमो य
३४.
माइत्थविसओ गिहीण उवएस मो मुणेयव्वो । जइणो उण उवएसो सामायारी जहा सव्वा ॥ (त्रिभिर्विशेषकम्)
सद्धर्म से अबाधित आजीविका करना (जैसे- अणुव्रतधारी उपासक को कर्मादान से वृत्ति का वर्जन करना), सद्धर्म से परिशुद्ध दान देना, जिन-पूजा - इष्टदेव की पूजा, स्तुति की विधि तथा भोजनविधि का यथावत् पालन करना, संध्या - नियम का पालन करना - गृहस्थ के ये गुण अंततः योग में परिणत होते हैं। चैत्यवंदन - अपने इष्टदेव या गुरु की प्रार्थना, स्तवना करना । यति विश्रमणा - मुनियों की उचित भक्ति, वैयावृत्य, धर्म विषयक श्रवण करना, ये सारी क्रियाएं गृहस्थ के लिए योग ही हैं। तो फिर जो भावना मार्ग है वह तो योग है ही ।
इस प्रकार की प्रवृत्तियों के विषय में जो उपदेश है, वह गृहस्थों के लिए है। मुनियों के लिए समस्त सामाचारी का उपदेश विहित है। गुरुकुलवासो गुरुतंतयाय उचियविणयस्स करणं च । वसहीपमज्जणाइसु जत्तो तहकालवेक्खा ए॥
३३.
चिइवंदण जइविस्सामणा य सवणं च धम्मविसयं ति । गिहिणो इमो वि जोगो किं पुण जो भावणामग्गो ? ॥
सुविसुद्धं । जोगंतो ॥
अणिगूहणा बलम्मी सव्वत्थ पवत्तणं पसंतीए । णियलाभचिंतणं सइ अणुग्गहो मे त्ति गुरुवयणे ॥
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६० : जैन योग के सात ग्रंथ
संवरणिच्छित्तं विहिसज्झाओ
३५.
३६.
गुरु के अनुशासन में गुरुकुल में रहना, यथायोग्य विनय करना, काल मर्यादा के अनुसार वसति प्रमार्जन आदि क्रियाओं में प्रवृत्त होना, शक्ति का गोपन किए बिना शांतचित्त से सभी ( श्रमणयोग्य) क्रियाओं में प्रवर्तन करना, गुरुवचन के पालन में 'मेरा सदा श्रेय है' - ऐसा चिंतन करना तथा यह सोचना कि मेरे पर गुरु का अनुग्रह है कि उन्होंने मुझे ऐसा कहा, संवर अर्थात् त्याग का निश्छिद्र पालन करना, कल्पनीय शुद्ध भिक्षावृत्ति से जीवनयापन करना, विधिपूर्वक स्वाध्याय करना, मृत्यु आदि कष्टों को सहने के लिए तत्पर रहना - यह उपदेश मुनियों के लिए विहित है ।
सुधुंछुज्जीवणं मरणादवेक्खणं
३७.
सुपरिसुद्धं । जइजणुवएसो ॥
(त्रिभिर्विशेषकम् )
उवसोऽविसयम्मी विसए वि अणीइसो अणुवएसो । बंधनिमित्तं णियमा जहोइओ पुण भवे जोगो ॥
अपुनर्बंधक आदि भूमिकाओं के लिए अयोग्य व्यक्ति को उपरोक्त उपदेश देना अथवा योग्य व्यक्ति को विपरीत उपदेश देना- दोनों योग निश्चित ही बंध के निमित्त बनते हैं। योग विषयक जो यथार्थ बात कही है, वही योग होता है ।
गुरुणो अजोगिजोगो अच्छंतविवागदारुणो णेओ ।
धम्मलाघवओ ॥
गुणा
णट्टणासणा
योगी आचार्य का योग के विपरीत आचरण तथा उपदेश अत्यंत दारुण विपाकवाला होता है, क्योंकि उससे योगी- गुणों की हीलना होती है तथा उपदेशक स्वयं नष्ट होता है और विपरीत उपदेश से और
१. इस श्लोक का अर्थ इस प्रकार भी किया गया है-योग्य अधिकारी को यथार्थ उपदेश दिया हो, किन्तु उसी विषय के बाधक तत्त्वों का उपदेश न दिया हो तो उपरोक्त प्रतिपादित योग भी निश्चित रूप से बंधन का निमित्त बनता है।
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३. योगशतक : ६१
अधिक विनाश करता है। इससे धर्म की लघुता होती है।'
३८. एयम्मि परिणयम्मी पवत्तमाणस्स अहिगठाणेसु।
एस विही अइणिउणं पायं साहारणो णेओ॥ योग के उपदेश के परिणत-परिपक्व हो जाने पर आगे की विशिष्ट भूमिकाओं में प्रवर्तमान साधक के लिए अतिसूक्ष्मता से कही जाने वाली यह विधि प्रायः साधारण ही जाननी चाहिए।
३९. निययसहावालोयण - जणवायावगम - जोगसुद्धीहिं।
उचियत्तं णाऊणं निमित्तओ सइ पयट्टेज्जा। अपने स्वभाव का आलोचन, जनापवाद का ज्ञान तथा मन, वचन और काया-इन तीनों योगों की शुद्धि-इन तीनों निमित्तों से औचित्य को जानकर साधक उस योग में प्रवृत्ति करे। ४०. गमणाइएहिं कायं णिरवज्जेहिं वयं च भणिएहिं।
सुहचिंतणेहि य मणं सोहेज्जा जोगसुद्धि ति॥ साधक निर्दोष गमन आदि के द्वारा शरीर की, निरवद्य वचनों से वाणी की तथा शुभ चिंतन से मन की विशोधि करे। यही योगशुद्धि है।
४१. सुहसंठाणा अण्णे कायं वायं च सुहसरेणं तु।
सुहसुविणेहिं च मणं, जाणेज्जा जोगसुद्धि ति॥ कुछ मानते हैं कि शुभ संस्थान से शरीर को, शुभ स्वर से वाणी को तथा शुभ स्वप्नों से मन को शुद्ध करे। यही योगशुद्धि है।
४२. एत्थ उवाओ य इमो सुहदव्वाइसमवायमासज्ज।
पडिवज्जइ गुणठाणं सुगुरुसमीवम्मि विहिणा तु॥ १. इस श्लोक का अर्थ इस प्रकार भी किया गया है-आचार्य यदि अयोग्य को
योग का उपदेश देते हैं तो वह अत्यंत दारुण विपाक वाला होता है। क्योंकि इसमें योगियों के गुण की अवहेलना, स्वयं नष्ट होकर दूसरे का विनाश करना तथा धर्म की लघुता भी होती है।
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६२ : जैन योग के सात ग्रंथ
जब साधक नई भूमिका में प्रवेश करता है तब उसके लिए यह उपाय है। वह शुभ द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव-इन सबका अवलम्बन ले तथा सद्गुरु के समीप विधिपूर्वक उस गुणस्थान को प्राप्त करे।
४३. वंदणमाई उ विही णिमित्तसुद्धी पहाण मो णेओ।
सम्मं अवेक्खियव्वा एसा इहरा विही ण भवे॥ वंदन आदि की विधि में निमित्तशुद्धि (कायिक, वाचिक और मानसिक शुद्धि अथवा शकुन, स्वरनाडी, अंगस्फुरण तथा नक्षत्र, दिवस आदि निमित्तों की शुद्धि) का सम्यक् चिंतन करना चाहिए। अन्यथा वह विधि (शुद्धि) नहीं होती।
४४. उडे अहिगगुणेहिं तुल्लगुणेहिं च णिच्च संवासो।
तग्गुणठाणोचियकिरियपालणासइसमाउत्तो फिर साधक अपने से अधिक गुणवालों तथा समान गुणवालों के साथ सदा निवास करे और अपने गुणस्थान (उपलब्ध भूमिका) के लिए उचित क्रिया का स्मृति-संपन्न होकर पालन करे।
४५. उत्तरगुणबहुमाणो सम्मं भवरूवचिंतणं चित्तं।
अरईए अहिगयगुणे तहा तहा जत्तकरणं तु॥
उत्तरोत्तर गुणस्थानों के प्रति उसके मन में बहुमान हो-गुणानुराग हो, वह संसार के स्वरूप का नाना प्रकार से चिंतन करे तथा प्राप्त गुणों में अरति उत्पन्न होने पर उसके निवारण के लिए उस-उस प्रकार से प्रयत्न करे।
४६. अकुसलकम्मोदयपुव्वरूवमेसा जओ समक्खाया।
सो पुण उवायसज्झो पाएण भयाइसु पसिद्धो॥ यह अरति अकुशल कर्मोदय का पूर्वरूप अर्थात् कारण है, ऐसा भगवान् ने कहा है। अकुशल कर्मोदय का निवारण उपाय-साध्य है, जैसे यह प्रसिद्ध है कि भय, रोग, विष आदि का निवारण उपाय-साध्य है।
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३. यागशतक : ६३
४७. सरणं भए उवाओ रोगे किरिया विसम्मि मंतो त्ति।
एए वि पावकम्मोवक्कमभेया उ तत्तेणं॥ ४८. सरणं गुरू उ इत्थं, किरिया उ तवो त्ति कम्मरोगम्मि।
मंतो पुण सज्झाओ मोहविसविणासणो पयडो॥ एएसु जत्तकरणा तस्सोवक्कमणभावओ पायं। नो होइ पच्चवाओ अवि य गुणो एस परमत्थो॥ चउसरणगमण दुक्कडगरहा सुकडाणुमोयणा चेव। एस गणो अणवरयं कायव्वो कुसलहेउ त्ति॥
(चतुर्भिः कलापकम्) भय में शरण-पुर, स्थान आदि, रोग में क्रिया (चिकित्सा) और विष में मंत्र उपाय है। तत्त्वतः ये ही पापकर्म के निवारण के प्रकार हैं।
(भय निवारण में) गुरु शरण है, कर्म रोग के निवारण में तपस्या क्रिया-चिकित्सा है तथा मोहरूपी विष को नष्ट करने का अनुभवसिद्ध मंत्र है-स्वाध्याय।
इन उपायों में प्रयत्नशील रहने से तथा पापकर्म का अपगम होने से प्रायः (साधनों में) प्रत्यवाय-व्याघात नहीं होता, परन्तु ये प्रयत्न परमार्थतः लाभ रूप ही होते हैं।
चार शरणों को स्वीकार करना, दुष्कृत्य की निंदा तथा सुकृत्य का अनुमोदन करना-इस कर्त्तव्य को कुशल-श्रेय का हेतु मानकर इसका निरंतर आचरण करना चाहिए।
५१. घडमाण-पावत्ताणं जोगीणं जोगसाहणोवाओ।
एसो पहाणतरओ णवरपवत्तस्स विण्णेओ॥
चरमप्रवृत्तयोगी (सर्वविरतियोगी) के लिए उपर्युक्त तथ्य योगसाधन के उपाय हैं तथा नवरप्रवृत्त अर्थात् नौसिखिया योगी के लिए तो आगे (गाथा ५२ में) कहे जाने वाले तथ्य प्रधानरूप से उपायभूत होते हैं।
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६४ : जैन योग के सात ग्रंथ
५२. भावणसुयपाढो तित्थसवणमसतिं तयत्थजाणम्मि।
तत्तो य आयपेहणमतिनिउणं दोसवेक्खाए॥ भावनाश्रुत का विधिपूर्वक अध्ययन, तीर्थ-श्रुत और अर्थ के अधिकृत ज्ञाता तथा भावना मार्ग के पारगामी आचार्य से बार-बार शास्त्र सुनना, भावनाश्रुत और अर्थ का ज्ञान हो जाने पर दोषनिरीक्षण द्वारा अत्यंत सूक्ष्म बुद्धि से आत्मा का अवलोकन करना-यह 'नवर प्रवृत्त' (नौसिखिये) योग साधक के लिए योगोपाय है।
५३. रागो दोसो मोहो एए एत्थाऽऽयदूसणा दोसा।
कम्मोदयसंजणिया विण्णेया आयपरिणामा॥
राग, द्वेष और मोह-ये आत्मा को दूषित करने वाले दोष हैं, ये कर्मों के उदय से निष्पन्न आत्म-परिणाम हैं।
५४. कम्मं च चित्तपोग्गलरूवं जीवस्सऽणाइसंबद्धं।
मिच्छत्तादिनिमित्तं णाएणमतीयकालसमं॥
जीव के साथ अनादिकाल से संबद्ध ये कर्म विविध पुद्गल रूप हैं। इनकी उत्पत्ति के निमित्त हैं-मिथ्यात्व आदि दोष। तर्क के आधार पर ये अतीतकाल के समान हैं। (जैसे अतीत अनादि होता है वैसे ही जीव और कर्म का संबंध अनादिकालीन है।)
५५. अणुभूयवत्तमाणो सव्वो वेसो पवाहओऽणादी।
जह तह कम्मं णेयं कयकत्तं वत्तमाणसमं॥ यद्यपि अतीतकाल का प्रत्येक अंश वर्तमान को प्राप्त हुआ है, फिर भी वह प्रवाह रूप से अनादि है। जैसे कर्म का कृतकत्व भी वर्तमान तुल्य है अर्थात् सादि है फिर भी वह प्रवाह रूप से अनादि है।
५६. मुत्तेणममुत्तिमओ उवघाया-ऽणुग्गहा वि जुज्जंति।
जह विण्णाणस्स इहं मइरापाणोसहादीहिं॥
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३. योगशतक : ६५ जैसे मदिरापान, औषधिसेवन आदि से चेतनायुक्त जीव पर बुरा या अच्छा (उपघात-अनुग्रह) प्रवाह होता है, वैसे ही मूर्त्त कर्मों का अमूर्त आत्मा पर उपघात-अनुग्रह रूप प्रभाव होता है।
५७. एवमणादी एसो संबंधो कंचणोवलाणं व।
एयाणमुवाएणं तह वि विओगो वि हवइ ति॥
जैसे स्वर्ण और उपल का अनादि संबंध है, वैसे ही जीव और कर्म का अनादि संबंध है। फिर भी उपाय से जैसे स्वर्ण और उपल का पृथक्करण होता है वैसे ही उपाय से जीव और कर्म का वियोग-पृथक्करण भी होता है।
५८. एवं तु बंध-मोक्खा विणोवयारेण दो वि जुज्जंति।
सुह-दुक्खाइ य दिट्ठा इहरा ण कयं पसंगेण॥ इस प्रकार बंध और मोक्ष-दोनों अनुपचरित-वास्तविक हैं। अन्यथा जो सुख-दुःख प्रत्यक्ष हैं, वे आत्मा में घटित नहीं हो सकते। इतना कथन पर्याप्त है।
५९. तत्थाभिस्संगो खलु रागो अप्पीइलक्खणो दोसो।
अण्णाणं पुण मोहो को पीडइ मं दढमिमेसिं?॥
जो आसक्ति है वह राग है, जो अप्रीति रूप है वह द्वेष है और जो अज्ञान है वह मोह है। साधक यह सोचे कि इनमें से कौन-सा दोष मुझे अधिक पीड़ित कर रहा है?
६०. णाऊण ततो तब्विसयतत्त-परिणइ-विवागदोसे त्ति।
चिंतेज्जाऽऽणाए दढं पइरिक्के सम्ममुवउत्तो॥
यह सोच-समझकर उन दोषों के विषय-स्वरूप, परिणाम और विपाक-तीनों का एकांत में एकाग्र होकर वीतराग की आज्ञा के अनुसार सम्यक् चिंतन करे।
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६६ : जैन योग के सात ग्रंथ
६१.
गुरु-देवयापणामं
दस - मसगाइ
काए
गुरु और इष्टदेव को प्रणाम कर, पद्मासन आदि आसन में स्थित होकर, दंश-मशक आदि के उपद्रवों से विचलित न होता हुआ साधक चिंतनीय विषयों में मन को लगाकर चिंतन करे ।
६२.
६३.
काउं
पउमासणाइठाणेण । अगणेंतो तग्गयऽज्झप्पो ॥
गुरु और देवता से अनुग्रह प्राप्त होता है और उसी से अधिकृत कार्य में सिद्धि मिलती है । यह अनुग्रह गुरु और देवता के निमित्त से तथा कार्य के साथ एकात्मकता से होता है।
गुरु-देवयाहि जायइ अणुग्गहो अहिगयस्स तो सिद्धी । एसो य तन्निमित्तो तहाऽऽयभावाओ विण्णेओ ॥
जह चेव मंत- रयणाइएहिं विहिसेवगस्स भव्वस्स । उवगाराभावम्मि वि तेसिं होइ त्ति तह एसो ॥
जैसे मंत्र, रत्न आदि प्रत्यक्षतः किसी पर अनुग्रह नहीं करते, परन्तु उनकी विधिपूर्वक उपासना करने वाला भव्य प्राणी उनसे उपकृत होता है। उसी प्रकार गुरु-देवता भी प्रत्यक्षतः किसी को उपकृत नहीं करते, परन्तु उनकी विधियुक्त उपासना करने वाला उपकृत होता है ।
६५.
६४. ठाणा कायनिरोहो तक्कारीसु बहुमाणभावो य । दंसादिअगणणम्मि वि वीरियजोगो य इट्ठफलो ॥
आसनों से कायचेष्टा का निरोध होता है तथा आसन करने वालों के प्रति बहुमान का भाव जागृत होता है। जो दंश-मशक आदि के उपद्रवों से विचलित नहीं होता, उसे वीर्ययोग - प्रबल पुरुषार्थ की प्राप्ति होती है और उसे अपना इष्टफल- योगसिद्धि प्राप्त होती है।
तग्गयचित्तस्स तहोवओगओ तत्तभासणं होति ।
एयं एत्थ पहाणं
अंगं खलु
इट्ठसिद्धीए ॥
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३. योगशतक : ६७
जो साधक चिंतनीय विषय में दत्तचित्त हो जाता है, उसको उस एकाग्रता के कारण अधिकृत वस्तु का यथार्थ स्वरूप अवभासित होता है और यही इष्टसिद्धि का प्रधान अंग है।
एयं खु तत्तणाणं असप्पवित्तिविणिवित्तिसंजणगं । थिरचित्तगारि लोगदुगसाहगं बेंति समयण्णू ॥
यही तत्त्वज्ञान असत् प्रवृत्ति का निवर्तक, चित्त की स्थिरता कराने वाला तथा इहलोक और परलोक दोनों लोकों का साधक है- उपकारक है, ऐसा शास्त्रज्ञों का कथन है।
६६.
६७.
६८.
थीरागम्मी तत्तं तासिं चिंतेज्ज सम्मबुद्धीए । कलमलग-मंससोणिय पुरीस-कंकालपायं
ति ॥
रोग - जरापरिणामं चलरागपरिणतिं
७०.
णरगादिविवागसंगयं
जीयनासणविवागदोसं
( युग्मम्)
स्त्री के प्रति राग होने पर ध्याता सम्यग् बुद्धि से स्त्री के वास्तविक स्वरूप का चिंतन करे कि स्त्री का कलेवर कलमलक- उदरमलों, मांस, शोणित, पुरीष तथा कंकाल मात्र है। वह रोग तथा जरा से ग्रस्त होने वाला, नरक आदि कटुक विपाक को देने
होता है । स्त्री का अनुराग भी चंचल होता है तथा अन्त में जीवत्व का नाश करने वाला विपाक दोष भी पैदा होता है।
६९.
अहवा ।
ति ॥
अत्थे रागम्मि उ अज्जणाइदुक्खसयसंकुलं तत्तं । गमणपरिणामजुत्तं कुगइविंवागं च चिंतेज्जा ॥ धन के प्रति राग होने पर ध्याता सोचे कि धन उपार्जन, रक्षण आदि सैकड़ों दुःखों - कष्टों से संकुल है। वह विनष्ट होने वाला तथा कुगति के विपाक से युक्त है।
दोसम्म उ जीवाणं विभिण्णयं एव पोग्गलाणं च । अणवट्ठियं परिणतिं विवागदोसं च परलोए ॥
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६८ : जैन योग के सात ग्रंथ
द्वेषभाव उत्पन्न होने पर ध्याता सोचे कि जीव और पुद्गल भिन्न हैं। उनका परिणाम अस्थिर है और परलोक में इसका विपाक अमनोज्ञ होता है।
७१. चिंतेज्जा मोहम्मी ओहेणं ताव वत्थुणो तत्तं।
उप्पाय-वय-धुवजुयं अणुहवजुत्तीए सम्म ति॥ मोह के विषय में ध्याता सबसे पहले अनुभव और युक्ति से वस्तु के स्वरूप का चिंतन करे कि प्रत्येक वस्तु उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य युक्त है।
७२. नाभावो च्चिय भावो अतिप्पसंगेण जुज्जइ कयाइ।
ण य भावोऽभावो खलु तहासहावत्तऽभावाओ॥ ___ अतिप्रसंग दोष के कारण अभाव (असत्) कभी भाव (सत्) नहीं बनता और भाव कभी अभाव नहीं बनता। क्योंकि वस्तु का वैसा स्वभाव नहीं है।
७३. एयस्स उ भावाओ णिवित्ति-अणुवित्तिजोगओ होति।
उप्पायादी णेवं अविगारी वऽणुहवविरोहा॥
प्रत्येक वस्तु में स्वभावतः निवृत्ति और अनुवृत्ति का योग होता है। प्रत्येक वस्तु में उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य तीनों होते हैं। आत्मा को एकांततः अविकारी अर्थात् कूटस्थ नित्य मानना अनुभव-विरुद्ध है। ७४. आणाए चिंतणम्मी तत्तावगमो णिओगओ होति।
भावगुणागरबहुमाणओ य कम्मक्खओ परमो॥
शास्त्र के अनुसार चिंतन करने से तत्त्व का बोध अवश्य होता है तथा भावगुणाकर-तीर्थंकर आदि का बहुमान करने से उत्कृष्ट कर्मक्षय होता है।
७५. पइरिक्के वाघाओ न होइ पाएण योगवसिया य।
जायइ तहापसा हंदि अणब्भत्थजोगाणं॥
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३. योगशतक : ६९
जो योग के अभ्यासी नहीं हैं उन साधकों को एकांत में प्रायः कोई व्याघात नहीं होता और उनमें योगाभ्यास का सामर्थ्य प्रशस्त हो जाता है।
उवओगो पुण एत्थं विण्णेओ जो समीवजोगो त्ति । विहियकिरियागओ खलु अवितहभावो उ सव्वत्थ ॥ प्रस्तुत प्रसंग में उपयोग का अर्थ है- योगसिद्धि की निकटता । स्थान आदि क्रियाओं का यथोक्तविधिपूर्वक समग्रता से पालन करना योगसिद्धि की निकटता है।
७६.
एवं अब्भासाओ तत्तं परिणमइ चित्तथेज्जं च । जायइ भवाणुगामी सिवसुहसंसाहगं परमं ॥ इस प्रकार के अभ्यास के द्वारा तत्त्व की परिणति ( राग आदि तत्त्वों का स्वरूप - विमर्श) तथा चित्त की स्थिरता घटित होती है जो जन्मान्तरानुगामी तथा परम मोक्ष सुख की प्राप्ति में सहायक बनती है।
७७.
७८. अहवा ओहेणं चिय भणियविहाणाओ चेव भावेज्जा । ताइए गुणे परमसंविग्गो ॥
सत्ताइसु
सत्तेसु ताव मेत्तिं तहा पमोयं गुणाहिएसुं ति । करुणा-मज्झत्थत्ते किलिस्समाणाऽविणेएसु ॥
७९.
८०.
एसो चेवेत्थ कमो उचियपवित्तीए वण्णिओ साहू । इहराऽसमंजसत्तं तहातहाऽठाणविणिओया ॥
(त्रिभिर्विशेषकम्)
अथवा परम संविग्न साधक सामान्य रूप से प्रतिपादित विधान के अनुसार प्राणियों के प्रति मैत्री आदि गुणों - भावनाओं का प्रयोग करे ।
सभी प्राणियों के प्रति मैत्री, गुणाधिक व्यक्तियों के प्रति प्रमोद भावना, दुःखी जीवों के प्रति करुणा और विपरीत वृत्ति वाले मनुष्यों के प्रति मध्यस्थता - उपेक्षा भाव रखे।
उचित प्रवृत्तियों का यह क्रम सम्यग्रूप से वर्णित है। अन्यथा,
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७० : जैन योग के सात ग्रंथ क्रम के विपर्यास से (सत्वों के प्रति प्रमोद, गुणाधिकों के प्रति करुणा आदि से) असमंजसता पैदा हो जाती है और वह न्याय-विरुद्ध है। अस्थान विनियोग मिथ्या भावनात्मक होता है और वह प्रत्यवाय पैदा करता है।
८१. साहारणो पुण विही सुक्काहारो इमस्स विण्णेओ।
अण्णत्थओ य एसो उ सव्वसंपक्करी भिक्खा॥ वणलेवोवम्मेणं उचियत्तं तग्गयं निओएणं। एत्थं अवेक्खियव्वं इहराऽयोगो त्ति दोसफलो॥
____ (युग्मम्) योग की समस्त अवस्थाओं में यह सामान्य विधि है कि साधक का आहार शुक्ल हो। अन्वर्थतः शुक्लाहार ही सर्वसंपत्करी भिक्षा है।
भिक्षा व्रणलेप सदृश है। व्रणलेप की उपमा के अनुसार आहार का औचित्य अवश्य जानना चाहिए। अन्यथा, आहार का योग दोषप्रद हो जाता है। व्रण अनेक प्रकार के होते हैं। कुछ व्रणों पर नीम और तिलों का लेप किया जाता है। वैसे ही कुछ साधकों का शरीर कोद्रव धान्य के लिए उचित, कुछ का शरीर चावलों के लिए उचित और कुछ का शरीर घी आदि गरिष्ठ पदार्थोचित होता है। इनमें विपर्यास करने से भी हानि होती है।
८३. जोगाणुभावओ च्चिय पायं ण य सोहणस्स वि अलाभो।
लद्धीण वि संपत्ती इमस्स जं वण्णिया समए। योगजशक्ति के कारण प्रायः विशिष्ट आहार की प्राप्ति होने में कोई बाधा नहीं आती। सिद्धांत के अनुसार ऐसे योगी को अन्यान्य लब्धियों की प्राप्ति भी होती है।
१. सुक्काहारो-इसके दो संस्कृत रूप बनते हैं-शुष्काहार और शुक्लाहार।
स्वोपज्ञ वृत्ति में शुक्लाहार है। शुद्ध अनुष्ठान के लिए योग्य, शुद्ध अनुष्ठान का हेत और जो स्वरूप-शब्द है वह शक्ल आहार है।
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३. योगशतक : ७१
८४. रयणाई लद्धीओ अणिमादीयाओ तह य चित्ताओ। आमोसहाइयाओ
तहातहायोगवुड्डीए॥ जैसे-जैसे योग की वृद्धि होती है वैसे-वैसे योगी के रत्न आदि लब्धियां, अणिमा तथा आम\षधि आदि लब्धियां प्राप्त होती हैं।
८५. एतीए एस जुत्तो सम्म असुहस्स खवग मो णेओ।
इयरस्स बंधगो तह सुहेणमिय मोक्खगामि त्ति॥
सम्यक् प्रकार से इन योगजविभूतियों से युक्त योगी अशुभ कर्मों का क्षय करने वाला तथा शुभ कर्मों को बांधने वाला होता है और वह सुखपूर्वक (सहजतया) मोक्षगामी अर्थात् भवान्तकृत् हो जाता है।
८८.
८९.
८६. कायकिरियाए दोसा खविया मंडुक्कचुण्णतुल्ल त्ति।
ते चेव भावणाए नेया तच्छारसरिस ति॥ ८७. एवं पुण्णं पि दुहा मिम्मय-कणयकलसोवमं भणियं।
अण्णेहि वि इह मग्गे नामविवज्जासभेएणं ।। तह कायपाइणो ण पुण चित्तमहिकिच्च बोहिसत्त त्ति। होति तहभावणाओ आसययोगेण सुद्धाओ। एमाइ जहोइयभावणाविसेसाउ जुज्जए सव्वं । मुक्काहिनिवेसं खलु निरूवियव्वं सबुद्धीए॥
(चतुर्भिः कलापकम्) शारीरिक क्रिया से क्षीण किए हुए दोष मंडूक के चूर्ण तुल्य होते हैं और वे दोष जब भावना-मनोयोगपूर्वक क्षीण किए जाते हैं तब वे मंडूक की भस्मतुल्य होते हैं।' पुण्य के दो प्रकार हैं-मिट्टी के घड़े के समान तथा स्वर्ण के घड़े के समान। बौद्ध मतवाले भी योगमार्ग में नाम भेद से इन दो प्रकार के पुण्यों को मानते हैं-(१) मिथ्यादृष्टि का पुण्य-मृण्मयघटतुल्य, (२) सम्यग्दृष्टि का पुण्य-स्वर्णघट तुल्य। १. वर्षाकाल में मंडूक चूर्ण से अधिक मंडूको की उत्पत्ति होती है। मंडूक भस्म से
कुछ नहीं होता।
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७२ : जैन योग के सात ग्रंथ
( पहला अपरिशुद्ध और दूसरा परिशुद्ध है ।) बोधिसत्व कायपाती (शरीर से दोष होने की संभावना वाले) होते हैं, चित्तपाती ( मानसिक दोष वाले) नहीं होते क्योंकि उपरोक्त भावनाओं के कारण उनका चित्त निर्मल होता है। योग के सारे परिणाम यथोचित भावना की विशेषता से घटित होते हैं। इसलिए अभिनिवेश - आग्रह से मुक्त होकर योगी को अपनी बुद्धि से उसका निरूपण करना चाहिए ।
९०.
इस प्रकार सामायिक - समत्वभाव की विशुद्धि होती है और ध्याता शुक्ल- ध्यान में पहुंच जाता है तथा क्रमशः आगे बढ़ता हुआ वह केवलज्ञान को प्राप्त कर लेता है।
९१.
एएण पगारेणं जायइ सामाइयस्स सुद्धि त्ति । तत्तो सुक्कज्झाणं कमेण तह केवलं चेव ॥
९२.
जो चित्त वासी - चंदनतुल्य पूर्ण समताभाव से ओतप्रोत होता है, वह योगमार्ग में श्रेष्ठ माना जाता है। उसको ही 'चित्तरत्न' कहा जाता है । जो ऐसा नहीं होता वह ईषद् दोषकारी भी होता है।
वासी-चंदणकप्पं तु एत्थ सिठ्ठे अओ च्चिय बुहेहिं । आसयरयणं भणियं अओऽण्णहा ईसि दोसो वि ॥
९३.
जइ तब्भवेण जायइ जोगसमत्ती अजोगयाए तओ । जम्मादिदोसरहिया होइ सदेगंतसिद्धि त्ति ॥
यदि योगी उसी जन्म में योग की पूर्णता कर लेता है तो वह शैलेशी अवस्था को प्राप्त कर अर्थात् शारीरिक और वाचिक प्रवृत्तियों का निरोध कर, जन्म-मरण आदि दोषों से रहित होकर एकांत सिद्धि-मुक्ति को प्राप्त हो जाता है।
असमत्तीय उ चित्तेसु एत्थ ठाणेसु होइ उप्पाओ । तथ वि य तयणुबंधो तस्स तहऽब्भासओ चेव ॥
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३. योगशतक : ७३ यदि उसी जन्म में योग की पूर्णता नहीं होती है तो उस योगी को नाना प्रकार की मनुष्य योनियों में उत्पन्न होना पड़ता है। उन-उन मनुष्य जन्मों में भी पूर्व अभ्यास के कारण उन योगाभ्यासों के संस्कारों का सातत्य रहता है।
९४. जह खलु दिवसऽब्भत्थं रातीए सुविणयम्मि पेच्छंति।
तह इहजम्मऽब्भत्थं सेवंति भवंतरे जीवा॥
जैसे मनुष्य दिन में अभ्यस्त कार्यों को रात्रि में स्वप्न-अवस्था में देखते हैं, वैसे ही वर्तमान जीवन में अभ्यस्त योग आदि का जन्मान्तर में भी जीव आचरण करते हैं।
९५. ता सुद्धजोगमग्गोच्चियम्मि ठाणम्मि एत्थ वट्टेज्जा।
इह-परलोगेसु दढं जीविय-मरणेसु य समाणो॥
इसलिए वर्तमान जीवन में निरवद्य योगमार्ग के अनुरूप प्रवृत्ति में जीव को वर्तन करना चाहिए तथा इहलोक और परलोक में और जीवनमरण में उसे तुल्यवृत्ति रहना चाहिए। (यही मोक्ष का बीज है।)
९६. परिसुद्धचित्तरयणो चएज्ज देहं ततकाले वि।
आसण्णमिणं णाउं अणसणविहिणा विसुद्धेणं॥ इसी प्रकार विशुद्ध चित्तरत्न वाला योगी अंतकाल को निकट जानकर विशुद्ध अनशन विधि से शरीर को छोड़ दे।
९७. णाणं चाऽऽगम-देवय-पइहा-सुमिणंधरादऽदिट्ठीओ।
णास-ऽच्छि-तारगादसणाओ कण्णग्गऽसवणाओ॥
आगमज्ञान से, देवता के सहयोग से, प्रातिभज्ञान से, स्वप्न के योग से, अरुन्धति आदि नक्षत्रों के अदर्शन से, नासिका के अदर्शन से, आंख की ज्योति अवष्टब्ध हो जाने पर, आंख के तारे के अदर्शन से, कर्णाग्नि के अश्रवण से (अर्थात् कान में अंगूठे को डालने पर कान की
आंतरिक ध्वनि नहीं सुनाई देने पर)-इन सब उपायों से मृत्यु की निकटता का ज्ञान होता है।
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७४ : जैन योग के सात ग्रंथ ९८. अणसणसुद्धीए इहं जत्तोऽतिसएण होइ कायव्वो।
जल्लेसे मरइ जओ तल्लेसेसुं तु उववाओ॥
अनशन को स्वीकार करने के पश्चात् उसकी विशुद्धि के लिए विशेष प्रयत्न करना चाहिए, क्योंकि जीव जिस लेश्या-अध्यवसाय में मरता है, उसी लेश्या में अर्थात् उसी लेश्या वाले जीव स्थान में उत्पन्न होता है।
९९. लेसाय वि आणाजोगओ उ आराहगो इहं नेओ।
इहरा असतिं एसा वि हंतऽणाइम्मि संसारे॥
उस लेश्या के होने पर भी आज्ञायोग-दर्शन आदि के शुद्ध परिणाम से ही जीव आराधक-मोक्ष का साधक होता है। अन्यथा इस अनादि संसार में ऐसी लेश्या अनेक बार प्राप्त हो चुकी है। (फिर भी आराधक अवस्था प्राप्त नहीं हुई।)
१००. ता इय आणाजोगे जइयव्वमजोगअत्थिणा सम्म।
एसो चिय भवविरहो सिद्धीए सया अविरहो य॥ इसलिए अयोग-शैलेशी अवस्था को प्राप्त करने के इच्छुक योगी को आज्ञायोग का सम्यक् पालन करना चाहिए। यही आज्ञायोग भवविरह-जीवन्मुक्ति का मूल कारण है और यही सिद्धि के साथ शाश्वत योग कराने वाला है।
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४. समाधिशतक
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संकेतिका
इस ग्रंथ का अपर नाम है 'समाधितंत्र ।' इसमें १०५ श्लोक हैं। इसके रचियता हैं विक्रम की छठी शताब्दी के महान् विद्वान् आचार्य पूज्यपाद । आचार्य प्रभाचंद्र (वि. १२-१३ शताब्दी) ने इस पर टीका लिखी। यह ग्रंथ आत्मा के अवबोध से प्रारंभ होता है और समाधितंत्र ज्योतिर्मय सुख का मार्ग है', ऐसा अंतिम श्लोक में निर्देश है । 'अहमेव मयोपास्यः' (श्लोक ३१) की स्थापना कर आचार्य पूरे ग्रंथ में आत्मा की ही परिक्रमा करते हैं। आत्मा के तीन प्रकार - बहिरात्मा, अंतरात्मा और परमात्मा का अवबोध ग्रंथ के पारायण से सहज स्पष्ट हो जाता है । शिष्य ने पूछा - दुःख का कारण क्या है ? दुःखमुक्ति का उपाय क्या है ? आचार्य ने कहा - 'देह में आत्मबुद्धि रखना' दुःख का मूल कारण है और 'आत्मा में आत्मबुद्धि रखना' दुःखमुक्ति का सशक्त उपाय है।
अध्यात्म विद्या का यह विशिष्ट ग्रंथ है ।
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१.
परत्वेनैव
चापरम् ।
येनात्माऽबुद्ध्यतात्मैव, अक्षयानन्तबोधाय, तस्मै सिद्धात्मने नमः ॥
जिन्होंने आत्मा को ही आत्मा जाना है और अपर पर पदार्थ को पररूप में ही जाना है, उन अक्षय और अनन्तज्ञान स्वरूप सिद्ध परमात्मा को मेरा नमस्कार है ।
३.
क
समाधिशतक
न बोलते हुए भी निरीह तीर्थंकरों की वाग्संपदा उत्कृष्ट होती है। मैं उन शिव-स्वरूप, विधाता - स्वरूप, बुद्ध - स्वरूप, विष्णु-स्वरूप तथा स-शरीरी जिनेश्वर देव को नमन करता हूं।
जयन्ति यस्यावदतोऽपि भारतीविभूतयस्तीर्थकृतोऽप्यनीहितुः । शिवाय धात्रे सुगताय विष्णवे, जिनाय तस्मै सकलात्मने नमः ॥
४.
श्रुतेन लिंगेन यथात्मशक्ति, समाहितान्तः करणेन सम्यक् । समीक्ष्य कैवल्यसुखस्पृहाणां, विविक्तमात्मानमथाभिधास्ये ॥
आगम तथा अनुमान प्रमाण के द्वारा अपने अंतःकरण को समाहित कर, अपनी शक्ति के अनुसार सम्यक् समीक्षा कर, कैवल्यसुख- शाश्वत सुख के इच्छुक भव्य जीवों के लिए शुद्ध आत्म-तत्त्व को अभिव्यक्त करूंगा।
सर्वदेहिषु ।
बहिरन्तः परश्चेति, त्रिधात्मा उपेयात् तत्र परमं, मध्योपायात् बहिस्त्यजेत् ॥
१. सकलात्मने - सह कलया-शरीरेण वर्त्तते इति सकलः, सचासावात्मा च तस्मै ।
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७८ : जैन योग के सात ग्रंथ
आत्मा के तीन प्रकार हैं- बहिरात्मा, अंतरात्मा और परमात्मा । अंतरात्मा से परमात्मा प्राप्तव्य है और बहिरात्मा त्याज्य है ।
बहिरात्मा शरीरादौ, जातात्मभ्रान्तिरान्तरः।
परमात्माऽतिनिर्मलः ॥
प्रति भ्रांति नहीं होती।
चित्तदोषात्मविभ्रान्तिः,
बहिरात्मा - जिसमें शरीर आदि में आत्म भ्रांति होती है ।
अंतरात्मा - जिसमें चित्त - विकल्प, दोष- राग आदि तथा आत्मा के
७.
विविक्तः
प्रभुरव्ययः ।
निर्मलः केवलः शुद्धः, परमेष्ठी परात्मेति, परमात्मेश्वरो जिनः ॥
परमात्मा के विभिन्न नाम हैं-निर्मल, केवल, शुद्ध, विविक्त, प्रभु, अव्यय, परमेष्ठी, परात्मा, परमात्मा, ईश्वर, जिन आदि ।
८.
परमात्मा - अति निर्मल, प्रक्षीण समस्त कर्ममल आत्मा ।
बहिरात्मेन्द्रियद्वारैरात्मज्ञानपराङ्मुखः
स्फुरितः स्वात्मनो देहमात्मत्वेनाध्यवस्यति ॥ बहिरात्मा आत्मज्ञान से पराङ्मुख होता है। वह इन्द्रिय-विषयों को ग्रहण करने में व्यापृत रहता है और अपने शरीर को ही आत्मा के रूप में जानता है।
नरदेहस्थमात्मानमविद्वान् मन्यते तिर्यञ्चं तिर्यगङ्गस्थं, सुराङ्गस्थं सुरं
नारकं नारकाङ्गस्थं, न स्वयं तत्त्वतस्तथा । अनंतानंतधीशक्तिः, स्वसंवेद्योऽचलस्थितिः ॥
नरम् ।
तथा ॥
( युग्मम्)
बहिरात्मा मनुष्य शरीर में स्थित आत्मा को मनुष्य, तिर्यञ्च में स्थित आत्मा को तिर्यञ्च, देवता में स्थित आत्मा को देव तथा नारक में स्थित आत्मा को नारक मानता है। यथार्थ में आत्मा वैसा - मनुष्य,
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४. समाधिशतक : ७९
तिर्यंच, देव या नारक है नहीं । आत्मा अनन्त - अनन्त ज्ञानशक्ति से संपन्न है, स्व-संवेद्य है तथा अचल स्थिति वाला है।
१०.
११.
बहिरात्मा अपने शरीर के सदृश दूसरे के अचेतन शरीर को परआत्मा से अधिष्ठित देखकर उसे अन्य आत्मा के रूप में स्वीकार करता है।
१२.
स्वदेहसदृशं परात्माधिष्ठितं
स्वपराध्यवसायेन, विभ्रमः पुंसां
वर्त
जो आत्मा को नहीं जानते वे देह के आधार पर स्व-पर का अध्यवसाय करते हैं। उनमें ही 'मेरा पुत्र' 'मेरी भार्या' - ऐसा विभ्रम होता है।
दृष्ट्वा,
मूढः,
१३.
१४.
परदेहमचेतनम्।
परत्वेनाध्यवस्यति ॥
येन
इस विभ्रम के कारण बहिरात्मा में अविद्या का संस्कार दृढ़ होता है । इस संस्कार के कारण प्राणी जन्मान्तर में भी शरीर को ही आत्मा मानता है या अपना मानता है।
अविद्यासंज्ञितस्तस्मात्, संस्कारो जायते दृढः । लोकोऽङ्गमेव स्वं, पुनरप्यभिमन्यते ॥
देहे स्वबुद्धिरात्मानं, युनक्त्येतेन निश्चयात् । स्वात्मन्येत्वात्मधीस्तस्मात्, वियोजयति देहिनम् ॥
देह में आत्मबुद्धि के कारण देह के साथ ही योग रहता है और आत्मा में आत्मबुद्धि होने पर देह का वियोग हो जाता है।
देहेष्वात्मधिया सम्पत्तिमात्मनस्ताभिर्मन्यते
देहेष्वविदितात्मनाम् । पुत्रभार्यादिगोचरः ॥
जाताः,
पुत्रभार्यादिकल्पनाः।
हतं
जगत् ॥
हा
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८० : जैन योग के सात ग्रंथ
शरीर में आत्म-बुद्धि के भ्रम से 'मेरा पुत्र', 'मेरी भार्या', आदि की कल्पनाएं होती हैं। तब जीव उन अनात्मीय को ही अपनी संपत्ति मान लेता है। हा! खेद है कि यह संसार इस मिथ्या मान्यता से पीड़ित हो रहा है।
१५. मूलं संसारदुःखस्य, देह एवात्मधीस्ततः।
त्यक्त्वैनां प्रविशेदन्तर्बहिरव्यापृतेन्द्रियः॥
देह में आत्मबुद्धि का होना ही संसार के दुःख का मूल है। इस बहिरात्मभाव को छोड़कर बाह्य विषयों में इन्द्रियों की प्रवृत्ति न करता हुआ साधक अंतरात्मा में प्रवेश करे, अंतरात्मा बने।
१६. मत्तश्च्युत्वेन्द्रियद्वारैः, पतितो विषयेष्वहम्।
तान् प्रपद्याहमिति मां, पुरा वेद न तत्त्वतः॥ .मैं अपने आत्म-स्वरूप से च्युत होकर इन्द्रियों के माध्यम से विषयों में फंस गया। उनके वशीभूत होकर मैं अनादिकाल से अपने आपको 'मैं चेतन आत्मा हूं' इस प्रकार यथार्थरूप में नहीं जान सका।
१७. एवं त्यक्त्वा बहिर्वाचं, त्यजेदन्तरशेषतः।
एष योगः समासेन, प्रदीपः परमात्मनः॥ इस प्रकार बाह्यार्थवाचक शब्दों को छोड़कर समस्त अन्तर्वाचक शब्दों को भी छोड़ दे। यही संक्षेप में परमात्मा के स्वरूप का प्रकाशक योग है।
१८. यन्मया दृश्यते रूपं, तन्न जानाति सर्वथा।
जानन्न दृश्यते रूपं, ततः केन ब्रवीम्यहम्॥ है जिस रूप को मैं देखता हूं, वह मुझे सर्वथा नहीं जानता। जो जानता है वह रूप दृश्य नहीं है। तब मैं किसके साथ बोलूं?
१९.
यत्परैः प्रतिपाद्योऽहं, यत् परान् प्रतिपादये। उन्मत्तचेष्टितं तन्मे, यदहं निर्विकल्पकः।।
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४. समाधिशतक : ८१ दूसरे मेरा प्रतिपादन करते हैं, मैं दूसरों का प्रतिपादन करता हूं, यह मेरी उन्मत्त चेष्टामात्र है, क्योंकि मैं तो निर्विकल्प हूं।'
२०. यदग्राह्यं न गृह्णाति, गृहीतं नापि मुञ्चति।
जानाति सर्वथा सर्वं, तत् स्वसंवेद्यमस्म्यहम्॥
जो अग्राह्य को ग्रहण नहीं करता, गृहीत को नहीं छोड़ता और सर्व को सर्वथा जानता है, वह स्वसंवेद्य मैं हूं।
२१. उत्पन्नपुरुषभ्रान्तेः स्थाणौ यद्वद् विचेष्टितम्।
तद्वन्मे चेष्टितं पूर्व, देहादिष्वात्मविभ्रमात्॥
जैसे ढूंठ में पुरुष की भ्रांति होने पर भ्रांत पुरुष विविध चेष्टाएं करता है, वैसे ही शरीर में आत्मा की भ्रांति होने पर मेरी पूर्व चेष्टाएं थीं।
२२. यथासौ चेष्टते स्थाणौ, निवृत्ते पुरुषाग्रहे।
तथाचेष्टोऽस्मि देहादौ, विनिवृत्तात्मविभ्रमः॥ ढूंठ में पुरुष का आग्रह (भ्रम) निवृत्त हो जाने पर पुरुष जिस प्रकार की प्रवृत्ति करता है, वैसे ही शरीर आदि पर-पदार्थों में आत्मविभ्रम के दूर हो जाने पर, देह आदि के प्रति मेरी चेष्टाएं हुई हैं।
२३. येनात्मनाऽनुभूयेऽहमात्मनैवात्मनात्मनि
सोऽहं न तन्न सा नासौ, नैको न द्वौ न वा बहुः॥
जो आत्मा आत्मा में, आत्मा से, आत्मा का अनुभव करता है, वही मैं हूं। वह न नपुंसक है, न स्त्री है और न पुरुष। वह न एक है, न दो है और न बहु है। २४. यदभावे सुषुप्तोऽहं, यद्भावे व्युत्थितः पुनः।
अतीन्द्रियमनिर्देश्य, तत् स्वसंवेद्यमस्म्यहम्॥ १. आत्मा न वचनगोचर है और न इन्द्रियगोचर। वह केवल अनुभवगोचर है,
ज्ञानगम्य है, स्वसंवेद्य है।
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८२ : जैन योग के सात ग्रंथ
जिसके अभाव में मैं सुषुप्त रहा और जिसके सद्भाव में मैं जागृत हुआ, वह अतीन्द्रिय, अनिर्देश्य-वचनातीत और स्वसंवेद्य मैं हं, आत्मा हूं।
२५. क्षीयन्तेऽत्रैव रागाद्यास्तत्त्वतो मां प्रपश्यतः।
बोधात्मानं ततः कश्चिन्, न मे शत्रुर्न च प्रियः॥
वास्तव में ज्ञानस्वरूप मुझ आत्मा को देखने वाले के इसी जन्म में राग आदि दोष क्षीण हो जाते हैं, तत्पश्चात् मेरा न कोई शत्रु होता है और न मित्र।
२६. मामपश्यन्नयं लोको, न मे शत्रुर्न च प्रियः।
मां प्रपश्यन्नयं लोको, न मे शत्रुर्न च प्रियः॥ मुझे नहीं देखने वाला यह जगत् न मेरा शत्रु है और न मेरा मित्र । मुझे देखने वाला यह जगत् न मेरा शत्रु है और न मेरा मित्र ।
२७. त्यक्त्वैवं बहिरात्मानमन्तरात्मव्यवस्थितः।
भावयेत् परमात्मानं, सर्वसंकल्पवर्जितम्॥
इस प्रकार बहिरात्मभाव को छोड़कर, अंतरात्मभाव में व्यवस्थित होकर साधक सर्वसंकल्पवर्जित-निर्विकल्प परम आत्मा की भावना करे।
२८. सोऽहमियात्तसंस्कारस्तस्मिन् भावनया पुनः।
तत्रैव दृढसंस्कारात्, लभते ह्यात्मनि स्थितिम्॥ 'सोऽहं'-'वह मैं हूं'–इस गृहीत संस्कार से स्वयं को पुनः पुनः भावित करने पर ध्याता संस्कार की दृढ़ता से आत्मा में अविचल स्थिरता प्राप्त करता है।
२९. मूढात्मा यत्र विश्वस्तस्ततो नान्यद् भयास्पदम्।
यतो भीतस्ततो नान्यदभयस्थानमात्मनः॥
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४. समाधिशतक : ८३
मूढ आत्मा जहां विश्वस्त रहता है, उससे बढ़कर और भयास्पद स्थान दूसरा नहीं है और जिससे वह भयभीत होता है, आत्मा के लिए उससे बढ़कर कोई अभय का स्थान नहीं है।
३०. सर्वेन्द्रियाणि संयम्य, स्तिमितेनान्तरात्मना।
यत् क्षणं पश्यतो भाति, तत् तत्त्वं परमात्मनः॥
समस्त इन्द्रियों का नियमन कर, स्थिरीभूत अंतरात्मा से क्षणभर के लिए जो प्रतिभासित होता है, वही परमात्मा का स्वरूप है।
३१. यः परात्मा स एवाऽहं, योऽहं स परमस्ततः।
अहमेव मयोपास्यो, नान्यः कश्चिदिति स्थितिः॥
जो परम आत्मा है, वही मैं हूं और जो मैं हूं, वही परम आत्मा है। इसलिए मैं ही मेरा उपास्य हूं, कोई दूसरा नहीं। यही वास्तविक स्थिति है।
३२. प्रच्याव्य विषयेभ्योऽहं, मां मयैव मयि स्थितम्।
बोधात्मानं प्रपन्नोऽस्मि, परमानन्दनिर्वृतम्॥ मैं अपने आपको इन्द्रिय-विषयों से दूर कर स्वयं में स्थित, परम आनंद से परिपूर्ण, ज्ञानात्मा को प्राप्त हुआ हूं।
३३. यो न वेत्ति परं देहादेवमात्मानमव्ययम्।
लभते स न निर्वाणं, तप्त्वाऽपि परमं तपः॥
जो आत्मा को अविनाशी और देह से भिन्न नहीं जानता, वह उत्कृष्ट तप की आराधना करके भी निर्वाण को प्राप्त नहीं होता।
३४. आत्मदेहान्तरज्ञानजनितालादनिर्वृतः
तपसा दुष्कृतं घोरं, भुजानोऽपि न खिद्यते॥
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८४ : जैन योग के सात ग्रंथ
'आत्मा भिन्न है और शरीर भिन्न है' इस भेदविज्ञान से उत्पन्न आह्लाद से परिपूर्ण साधक तपस्या में घोर कर्म-विपाकों को भोगता हुआ भी खिन्न नहीं होता।
३५. रागद्वेषादिकल्लोलैरलोलं यन्मनोजलम्।
स पश्यत्यात्मनस्तत्त्वं, तत् तत्त्वं नेतरो जनः॥
राग-द्वेष आदि तरंगों से जिसका मनोजल क्षुब्ध नहीं होता, चंचल नहीं होता, वह आत्मतत्त्व का साक्षात्कार कर लेता है। अस्थिर साधक उस आत्मतत्त्व का साक्षात्कार नहीं कर सकता।
३६. अविक्षिप्तं मनस्तत्त्वं, विक्षिप्तं भ्रान्तिरात्मनः।
धारयेत् तदविक्षिप्त, विक्षिप्तं नाश्रयेत् ततः॥
अविक्षिप्त मन ही आत्मा है और विक्षिप्त मन आत्म-भ्रांति है। इसलिए साधक अविक्षिप्त मन को धारण करे, विक्षिप्त मन का आश्रय न ले।
३७. अविद्याभ्याससंस्कारैरवशं क्षिप्यते मनः।
तदेव ज्ञानसंस्कारैः, स्वतस्तत्त्वेऽवतिष्ठते॥
अविद्या के अभ्यास से उत्पन्न संस्कारों के द्वारा मन वश में न रहकर विक्षिप्त हो जाता है। वही मन भेदविज्ञान के संस्कारों से आत्मा में अवस्थित हो जाता है।
३८. अपमानादयस्तस्य, विक्षेपो यस्य चेतसः।
नापमानादयस्तस्य, न क्षेपो यस्य चेतसः॥ जिसका मन विक्षिप्त है, उसी के लिए अपमान आदि होते हैं। जिसका मन विक्षिप्त नहीं है, उसके लिए अपमान आदि नहीं होते।
३९.
यदा मोहात् प्रजायेते, रागद्वेषौ तपस्विनः। तदैव भावयेत् स्वस्थमात्मानं शाम्यतः क्षणात्॥
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४. समाधिशतक : ८५
जब तपस्वी में मोह के कारण राग-द्वेष उत्पन्न हों तो वह स्वस्थ आत्मा का चिंतन - करे। इससे क्षणभर में राग-द्वेष शांत हो जाते हैं।
यत्र काये मुनेः प्रेम, ततः प्रच्याव्य देहिनम् | बुद्ध्या तदुत्तमे काये, योजयेत् प्रेम नश्यति ॥ जिस शरीर के प्रति मुनि का स्नेह हो, उससे आत्मा को हटाकर, विवेकज्ञान से उत्तम काय - आत्म-स्वरूप के प्रति अपना स्नेह नियोजित करे । इससे शरीर - राग नष्ट हो जाता है।
४०.
४१. आत्मविभ्रमज दुःखमात्मज्ञानात्
प्रशाम्यति ।
नाऽयतास्तत्र निर्वान्ति कृत्वाऽपि परमं तपः ॥ आत्म-विभ्रम से उत्पन्न दुःख आत्मज्ञान से नष्ट हो जाता है। आत्मज्ञान की प्राप्ति के लिए जो प्रयत्नशील नहीं हैं वे उत्कृष्ट तप करके भी निर्वाण को प्राप्त नहीं होते ।
४२. शुभं शरीरं
विषयानभिवाञ्छति ।
दिव्यांश्च, उत्पन्नात्ममतिर्देह, तत्त्वज्ञानी ततश्च्युतिम् ॥
शरीर में आत्मबुद्धि वाला मनुष्य सुन्दर शरीर और दिव्य भोगों की आकांक्षा करता है। तत्त्वज्ञानी पुरुष इनसे छुटकारा पाने की इच्छ करता है।
परत्राऽहंमतिः स्वस्मात् च्युतो बध्नात्यसंशयम् । स्वस्मिन्नहंमतिश्च्युत्वा, परस्मान्मुच्यते बुधः ॥
'पर' में आत्मबुद्धि वाला बाहिरात्मा आत्म स्वरूप से च्युत होकर निश्चितरूप से कर्मों का बंधन करता है। अपनी आत्मा में आत्मबुद्धि वाला ज्ञानी बहिरात्मभाव से च्युत होकर कर्मों से मुक्त हो जाता है।
४३.
४४ दृश्यमानमिदं इदमित्यवबुद्धस्तु,
मूढस्त्रिलिङ्गमवबुध्यते । शब्दवर्जितम् ॥
निष्पन्नं
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८६ : जैन योग के सात ग्रंथ
मूढ़ पुरुष दृश्यमान तीन लिंगों वाले शरीर को आत्मा मानता है। ज्ञानी पुरुष अनादिसंसिद्ध और शब्द से अगोचर तत्त्व को ही आत्मा मानता है।
४५. जानन्नप्यात्मनस्तत्त्वं, विविक्तं भावयन्नपि।
पूर्वविभ्रमसंस्काराद्, भ्रान्तिं भूयोऽपि गच्छति॥
आत्मतत्त्व को जानता हुआ भी तथा शरीर से उसे पृथक् मानता हुआ भी साधक विभ्रम के पूर्व संस्कारों के कारण पुनः आत्मभ्रान्ति को प्राप्त हो जाता है।
४६. अचेतनमिदं दृश्यमदृश्यं चेतनं ततः।
क्व रुष्यामि, क्व तुष्यामि, मध्यस्थोऽहं भवाम्यतः॥
जो दृश्य है, वह अचेतन है। जो अदृश्य है, वह चेतन है। तब मैं कहां करूं और कहां तोष करूं? इसलिए अच्छा है, मैं मध्यस्थ रहूं।
४७. त्यागाऽऽदाने बहिर्मूढः, करोत्यध्यात्ममात्मवित्।
नान्तर्बहिरुपादानं, न त्यागो निष्ठितात्मनः॥ मूढ़ व्यक्ति बाह्य का आदान और बाह्य का त्याग करता है। आत्मविद् आंतरिक का आदान और आंतरिक का त्याग करता है। परंतु जो सिद्धात्मा है उनके अंतर् और बाह्य का न त्याग होता है और न आदान। ४८. युजीत मनसाऽऽत्मानं, वाक्कायाभ्यां वियोजयेत्।
मनसा व्यवहारं तु, त्यजेद् वाक्काययोजितम्॥
आत्मा की मन के साथ योजित करो, वचन तथा शरीर से उसे विमुक्त करो। वचन और शरीर से संपादित व्यवहार को मन से छोड़ दो। ४९. जगत् देहात्मदृष्टीनां, विश्वास्यं रम्यमेव च।
स्वात्मन्येवात्मदृष्टीनां, क्व विश्वासः क्व वा रतिः॥
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४. समाधिशतक : ८७
शरीर में आत्मबुद्धि वाले बहिरात्मा के लिए संसार विश्वासयोग्य तथा रमणीय है। अपनी आत्मा में आत्मबुद्धि वाले को कहां विश्वास और कहां रति ?
५०. आत्मज्ञानात् परं कार्यं, न बुद्धौ धारयेत् चिरम् । कुर्यादर्थवशात् किंचिद्, वाक्कायाभ्यामतत्परः ॥
आत्मज्ञान के अतिरिक्त अन्य कोई कार्य मन में चिरकाल तक धारण न करे। यदि प्रयोजनवश कुछ करना ही पड़े तो अनासक्त भाव से वचन और काया के द्वारा वह प्रवृत्ति करे, मन को उसमें योजित न करे ।
यत् पश्यामीन्द्रियैस्तन्मे नास्ति यन्नियतेन्द्रियः । अन्तः पश्यामि सानन्दं, तदस्तु ज्योतिरुत्तमम् ॥ जो कुछ मैं इन्द्रियों के द्वारा देखता हूं, वह मेरा नहीं है और इन्द्रियों को संयमित कर भीतर देखता हूं, वह आनंदमय उत्तम ज्योति मेरी है, वही मेरा स्वरूप है।
५२.
५१.
सुखमारब्धयोगस्य,
बहिर्दुःखमथात्मानि । भावितात्मनः ॥
बहिरेवासुखं सौख्यमध्यात्मं
योगारंभी को बाह्य में सुख और अन्तर में दुःख का अनुभव होता है और भावितात्मा-सिद्धयोगी को बाह्य में दुःख और अन्तर में सुख का अनुभव होता है।
५३. तत् ब्रूयात् तत् परान् पृच्छेत्, तदिच्छेत् तत्परो भवेत् । येनाविद्यामयं रूपं त्यक्त्वा विद्यामयं व्रजेत् ॥
उसी के विषय में बोले, उसी के विषय में दूसरों को पूछे, उसी
की इच्छा करे और उसी में तत्पर रहे, जिससे अविद्यामय रूप का त्याग कर साधक विद्यामयरूप प्राप्त कर सके ।
५४.
शरीरे वाचि चात्मानं, संधत्ते वाक्शरीरयोः । भ्रान्तोऽभ्रान्तः पुनस्तत्त्वं
पृथगेषां निबुध्यते ॥
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८८ : जैन योग के सात ग्रंथ
शरीर और वाणी में आत्मभ्रान्ति रखने वाला शरीर और वाणी को ही आत्मा मानता है । परंतु अभ्रान्त साधक शरीर और वाणी से भिन्न आत्मा का निश्चय करता है।
५५. न
क्षेमंकरमात्मनः । बालस्तत्रैवाज्ञानभावनात् ॥
तदस्तीन्द्रिययार्थेषु, तथापि रमते इन्द्रिय-विषयों में वैसा कुछ भी नहीं है जो आत्मा के लिए क्षेमंकर हो । फिर भी अज्ञानी अपने अज्ञानभाव से उन्हीं में रमण करता है।
५६.
कुयोनिषु । जाग्रति ॥
चिरं सुषुप्तास्तमसि, अनात्मीयात्मभूतेषु, अज्ञानी जीव दीर्घकाल तक निगोद आदि कुयोनियों में तथा मिथ्यात्व के अंधकार में सुषुप्त रहते हैं। वे अनात्मीय भावों में 'मम' (मेरे) और शरीर आदि आत्मभूत भावों में 'अहं' (मैं) ऐसा भाव रखते हैं।
५७.
पश्येन्निरन्तरं
यत्
मूढात्मानः
,
ममाहमिति
अपरात्मधियाऽन्येषामात्मतत्त्वे
५८.
आत्मतत्त्व में अवस्थित ज्ञानी निरंतर अपने शरीर को अनात्मबुद्धि से देखे और दूसरों के शरीर को भी अपर- आत्मबुद्धि से देखे । अज्ञापितं न जानन्ति, यथा मां ज्ञापितं तथा । मूढात्मानस्ततस्तेषां, वृथा मे ज्ञापनश्रमः ॥ मूढात्मा बिना बतलाए मुझे (आत्मा को ) जैसे नहीं जानते वैसे ही बतलाने पर भी मुझे नहीं जानते । मूढात्माओं को आत्म-स्वरूप समझाने का मेरा श्रम व्यर्थ है ।
५९.
देहमात्मनोऽनात्मचेतसा । 'व्यवस्थितः ॥
यद् बोधयितुमिच्छामि, तन्नाहं यदहं पुनः । ग्राह्यं तदपि नान्यस्य तत् किमन्यस्य बोधये ॥
जिसका बोध कराना चाहता हूं, वह मैं नहीं हूं और जो मैं हूं वह दूसरे को ग्राह्य नहीं है। तो फिर मैं दूसरे को क्या समझाऊं ?
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४. समाधिशतक : ८९
६०. बहिस्तुष्यति मूढात्मा, पिहितज्योतिरन्तरे।
तुष्यत्यन्तः प्रबुद्धात्मा, बहिावृत्तकौतुकः॥
मूढ़ात्मा की अन्तर्योति ढ़की रहती है, इसलिए वह बाह्य पदार्थों में संतुष्ट रहता है। प्रबुद्धात्मा बाह्य से राग को हटाकर अन्तर् में संतुष्ट रहता है।
६१. न जानन्ति शरीराणि, सुखदुःखान्यबुद्धयः।
निग्रहानुग्रहधियं, तथाप्यत्रैव कुर्वते॥
शरीर सुख-दुःख को नहीं जानते, फिर भी बहिरात्म! शरीर में ही निग्रह और अनुग्रह बुद्धि रखते हैं।
६२. स्वबुद्ध्या यावद् गृण्हीयात्, कायवाक्चेतसां त्रयम् ।
संसारस्तावदेतेषां, भेदाभ्यासे तु निर्वृतिः।। जब तक प्राणी शरीर, वाणी और मन-इन तीनों को आत्मबुद्धि से ग्रहण करता है, तब तक संसार है। जब 'आत्मा तीनों से भिन्न है'-ऐस्सा भेदविज्ञान उत्पन्न होता है, तब मोक्ष की प्राप्ति होती है।
६३. घने वस्त्रे यथाऽऽत्मानं, न घनं मन्यते तथा।
घने स्वदेहेऽप्यात्मानं, न घनं मन्यते बुधः ।।
जैसे मोटे वस्त्र पहनकर ज्ञानी अपने आपको मोटा नहीं मानता, वैसे ही शरीर मोटा हो जाने पर भी आत्मा को मोटा नहीं मानता। ६४. जीणे वस्त्रे यथाऽऽत्मानं, न जीणं मन्यते तथा।
जीर्णे स्वदेहेऽप्यात्मानं, न जीर्णं मन्यते बुधः॥
जैसे वस्त्र के जीर्ण होने पर भी ज्ञानी स्वयं को जीर्ण-शीर्ण नहीं मानता, वैसे ही अपने शरीर के जीर्ण होने पर भी आत्मा को जीर्ण नहीं मानता।
६५. नष्टे वस्त्रे यथाऽऽत्मानं, न नष्टं मन्यते तथा।
नष्टे स्वदेहेऽप्यात्मानं, न नष्टं मन्यते बुधः।।
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९० : जैन योग के सात ग्रंथ
जैसे वस्त्र के नष्ट होने पर भी ज्ञानी अपने आपको नष्ट नहीं मानता, वैसे ही अपना शरीर नष्ट हो जाने पर भी आत्मा को नष्ट नहीं मानता।
६६. रक्ते वस्त्रे यथाऽऽत्मानं, न रक्तं मन्यते तथा।
रक्ते स्वदेहेऽप्यात्मानं, न रक्तं मन्यते बुधः॥
जैसे लाल वस्त्र को धारण कर ज्ञानी अपने आपको लाल नहीं मानता, वैसे ही अपना शरीर लाल हो जाने पर भी आत्मा को लाल नहीं मानता।
६७. यस्य सस्पन्दमाभाति, निःस्पन्देन समं जगत्।
अप्रज्ञमक्रियाभोगं, स शमं याति नेतरः॥ जिसको स्पन्दनशील जगत् भी निःस्पन्द, अप्रज्ञ (चेतनाशून्य), क्रिया-शून्य और आभोगशून्य (अनुभवशून्य) प्रतीत होता है वही शम-मोक्ष को प्राप्त होता है, दूसरा नहीं।
६८. शरीरकंचुकेनात्मा,
संवृतज्ञानविग्रहः। नात्मानं बुध्यते तस्माद्, भ्रमत्यतिचिरं भवे॥
शरीर रूपी केंचुली से ज्ञानमय आत्मा के आवृत हो जाने पर बहिरात्मा आत्मतत्त्व को नहीं जानता, इसलिए वह दीर्घकाल पर्यन्त संसार में परिभ्रमण करता है।
६९. प्रविशद्गलतां व्यूहे, देहेऽणूनां समाकृतौ।
स्थितिभ्रान्त्या प्रपद्यन्ते, तमात्मानमबुद्धयः॥
शरीर में प्रतिपल परमाणुओं के समूह के आने-जाने पर भी शरीर को समान आकार में बना हुआ देखकर बहिरात्मा स्थिरता के भ्रम से उसे आत्मा मान लेता है। ७०. गौरः स्थूल कृशो वाऽहमित्यङ्गेनाऽविशेषयन्।
आत्मानं धारयेन्नित्यं, केवलज्ञप्तिविग्रहम्॥
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४. समाधिशतक : ९१
मैं गौरा हूं, मैं स्थूल हूं, मैं कृश हूं-इनको आत्मा की विशेषता न मानता हुआ पुरुष अपनी आत्मा को सदा केवलज्ञानमय विग्रह (शरीर) वाला माने।
७१. मुक्तिरैकान्तिकी तस्य, चित्ते यस्याचला धृतिः।
तस्य नैकान्तिकी मुक्तिर्यस्य नास्त्यचला धृतिः। जिसके चित्त में अचल धृति होती है, उसको ऐकान्तिक--नियमतः मुक्ति प्राप्त होती है। जिसके चित्त में अचल धृति नहीं होती, उसको नियमतः मुक्ति प्राप्त नहीं होती।
७२. जनेभ्यो वाक् ततः स्पन्दो, मनसश्चित्तविभ्रमाः।
भवन्ति तस्मात्संसर्ग, जनैर्योगी ततस्त्यजेत्॥
लोगों के संसर्ग से वाणी की प्रवृत्ति होती है और उससे मन की चंचलता बढ़ती है। उससे चित्त-विभ्रम पैदा होते हैं। इसलिए योगी को जन-संसर्ग का परिहार करना चाहिए।
७३. ग्रामोऽरण्यमिति द्वेधा, निवासोऽनात्मदर्शिनाम्।
दृष्टात्मनां निवासस्तु, विविक्तात्मैव निश्चलः॥
अनात्मदर्शी के लिए ग्राम और अरण्य-ये दो निवास स्थान होते हैं। आत्मदर्शी निश्चल और विविक्त आत्मा को ही निवास स्थान समझता है।
७४. देहान्तरगतेर्बीजं,
देहेऽस्मिन्नात्मभावना। बीजं
विदेहनिष्पत्तेरात्मन्येवात्मभावना। इस शरीर में आत्मबुद्धि करना देहान्तर गमन का मूल कारण है। आत्मा में ही आत्मभावना करना विदेह की. निष्पत्ति का बीज है-मूल कारण है। ७५. नयत्यात्मानमात्मैव, जन्म निर्वाणमेव च।
गुरुरात्मात्मनस्तस्मान्नान्योऽस्ति परमार्थतः।।
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९२ : जैन योग के सात ग्रंथ
आत्मा ही आत्मा को जन्म (संसार) और निर्वाण की ओर ले जाता है। इसलिए वास्तव में आत्मा ही आत्मा का गुरु है, दूसरा कोई गुरु नहीं है।
1
दृढात्मबुद्धिदेहादावुत्पश्यन्नाशमात्मनः मित्रादिभिर्वियोगं च, बिभेति मरणाद् भृशम् ॥
देह आदि में दृढ़ आत्मबुद्धि वाला मनुष्य मृत्यु को निकट जानकर तथा मित्र आदि के वियोग को देखकर, मृत्यु से अत्यंत भयभीत हो जाता है।
७६.
आत्मन्येवात्मधीरन्यां,
शरीरगतिमात्मनः ।
मन्यते निर्भयं त्यक्त्वा, वस्त्रं वस्त्रांतरग्रहम् ॥
आत्मा में ही आत्मबुद्धि रखने वाला मनुष्य एक वस्त्र को छोड़कर दूसरे वस्त्र को धारण करने के समान शरीरगति - शरीर के परिणमन को निर्भय रहकर आत्मा से भिन्न मानता है ।
७७.
व्यवहारे सुषुप्तो यः, स जागर्त्यात्मगोचरे । व्यवहारेऽस्मिन्, सुषुप्तश्चात्मगोचरे ॥
जागर्ति
जो व्यवहार में सुषुप्त है, वह आत्मा के विषय में जागृत है। जो व्यवहार में जागृत है, वह आत्मा के विषय में सुषुप्त है।
७८.
बहिः ।
७९. आत्मानमन्तरे दृष्ट्वा, दृष्ट्वा देहादिकं तयोरन्तरविज्ञानादभ्यासादच्युतो
भवेत्॥
साधक आत्मा को अन्तर् में देखकर तथा शरीर आदि को बाहर देखकर दोनों के भेद - विज्ञान से तथा उसके अभ्यास से अच्युत-मुक्त हो जाता है।
पूर्वं
विभात्युन्मत्तवज्जगत् ।
स्वभ्यस्तात्मधियः पश्चात् काष्ठापाषाणरूपवत्॥
८०.
दृष्टात्मतत्त्वस्य,
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४. समाधिशतक : ९३
आत्म-स्वरूप का अनुभव करने वाले पुरुष को पहले यह जगत् उन्मत्त की भांति जान पड़ता है। तत्पश्चात् आत्मस्वरूप के अभ्यासी साधक को यह जगत् काष्ठ और पत्थर के समान प्रतीत होता है।
८१. शृण्वन्नप्यन्यतः कामं, वदन्नपि कलेवरात्।
नात्मानं भावयेद्भिन्नं, यावत्तावन्न मोक्षभाक्॥
आत्मा और शरीर का भेदविज्ञान दूसरों से बहुत बार सुनकर भी तथा दूसरों को भेदविज्ञान की बात बताकर भी, जब तक व्यक्ति इस भेद-विज्ञान से अपनी आत्मा को भावित नहीं कर लेता, तब तक मोक्ष प्राप्त नहीं हो सकता। ८२. तथैव भावयेदेहाद्, व्यावृत्त्यात्मानमात्मनि।
यथा न पुनरात्मानं, देहे स्वप्नेऽपि योजयेत्॥
आत्मा को शरीर से व्यावृत कर आत्मा में आत्मा की इस प्रकार भावना करे कि स्वप्न में भी पुनः देह का आत्मा के साथ योग न हो। ८३. अपुण्यमव्रतैः पुण्यं, व्रतैर्मोक्षस्तयोर्व्ययः।
अव्रतानीव मोक्षार्थी, व्रतान्यपि ततस्त्यजेत्॥
अव्रतों से पाप का बंध होता है और व्रतों से पुण्य का। पुण्य और पाप-दोनों के क्षीण होने पर मोक्ष होता है। इसलिए मोक्षार्थी अव्रतों की भांति व्रतों को भी छोड़ दे। ८४. अव्रतानि परित्यज्य, व्रतेषु परिनिष्ठितः।
त्यजेत् तान्यपि संप्राप्य, परमं पदमात्मनः॥ साधक अव्रतों को छोड़कर व्रतों का पूर्णरूप से पालन करे। फिर आत्मा का परम पद वीतरागपद प्राप्त कर उन व्रतों को भी छोड़ दे। ८५. यदन्तर्जल्पसंपृक्तमुत्प्रेक्षाजालमात्मनः
मूलं दुःखस्य तन्नाशे, शिष्टमिष्टं परं पदम्॥ __ अंतर्जल्प से संपृक्त जो विकल्पजाल है, वही आत्मा के दुःख का मूल है। उसका नाश होने पर अभिलषित परमात्मपद की प्राप्ति होती है।
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९४ : जैन योग के सात ग्रथ
८६. अव्रती व्रतमादाय, व्रती ज्ञानपरायणः।
परात्मज्ञानसम्पन्नः, स्वयमेव परो भवेत्॥
अव्रती व्रतों को ग्रहण करे और व्रती आत्मज्ञान परायण हो। उत्कृष्ट आत्मज्ञान संपन्न साधक स्वयं मोक्ष को प्राप्त कर लेता है।
८७. लिङ्गं देहाश्रितं दृष्टं, देह एवात्मनो भवः।
न मुच्यन्ते भवात्तस्मात्, ते ये लिङ्गकृताग्रहाः।। लिंग-वेशभूषा आदि देहाश्रित है। देह ही आत्मा का संसार है। अतः लिंग का आग्रह रखने वाले वे व्यक्ति संसार से मुक्त नहीं होते।
८८. जातिदेहाश्रिता दृष्टा, देह एवात्मनो भवः।
न मुच्यन्ते भवात्तस्मात्, ते ये जातिकृताग्रहाः॥ जाति देहाश्रित है। देह ही आत्मा का संसार है। अतः जाति का आग्रह करने वाले वे व्यक्ति संसार से मुक्त नहीं होते।
८९. जातिलिंगविकल्पेन, येषां च समयाग्रहः।
तेऽपि न प्राप्नुवन्त्येव, परमं पदमात्मनः॥
जाति और वेश आदि के विकल्पों में जिनका शास्त्रीय आग्रह है, वे भी आत्मा के परम पद को प्राप्त नहीं कर सकते।
९०. यत्त्यागाय निवर्तन्ते, भोगेभ्यो यदवाप्तये।
प्रीतिं तत्रैव तत्रैव कुर्वन्ति, द्वेषमन्यत्र मोहिनः॥ मनुष्य जिसके त्याग के लिए तथा जिसकी प्राप्ति के लिए भोगों से निवृत्त होते हैं, उसी के प्रति मोहान्ध व्यक्ति प्रीति करते हैं और अन्यत्र- वीतरागभाव के प्रति द्वेष करते हैं। ९१. अनन्तरज्ञः संधत्ते, दृष्टिं पंगोर्यथाऽन्धके।
___ संयोगाद् दृष्टिमङ्गेऽपि, संधत्ते तद्वादात्मनः॥ ___ (अंधे व्यक्ति के कंधे पर पंगु बैठा है। अंधा चलता है और पंगु मार्ग बताता है।)
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४. समाधिशतक : ९५
पंगु और अंधे के भेद को न जानने वाला व्यक्ति, संयोग के कारण, जैसे पंगु की दृष्टि को अंधे में आरोपित कर लेता है, वैसे ही भेद-विज्ञान को न जानने वाला, शरीर और आत्मा के संयोग के कारण, आत्मा की दृष्टि को शरीर में आरोपित कर लेता है।
९२. दृष्टभेदो यथादृष्टिं, पनोरन्धे न योजयेत्।
तथा न योजयेद्देहे, दृष्टात्मा दृष्टिमात्मनः॥
जो पंगु और अंधे के भेद को जानता है, वह जैसे पंगु की दृष्टि को अंधे में संयोजित नहीं करता, वैसे ही आत्मद्रष्टा आत्मा की दृष्टि को शरीर में आरोपित नहीं करता।
९३. सुप्तोन्मत्ताद्यवस्थैव, विभ्रमोऽनात्मदर्शिनाम्।
विभ्रमोऽक्षीणदोषस्य, सर्वावस्थाऽऽत्मदर्शिनः॥ ___ अनात्मदर्शी (बहिरात्मा) सुप्त, उन्मत्त आदि अवस्थाओं को ही विभ्रम मानता है। आत्मदर्शी अक्षीण दोष वाले बहिरात्मा की सारी अवस्थाओं को विभ्रम मानता है।
९४. विदिताशेषशास्त्रोऽपि, न जाग्रदपि मुच्यते।
देहात्मदृष्टिञ्जतात्मा, सुप्तोन्मत्तोऽपि मुच्यते॥
शरीर में आत्मदृष्टि रखनेवाला बहिरात्मा संपूर्ण शास्त्रों का पारगामी तथा जागृत हो जाने पर भी मुक्त नहीं होता। आत्मज्ञानी सुप्त और उन्मत्त होने पर भी मुक्त हो जाता है।
९५. यत्रैवाहितधीः पुंसः श्रद्धा तत्रैव जायते।
यत्रैव जायते श्रद्धा, चित्तं तत्रैव लीयते॥ मनुष्य की बुद्धि जिसमें लीन होती है, उसी में श्रद्धा (रुचि) पैदा होती है और जहां श्रद्धा पैदा होती है, उसी में चित्त लीन होता है। ९६. यत्राऽनाहितधीः पुंसः, श्रद्धा तसमान्निवर्तते।
यस्मान्निवर्तते श्रद्धा, कुतश्चित्तस्य तल्लयः॥
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९६ : जैन योग के सात ग्रंथ
मनुष्य की बुद्धि जिसमें लीन नहीं होती, उसमें श्रद्धा नहीं होती और जिससे श्रद्धा निवर्तित हो जाती है, उसमें चित्त का लय कैसे होगा?
९७. भिन्नात्मानमुपास्यात्मा, परो भवति तादृशः।
वर्तिीपं यथोपास्य, भिन्ना भवति तादृशी॥ भिन्नात्मा अर्थात् अपनी आत्मा से भिन्न अरहंत, सिद्धरूप आत्मा की उपासना करने वाला उपासक स्वयं अरहंत, सिद्धरूप परमात्मा बन जाता है। जैसे दीपक से भिन्न बाती, ज्योति की उपासना कर स्वयं ज्योतिर्मय बन जाती है।
९८. उपास्यात्मानमेवात्मा, जायते परमोऽथवा।
मथित्वाऽऽत्मानमात्मैव, जायतेऽग्निर्यथा तरुः॥
आत्मा आत्मा की ही उपासना कर परम आत्मा बन जाता है। जैसे तरु-बांस बांस के साथ अपने आपका घर्षण कर अग्नि बन जाता है।
९९. इतीदं भावयेन्नित्यमवाचां गोचरं पदम्।
स्वत एव तदाप्नोति, यतो नावर्तते पुनः॥
इस प्रकार सदा आत्मा की ही भावना करे। इसके फलस्वरूप वाणी से अनिर्देश्य मोक्षपद स्वतः प्राप्त होता है। मोक्षपद से पुनः आवर्त्तन नहीं होता।
१००. अयत्नसाध्यं निर्वाणं, चित्तत्वं भूतजं यदि।
अन्यथा योगतस्तस्मान्न दुःखं योगिनां क्वचित्॥ यदि चेतन तत्त्व को पंचभूतात्मक माना जाए तो निर्वाण अयत्नसाध्य होगा, उसकी प्राप्ति के लिए प्रयत्न की आवश्यकता नहीं रहेगी। यदि चेतना तत्त्व भूतात्मक नहीं है तो निर्वाण की प्राप्ति योगाभ्यास से होगी। इसलिए योगी को कहीं भी दुःख नहीं होता।
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४. समाधिशतक : ९७
१०१. स्वप्ने दृष्टे विनष्टेऽपि, न नाशोऽस्ति यथात्मनः।
तथा जागरदृष्टेऽपि, विपर्यासाविशेषतः॥
जैसे स्वप्न में शरीर आदि के दीखने और उसके नष्ट हो जाने पर भी आत्मा का नाश नहीं होता, वैसे ही जागृत अवस्था में भी शरीर आदि के दीखने और उसके नष्ट हो जाने पर भी आत्मा का नाश नहीं होता। दोनों अवस्थाओं में विपर्यास (भ्रांति) की समानता है। १०२. अदुःखभावितं ज्ञानं, क्षीयते दुःखसन्निधौ।
तस्माद्यथाबलं दुःखैरात्मानं भावयेन्मुनिः॥
सुख से भावित ज्ञान दुःख उत्पन्न होने पर नष्ट हो जाता है, इसलिए मुनि को यथाशक्ति अपने आपको दुःख से भावित करना चाहिए। १०३. प्रयत्नादात्मनो वायुरिच्छाद्वेषप्रवर्तितात्।
वायोः शरीरयन्त्राणि, वर्तन्ते स्वेषु कर्मसु॥
राग-द्वेष से प्रवर्तित आत्म-संबंधी प्रयत्न से वायु चलती है। उससे शरीर के सारे यंत्र अपने-अपने कार्य में प्रवृत्त होते हैं। १०४. तान्यात्मनि समारोप्य, साक्षाण्यास्तेऽसुखं जडः।
त्यक्त्वाऽऽरोपं पुनर्विद्वान्, प्राप्नोति परमं पदम्॥
बहिरात्मा इन्द्रियों सहित शरीर के यंत्रों का आत्मा में आरोपण कर दुःखी बना रहता है। अंतरात्मा अस आरोपण को छोड़कर परम पद (मोक्ष) को प्राप्त कर लेता है। १०५. मुक्त्वा परत्र परबुद्धिमहंधियं च।
संसारदुःखजननी जननाद्विमुक्तः। ज्योतिर्मयं सुखमुपैति परात्मनिष्ठस्तन्मार्गमेतदधिगम्य समाधितंत्रम्॥
परमात्मनिष्ठ साधक आत्मा से परमात्मा बनने का उपाय बतलाने वाले इस 'समाधितंत्र' ग्रंथ को जानकर, संसार में दुःख उत्पन्न करने वाली परबुद्धि तथा अहंबुद्धि को त्याग कर, जन्म-मरण से मुक्त होता हुआ अनन्त-ज्ञानात्मक सुख को प्राप्त करता है।
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५. इष्टोपदेश
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संकेतिका
इसके रचयिता हैं-आचार्य पूज्यपाद। इस पर विक्रम की तेरहवीं शताब्दी के विद्वान् आशाधरजी की टीका है। 'इष्टोपदेश' में दो शब्द हैं-इष्ट और उपदेश। इष्ट का अर्थ है-मोक्ष और उपदेश का अर्थ है-प्रतिपादन अर्थात् मोक्ष का प्रतिपादक शास्त्र। हित-संपादन के अनेक उपाय हैं। उनके समवायों का अवलंबन लेकर अनन्त चतुष्टयी को प्राप्त कर लेना ही मोक्ष है। यही इष्ट है। इस ग्रंथ में ५१ श्लोक हैं और इनका मुख्य प्रतिपाद्य है-अध्यात्म। अध्यात्मयोगी का स्वरूप यह है
'ब्रूवन्नपि हि न ब्रूते, गच्छन्नपि न गच्छति। स्थिरीकृतात्मतत्त्वस्तु, पश्यन्नपि न पश्यति॥'
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५. इष्टोपदेश
१.
यस्य स्वयं स्वभावाप्तितरभावे कृत्स्नकर्मणः।
तस्मै संज्ञानरूपाय, नमोऽस्तु परमात्माने॥ संपूर्ण कर्मों के सर्वथा अभाव से जिसको स्वभाव-आत्म-स्वरूप की प्राप्ति हो गई है, उस चेतनस्वरूप परमात्मा-सिद्ध को नमस्कार हो।
योग्योपादानयोगेन, दृषदः स्वर्णता मता। द्रव्यादिस्वादिसंपत्तावात्मनोप्यात्ममता मता॥ योग्य कारणों का योग मिलने पर पाषाण में विद्यमान स्वर्ण प्रगट हो जाता है। उसी प्रकार स्वद्रव्य, स्वक्षेत्र, स्वकाल और स्वभाव की संपत्ति से जीव का आत्म-स्वरूप प्रगट हो जाता है।
३. वरं व्रतैः पदं दैवं, नाव्रतैर्वत नारकम्।
छायातपस्थयोर्भेदः, प्रतिपालयतोर्महान्॥ व्रतों के द्वारा देवपद प्राप्त करना अच्छा है, किन्तु अव्रतों के द्वारा नरकपद पाना अच्छा नहीं है। जैसे छाया और धूप में प्रतीक्षारत दो व्यक्तियों की सुखानुभूति में महान् भेद होता है, वैसे ही व्रत अव्रत के पालन करने वालों में महान् भेद होता है। ४. यत्र भावः शिवं दत्ते, द्यौः कियद् दूरवर्तिनी।
यो नयत्याशु गव्यूति, क्रोशार्धे किं स सीदति?
जो आत्म-परिणाम मोक्ष का प्रदाता है, उस आत्म-परिणाम के लिए स्वर्ग कितना दूर है? जो भारवाहक अपने भार को दो कोस तक शीघ्रता से ले जा सकता है, क्या वह अपने भार को आधा कोस ले जाते हुए खिन्न होगा?
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१०२ : जैन योग के सात ग्रंथ
हृषीकजमनातकं, दीर्घकालोपलालितम्। नाके नाकौकसां सौख्यं, नाके नाकोकसामिव॥
स्वर्ग में देवताओं का इन्द्रियजन्य सुख आतंकरहित तथा दीर्घकालिक होता है। स्वर्ग में देवों का सुख स्वर्ग में देवों के सुखों के समान होता है।
६. वासनामात्रमेवैतत् सुखं दुःखं च देहिनाम्।
तथा ह्युटेजयन्त्येते, भोगा रोगा इवापदि॥ प्राणियों का सुख-दुःख केवल वासना-संस्कारजन्य होता है। ये भोग आपात्काल में रोगों की भांति उदविग्न करते हैं।
७. मोहेन संवृतं ज्ञानं, स्वभावं लभते न हि।
मत्तः पुमान् पदार्थानां, यथा मदनकोद्रवैः॥
मोह से आच्छादित ज्ञान वैसे ही स्वभाव-वास्तविक स्वरूप को नहीं जान सकता जैसे मदकारक कोद्रव धान्य खाने वाला व्यक्ति पदार्थों का यथार्थ परिच्छेद नहीं कर पाता। ८. वपुर्गृहं धनं दारा, पुत्रा मित्राणि शत्रवः।
सर्वथान्यस्वभावानि, मूढः स्वानि प्रपद्यते॥
शरीर, घर, धन, स्त्री, पुत्र, मित्र, शत्रु-ये सब सर्वथा अन्य स्वभाव वाले हैं-आत्मेतर स्वरूप वाले हैं। किन्तु मोह से मूढ व्यक्ति इन सबको आत्मीय मानता है। ९. दिग्देशेभ्यः खगा एत्य, संवसन्ति नगे नगे।
स्वस्वकार्यवशाधान्ति, देशे दिक्षु प्रगे प्रगे॥ भिन्न-भिन्न दिशाओं और क्षेत्रों से आकर पक्षीगण विभिन्न वृक्षों पर रेनबसेरा करते हैं और प्रातःकाल होने पर अपने अपने प्रयोजन से भिन्न-भिन्न दिशाओं और क्षेत्रों की ओर उड़ जाते हैं। १. इसका तात्पर्य है कि देवताओं का सुख अनन्योपम होता है। उसे उपमा से
नहीं समझाया जा सकता। राम-रावण का युद्ध कैसा था? पूछने पर कहा जाता है-'रामरावणयोयुद्धं रामरावणयोरिव।'
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५. इष्टोपदेश : १०३ १०. विराधकः कथं हन्त्रे, जनाय परिकुप्यति।
त्र्यङ्गलं पातयन् पद्भ्यां, स्वयं दण्डेन पात्यते॥
अपकार करनेवाला व्यक्ति हता-प्रत्यपकार करने वाले पर क्यों कुपित होता है। जो व्यक्ति 'व्यंगुल' यंत्र को पैरों से भूमि पर गिराता है, यंत्र का डंडा स्वयं उसको भूमी पर गिरा देता है।
११. रागद्वेषद्वयीदीर्घनत्राकर्षणकर्मणा
अज्ञानात् सुचिरं जीवं, संसाराब्धौ भ्रमत्यसौ॥ यह जीव अज्ञानवश राग-द्वेषरूपी दो लंबी डोरियों की खींचातानी से इस संसार-समुद्र में दीर्घकाल तक घूमता रहता है, गोते लगाते रहता है।
१२. विपद्भवपदावर्ते,
पदिकेवातिवाह्यते। यावत्तावद् भवत्यन्याः, प्रचुरा विपदः पुरः॥
यह संसार एक घटीयंत्र की भांति है। घटीयंत्र द्वारा जब पानी से भरी हुई एक 'पारी' रिक्त होती है, तब तक दूसरी ‘पारी' पानी से भर जाती है। इसी प्रकार संसार में व्यक्ति एक विपत्ति को भुगत कर पार करता है, उसी समय अन्यान्य प्रचुर विपत्तियां सामने आ उपस्थित हो जाती हैं।
१३. दुर]नासुरक्ष्येण, नश्वरेण धनादिना।
स्वस्थंमन्यो जनः कोऽपि, ज्वरवानिव सर्पिषा।।
धन आदि पदार्थ कष्ट से उपार्जित, असुरक्ष्य तथा नश्वरशील होते हैं। उनसे जो अपने आपको सुखी मानता है, वह वैसा ही मूर्ख है जैसा कोई ज्वरग्रस्त व्यक्ति घी का सेवन कर स्वयं को स्वस्थ मानता है।
१. तीन अंगुलियों के आकार का कूडा-करकट समेटने का यंत्र विशेष। यह एक
डंडे से संचालित होता है।
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१०४ : जैन योग के सात ग्रंथ १४. विपत्तिमात्मनो मूढः, परेषामिव नेक्षते।
दह्यमानमृगाकीर्णवनान्तरतरुस्थवत्
मृग आदि वन्य-पशुओं से आकीर्ण वन में दावानल सुलग गया। वन्य-पशु जल रहे हैं। वन के भीतर एक वृक्ष पर एक आदमी चढ़ गया। वह मूढ व्यक्ति दूसरों को (वन्य-पशुओं को) विपत्ति में फंसा देखकर भी अपने ऊपर आनेवाली विपत्तियों को नहीं देखता।
१५. आयुर्वृद्धिक्षयोत्कर्षहेतुं कालस्य निर्गमम्।
वाञ्छतां धनिनामिष्टं, जीवितात् सुतरां धनम्॥
काल के व्यतीत होने के साथ-साथ आयुष्य क्षीण होता है, पर व्याज आदि से धन बढ़ता है। इसलिए धनी व्यक्ति काल के बीतने की वांछा करता है, क्योंकि उसे अपने जीवन से भी धन अधिक इष्ट है, प्रिय है।
१६. त्यागाय श्रेयसे वित्तमवित्तः संचिनोति यः।
स्वशरीरं स पङ्केन, स्नास्यामीति विलिम्पति॥
जो निर्धन व्यक्ति त्याग-पात्रदान आदि तथा श्रेयस्-पुण्यप्राप्ति के लिए धन का संचय करता है, वह 'मैं स्नान करूंगा' इस बुद्धि से अपने शरीर को कीचड़ से लथपथ करता है।
१७. आरम्भे तापकान् प्राप्तावतृप्तिप्रतिपादकान।
अन्ते सुदुस्त्यजान् कामान्, कामं कः सेवते सुधीः॥
आरंभ (उत्पत्तिकाल) में संतापकारक, प्राप्त होने पर अतृप्तिकारक और अन्त में दुस्त्यज-ऐसे कामभोगों का अत्यधिक सेवन कौन बुद्धिमान् करेगा? १८. भवन्ति प्राप्य यत्सगङ्गमशुचीनि शुचीन्यपि।
स कायः संततापायस्तदर्थं प्रार्थना वृथा॥ जिसके संसर्ग को प्राप्त कर पवित्र पदार्थ भी अपवित्र बन जाते हैं, वह शरीर सदा अपायबहुल है। उसके लिए भोगों की वांछा करना व्यर्थ है।
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५. इष्टोपदेश : १०५
१९. यज्जीवस्योपकाराय, तद्देहस्यापकारकम्।
यद्देहस्योपकाराय, तज्जीवस्यापकारकम्॥ ____ जो जीव के लिए उपकारक है, वह देह के लिए अपकारक है। जो देह के लिए उपकारक है, वह जीव के लिए अपकारक है।
२०. इतश्चिन्तामणिर्दिव्य, इतः पिण्याकखण्डकम।
ध्यानेन चेदुभे लभ्ये, क्वाद्रियन्तां विवेकिनः॥ एक ओर दिव्य चिंतामणि रत्न है तथा दूसरी ओर खली का टुकड़ा है। यदि ध्यान के द्वारा दोनों प्राप्त हों तो विवेकी व्यक्ति किसको ग्रहण करेगा?
२१. स्वसंवेदनसुव्यक्तस्तनुमात्रो निरत्ययः।
अत्यन्तसौख्यवानात्मा, लोकालोकविलोकनः॥ .
आत्मा लोक-अलोक का ज्ञाता-द्रष्टा है। वह अत्यन्त सुखस्वभाव-वाला, शरीरप्रमाण, नित्य तथा स्वसंवेदन से सुव्यक्त है, अनुभूत है।
२२. संयम्य करणग्राममेकाग्रत्वेन चेतसः।
आत्मानमात्मवान् ध्यायेदात्मनैवात्मनि स्थितम्॥ मन की एकाग्रता से इन्द्रियों का नियमन कर आत्मवान् आत्मा में स्थित, आत्मा का, आत्मा के द्वारा ध्यान करे, अनुभव करे।
२३. अज्ञानोपास्तिरज्ञानं, ज्ञानं ज्ञानिसमाश्रयः।
ददाति यत्तु यस्यास्ति, सुप्रसिद्धमिदं वचः॥
अज्ञानी की उपासना अज्ञान देती है और ज्ञानी की उपासना ज्ञान देती है। यह प्रसिद्ध वचन है कि जिसके पास जो होता है, वह वही देता है। २४. परीषहाद्यविज्ञानादास्रवस्य
निरोधिनी। जायतेऽध्यात्मयोगेन, कर्मणामाशु निर्जरा॥
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१०६ : जैन योग के सात ग्रंथ
अध्यात्मयोग-आत्मा में आत्मा के ध्यान से परीषहों का संवेदन न होने के कारण आस्रव का निरोध करने वाली कर्म-निर्जरा सहज होती है।
२५. कटस्य कर्ताहमिति, संबन्धः स्याद् द्वयोर्द्वयोः।
ध्यानं ध्येयं यदात्मैव, संबन्धः कीदृशस्तदा॥ 'मैं चटाई का कर्ता हूं'-इस प्रकार दो भिन्न पदार्थों (मैं और चटाई में संबंध हो सकता है, किन्तु जहां आत्मा ही ध्यान है और आत्मा ही ध्येय है, वहां कैसा संबंध?
२६. बध्यते मुच्यते जीवः, सममो निर्ममः क्रमात्।
तस्मात्सर्वप्रयत्नेन, निर्ममत्वं विचिन्तयेत्॥
ममतावान् जीव कर्मों से बंधता है और समतावान् कर्मों से मुक्त होता है। इसलिए सभी प्रयत्नों के द्वारा साधक निर्ममत्व का चिंतन करे, उसको साधे।
२७. एकोऽहं निर्ममः शुद्धो, ज्ञानी योगीन्द्रगोचरः।
बाह्याः संयोगजा भावा, मत्तः सर्वेऽपि सर्वथा॥
मैं एक-अकेला, ममतारहित, शुद्ध, ज्ञानी तथा योगिन्द्रों (केवलियों) द्वारा संवेद्य हूं। संयोगजन्य सभी भाव मेरे से सर्वथा बाह्य-भिन्न हैं।
२८. दुःखसंदोहभागित्वं, संयोगादिह देहिनाम्।
त्यजाम्येनं ततः सर्वं, मनोवाक्कायकर्मभिः॥ इस संसार में प्राणियों को संयोगजन्य दुःख-समूह भोगना पड़ता है, इसलिए इस समस्त संयोग को मैं मन, वचन और काया से छोड़ता हूं। २९. न मे मृत्युः कुतो भीर्तिन मे व्याधिः कुतो व्यथा।
नाहं बालो न वृद्धोऽहं, न युवैतानि पुद्गले॥
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५. इष्टोपदेश : १०७
मेरी मृत्यु नहीं होती, तब फिर भय किसका ? मुझे व्याधि नहीं होती, तब फिर व्यथा कैसी ? मैं न बालक हूं, न वृद्ध हूं और न युवा हूं। ये सब अवस्थाएं पुद्गलों में ही होती हैं।
भुक्तोज्झिता मुहुर्मोहान् मया सर्वेऽपि पुद्गलाः । उच्छिष्टेष्विव तेष्वद्य, मम विज्ञस्य का स्पृहा ॥ मैंने मोहवश (अज्ञानवश ) पुद्गलों को बार- बार भोगा है और उन्हें छोड़ा है। अब मुझ ज्ञानी की उन उच्छिष्ट भोगों के प्रति क्या स्पृहा हो सकती है ?
३०.
जीवहितस्पृहः ।
कर्महिताबन्धि, जीवो स्वस्वप्रभावभूयस्त्वे, स्वार्थं को वा न वाञ्छति॥
कर्म कर्म का हित चाहता है और जीव जीव का हित चाहता है । अपने-अपने प्रभाव के वृद्धिंगत होने पर अपने स्वार्थ को कौन नहीं
चाहता ?
३१.
कर्म
स्वोपकारपरो
भव ।
उपकुर्वन्परस्याज्ञो, दृश्यमानस्य
लोकवत् ॥
दूसरों पर उपकार करना छोड़कर तुम अपना उपकार करने में तत्पर बनो। जो दृश्यमान पर-पदार्थों - शरीर आदि का उपकार करने में लगा रहता है, वह सामान्य लोगों की भांति अज्ञ है, मूर्ख है।
३२. परोपकृतिमुत्सृज्य,
३३.
गुरूपदेशादभ्यासात्,
स्वपरान्तरम् ।
संवित्तेः, जानाति यः स जानाति, मोक्षसौख्यं निरन्तरम् ॥ गुरु
जो
के उपदेश के द्वारा, अभ्यास के द्वारा अथवा संवित्ति - स्वसंवेदन के द्वारा स्व-पर के भेद को जानता है वह मुक्ति-सुख
का निरंतर अनुभव करता है।
३४.
स्वस्मिन् स्वयं
सदभिलाषित्वादभीष्टज्ञापकत्वातः ।
गुरुरात्मनः ॥
हितप्रयोक्तृत्वादात्मैव
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१०८ : जैन योग के सात ग्रंथ
आत्मा ही आत्मा का गुरु है, क्योंकि१. आत्मा ही अपने आप में प्रशस्त मोक्षसुख की अभिलाषा
करता है। २. आत्मा ही अपने द्वारा अभीष्ट मोक्षसुख के उपायों का
ज्ञापक है। ३. आत्मा ही स्वयं को अपने हित-मोक्ष के उपायों में लगाने
वाला है।
३५. नाज्ञो विज्ञत्वमायाति, विज्ञो नाशत्वमृच्छति।
निमित्तमात्रमन्यस्तु, गतेधर्मास्तिकायवत्॥ __ अज्ञ विज्ञ नहीं बन सकता और विज्ञ अज्ञ नहीं बन सकता। गति में धर्मास्तिकाय की भांति दूसरा केवल निमित्त मात्र बनता है।
३६. अभवच्चित्तविक्षेप, एकान्ते तत्त्वसंस्थितः।
अभ्यस्येदभियोगेन, योगी तत्त्वं निजात्मनः॥ जिसका चित्त विक्षेपशून्य है, जो तत्त्व में संस्थित है-अपने साध्य में अविचल है, ऐसा योगी एकान्त में प्रयत्नपूर्वक अपने आत्म-स्वरूप के साक्षात्कार का अभ्यास करे।
३८.
३७. यथा यथा समायाति, संवित्तौ तत्त्वमुत्तमम्।
तथा तथा न रोचन्ते, विषयाः सुलभा अपि॥ यथा यथा न रोचन्ते, विषयाः सुलभा अपि। तथा तथा समायाति, संवित्तौ तत्त्वमुत्तमम्॥
(युग्मम्) जैसे-जैसे उत्तम तत्त्व-विशुद्ध आत्म-स्वरूप का अनुभव होता है, वैसे-वैसे सुलभता से प्राप्त होनेवाले इन्द्रिय-विषय रुचिकर नहीं लगते।
जैसे-जैसे सुलभता से प्राप्त होने वाले इन्द्रिय-विषय रुचिकर नहीं लगते, वैसे-वैसे उत्तमतत्त्व का अनुभव होता जाता है।
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५. इष्टोपदेश : १०९
३९. निशामयति निश्शेषामिन्द्रजालोपमं जगत्।
स्पृहयत्यात्मलाभाय, गत्वान्यत्रानुतप्यते॥
योगी समस्त विश्व को इन्द्रजाल के समान देखता है, समझता है। वह आत्म-स्वरूप को पाने की अभिलाषा करता है। वह आत्मातिरिक्त कार्य में व्याप्त होने पर अनुताप करता है, पश्चात्ताप करता है।
४०. इच्छत्येकान्तसंवासं, निर्जनं जनितादरः।
निजकार्यवशात् किंचिदुक्त्वा विस्मरति द्रुतम्॥ निर्जनता को चाहनेवाला लोकमान्य योगी एकांतवास की इच्छा करता है। वह अपने कार्यवश कुछ कहता भी है तो उसे शीघ्र भुला देता है।
४१. ब्रुवन्नपि हि न ब्रूते, गच्छन्नपि न गच्छति।
स्थिरीकृतात्मतत्त्वस्तु, पश्यन्नपि न पश्यति॥
अपने आपको आत्मस्वरूप में स्थिर कर लेने वाला योगी बोलते हुए भी नहीं बोलता, चलते हुए भी नहीं चलता और देखते हुए भी नहीं देखता।
४२. किमिदं कीदृशं कस्य, कस्मात् क्वेत्यविशेषयन्।
स्वदेहमपि नावैति, योगी योगपरायणः॥ योग-परायण योगी यह क्या है? कैसा है ? किसका है? क्यों है? कहां है? आदि विकल्पों से शून्य होता है। वह अपने शरीर की भी परवाह नहीं करता। ४३. यो यत्र निवसन्नास्ते, स तत्र कुरुते रतिम्।
यो यत्र रमते तस्मादन्यत्र स न गच्छति॥
जो जहां निवास करने लग जाता हैं, वह वहां आनंद का अनुभव करने लग जाता है। जो जहां आनंद मानता है, वह वहां से अन्यत्र नहीं जाता।
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११० : जैन योग के सात ग्रंथ ४४. अगच्छंस्तद्विशेषाणामनभिज्ञश्च जायते।
अज्ञाततद्विशेषस्तु, बध्यते न विमुच्यते॥
आत्मज्ञानी योगी आत्मेतर पदार्थों में प्रवृत्ति नहीं करता, अतः वह उनकी विशेषताओं से अनभिज्ञ रहता है। विशेषताओं की अनभिज्ञता के कारण वह कर्मों से बंधता नहीं, मुक्त हो जाता है।
४५. परः परस्ततो दुःखमात्मैवात्मा ततः सुखम्।
अत एव महात्मानस्तन्निमित्तं कृतोद्यमाः॥ ___ 'पर' पर है। उससे दुःख होता है। आत्मा आत्मा है अर्थात् 'स्व' स्व है, उससे सुख होता है। इसलिए महात्माओं ने आत्मा के लिए ही प्रयत्न किया है।
४६. अविद्वान् पुद्गलद्रव्यं, योऽभिनन्दति तस्य तत्।
न जातु जन्तोः सामीप्यं, चतुर्गतिषु मुञ्चति॥
जो अज्ञानी पुद्गल द्रव्य का अभिनंदन करता है, वह पुद्गल द्रव्य चारों गतियों में उस अज्ञानी की निकटता नहीं छोड़ता।
४७. आत्मानुष्ठाननिष्ठस्य, व्यवहारबहिःस्थितेः।
जायते परमानन्दः, कश्चिद्योगेन योगिनः॥
आत्मा के अनुष्ठान में लीन तथा व्यवहार से बाहर रहने वाले योगी को योग-आत्मध्यान के द्वारा कोई परम आनंद की प्राप्ति होती है।
४८. आनन्दो निर्दहत्युद्धं, कर्मेन्धनमनारतम्।
न चासौ खिद्यते योगी, बहिर्दुःखेष्वचेतनः॥
वह परमानन्द प्रचुर कर्मरूपी ईंधन को निरंतर जलाता रहता है। वह योगी बाह्य दुःखों-क्लेशों का संवेदन नहीं करता, अतः वह कभी खिन्न नहीं होता।
१. उद्धमिति प्रभूतम्।
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५. इष्टोपदेश : १११
अविद्याभिदुरं ज्योतिः, परं ज्ञानमयं महत्। तत्प्रष्टव्यं तदेष्टव्यं, तद् द्रष्टव्यं मुमुक्षुभिः॥
अविद्या का नाश करने वाली वह ज्ञानमयी परम ज्योति अत्यंत श्रेष्ठ है। मुमुक्षु उसी के विषय में पूछे, उसी की अभिलाषा करे और उसी का अनुभव करे।
५०. जीवोऽन्यः पुद्गलश्चान्य, इत्यसौ तत्त्वसंग्रहः।
यदन्यदुच्यते किञ्चित्, सोऽस्तु तस्यैव विस्तरः॥ 'जीव अन्य है और पुद्गल अन्य है'-तत्त्व का इतना ही सार है। इसके अतिरिक्त जो कुछ कहा जाता है, वह इसीका विस्तार है।
५१. इष्टोपदेशमिति सम्यगधीत्य धीमान्।
मानापमानसमतां स्वमताद्वितन्य। मुक्ताग्रहो विनिवसन् सजने वने वा, मुक्तिश्रियं निरुपमामुपयाति . भव्यः॥
बुद्धिमान् मनुष्य 'इष्टोपदेश' को भलीभांति पढ़कर, मनन कर, स्वमत-इष्टोपदेश के अध्ययन द्वारा उत्पन्न आत्मज्ञान से मान
और अपमान में समता का विस्तार कर, आग्रहमुक्त होकर, चाहे वन में रहे या ग्राम-नगर में, वह भव्य व्यक्ति निरुपम मुक्ति-संपदा को प्राप्त करता है।
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६. स्वरूपसम्बोधन
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संकेतिका
ईस्वी सन् की आठवीं शताब्दी के महान् आचार्य अकलंकदेवं की रचना 'स्वरूपसंबोधन' पचीस श्लोकों में निबद्ध एक लघुकाय ग्रंथ है। इसमें आत्म-स्वरूप की मीमांसा अनेकांतदृष्टि से प्रस्तुत कर गागर में सागर का-सा रूप प्रदर्शित किया है। श्लोक छोटे हैं किन्तु अर्थ-गांभीर्य से गहन हैं। आचार्य अकलंक प्रमाण ग्रंथों के रचयिता में अग्रेगावा थे। इसीलिए यह उक्ति प्रचलित हुई 'प्रमाणमकलंकस्य'।
इस ग्रंथ पर दो टिकाएं हैं। एक है विद्यावारिधि पंडित खूबचन्दजी शास्त्री की और दूसरी है अज्ञात नामा आचार्य या मुनि की। दोनों टीकाएं मुद्रित हैं।
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६. स्वरूपसम्बोधन
मुक्तामुक्तैकरूपो यः कर्मभिः संविदादिना।
अक्षयं परमात्मानं, ज्ञानमूर्तिं नमामि तम्॥ मैं उस परमात्मा को नमस्कार करता हूं जो कर्मों से मुक्त है, अपने चैतन्यस्वभाव से अमुक्त है तथा अक्षय है और ज्ञानमूर्ति है।
२. सोऽस्त्यात्मा सोपयोगोऽयं, क्रमाद्धेतुफलावहः।
यो ग्राह्योऽग्राह्यनाद्यन्तः, स्थित्युत्पत्तिव्ययात्मकः॥ वह आत्मा ज्ञान के उपयोग से उपयुक्त है। वह क्रमशः हेतुफलावह-कार्य भी है और कारण भी है। वह स्वानुभव प्रत्यक्ष से ग्राही तथा पुद्गल द्रव्य को आत्मसात् नहीं करता इस दृष्टि से अग्राही भी है। वह अनादि-अनन्त तथा उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यात्मक है।
३. प्रमेयत्वादिभिर्धर्मेरचिदात्मा चिदात्मकः।
ज्ञानदर्शनतस्तस्माच्चेतनाचेतनात्मकः ॥ प्रमेयत्व आदि धर्मों की अपेक्षा आत्मा अचेतनरूप है और ज्ञानदर्शन की अपेक्षा वह चेतनरूप है। अतः आत्मा चेतन-अचेतनरूप है।
४. ज्ञानाद् भिन्नो न चाऽभिन्नो, भिन्नाभिन्नः कथञ्चन।
ज्ञानं पूर्वापरीभूतं, सोऽयमात्मेति कीर्तितः॥
आत्मा ज्ञान से न सर्वथा भिन्न है और न सर्वथा अभिन्न है। वह कथंचिद् भिन्न है और कथंचिद् अभिन्न है। वह पूर्व और अपर ज्ञान का समच्चय है।
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११६ : जैन योग के सात ग्रंथ ५. स्वदेहप्रमितश्चार्य, ज्ञानमात्रोऽपि नैव सः।
ततः सर्वगतश्चायं, विश्वव्यापी न सर्वथा।
आत्मा स्वदेह परिमित भी है और समुद्घात की अपेक्षा स्वदेह परिमित नहीं भी है। आत्मा चैतन्य की अपेक्षा ज्ञानमात्र भी है और अन्य धर्मों की अपेक्षा ज्ञानमात्र नहीं भी है। आत्मा संपूर्ण ज्ञेय का ज्ञाता होने के कारण सर्वगत है और देहगत होने के कारण विश्वव्यापी-सर्वगत नहीं भी है।
६. नानाज्ञानस्वभावत्वादेकोऽनेकोऽपि नव सः।
चैतन्यैकस्वभावत्वादेकानेकात्मको भवेत्॥
आत्मा नानाज्ञान स्वभाव के कारण एक नहीं है और एक चैतन्य स्वभाव के कारण वह अनेक भी नहीं है। इसलिए आत्मा एकअनेकात्मक है।
नाऽवक्तव्यः स्वरूपायैर्निर्वाच्यः परभावतः। तस्मान्नैकान्ततो वाच्यो, नापि वाचामगोचरः॥
आत्मा स्वरूप-स्वभाव आदि की अपेक्षा अवक्तव्य नहीं है तथा परभाव की अपेक्षा वक्तव्य भी नहीं है। इसलिए आत्मा एकांततः न वाच्य है और न अवाच्य है।
८. स स्याद्विधिनिषेधात्मा, स्वधर्मपरधर्मयोः।
स मूर्तिर्बोधमूर्तित्वादमूर्तिश्च विपर्ययात्॥
आत्मा कथंचित् विध्यात्मक है और कथंचिद् निषेधात्मक है। वह स्वधर्म की अपेक्षा विध्यात्मक है और परधर्म की अपेक्षा निषेधात्मक है। आत्मा रूपी भी है और अरूपी भी है। वह बोधमूर्ति-ज्ञान के आकार से युक्त होने के कारण रूपी है और पौद्गलिक शरीर से भिन्न होने के कारण वह अरूपी है। ९. इत्याद्यनेकधर्मत्वं, बंधमोक्षौ तयोः फलम्।
आत्मा स्वीकुरुते तत्तत्कारणैः स्वयमेव तु॥
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६. स्वरूपसम्बोधन : ११७ इस प्रकार आत्मा अनेक धर्मात्मक है। अनेक धर्मात्मकता के कारण बंध और मोक्ष होता है। उनके अपने-अपने कारणों से वह बंध और मोक्ष के फल में परिणत होता है।
१०. कर्त्ता यः कर्मणां भोक्ता, तत्फलानां स एव तु।
बहिरन्तरुपायाभ्यां, तेषां मुक्तत्वमेव हि॥ जो आत्मा कर्मों को करता है वही उनके फल को भोगता है। वही आत्मा बहिरंग और अंतरंग-तपश्चर्या के इन दो उपायों से मुक्त भी हो जाता है।
११. सदृष्टि-ज्ञान-चारित्रमुपायः स्वात्मलब्धये।
तत्त्वे याथात्म्यसंस्थित्यमात्मनो दर्शनं मतम्॥ यथावद्वस्तुनिर्णीतिः, सम्यग्ज्ञानं प्रदीपवत्। तत्स्वार्थव्यवसायात्म, कथंचित् प्रमितेः पृथक्॥ दर्शन-ज्ञानपर्यायेषूत्तरोत्तरभाविषु स्थिरमालंबनं यद्वा, माध्यस्थ्यं सुखदुःखयोः॥
१४.
ज्ञाता द्रष्टाऽहमेकोऽहं, सुखे दुःखे न चापरः। इतीदं भावनादाढ्य, चारित्रमथवाऽपरम्॥
(चतुर्भिः कलापकम्) अंतरंग उपाय ये हैं-सम्यग्दृष्टि, सम्यग्ज्ञान और सम्यग्चारित्र-इन तीनों का समवाय आत्मोपलब्धि का उपाय है। तत्त्व के यथार्थ स्वरूप में आत्मा का अवस्थान सम्यग्दर्शन है।
प्रदीप की भांति वस्तु का यथार्थ निर्णय करना सम्यग्ज्ञान है। ज्ञान स्व और पदार्थ का निश्चय करता है। वह प्रमिति (अज्ञान-निवृत्तिरूप प्रमाण का फल) से कथंचित् पृथक् है।
पदार्थ के प्रति ममत्व का त्याग कर अपनी आत्मा में उत्तरोत्तरभावी ज्ञान-दर्शन के पर्यायों में स्थिर आलंबनपूर्वक रहना चारित्र है। अथवा सुख-दुःख में मध्यस्थ रहना चारित्र है।
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११८ : जैन योग के सात ग्रंथ
मैं ज्ञाता-द्रष्टा हूं। सुख-दुःख में मैं अकेला हूं, दूसरा कोई साथी नहीं है। इस भावना की दृढ़ता भी चारित्र है ।
तदेतन्मूलहेतोः स्यात्, कारणं सहकारकम् । तद्बाह्यं देशकालादि, तपश्च बहिरङ्गकम्॥ आत्मोपलब्धि का मूल हेतु है - रत्नत्रयी - सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यग्चारित्र । बाह्यवर्ती देश, काल आदि तथा बाह्य तप उसका सहकारी कारण है ।
१५.
१६. इतीदं सर्वमालोच्य, सौस्थ्ये दौःस्थ्ये च शक्तितः । भावयेन्नित्यं, रागद्वेषविवर्जितम्॥
आत्मानं
इस प्रकार आत्म-स्वरूप की सर्वथा आलोचना कर सुख-दुःख की सामग्री सामने आने पर आत्मा के राग-द्वेष रहित स्वरूप की ही यथाशक्ति भावना करे ।
नैवावगाहते।
नीलीरक्तेऽम्बरे रागो, दुराधेयो हि कौङ्कुमः ॥
कषायों से रंजित चित्त तत्त्व का अवगाहन नहीं कर सकता। नीले रंग के कपड़े पर कुंकुम का रंग निश्चित ही नहीं चढ़ सकता ।
१७. कषायैः रंजितं चेतस्तत्त्वं
सर्वतः ।
ततस्त्वं दोषनिर्मुक्त्यै, निर्मोहो भव उदासीनत्वमाश्रित्य, तत्त्वचिन्तापरो
भव ॥
इसलिए तुम दोषों से मुक्त होने के लिए सब प्रकार से निर्मोह हो जाओ। तुम संसार से उदासीन होकर आत्मा के चिंतन में तत्पर बनो ।
१८.
हेयोपादेयतत्त्वस्य, स्थितिं विज्ञाय हेयतः ।
निरालम्बो भवान्यस्मादुपेये सावलम्बनः ॥
हेय और उपादेय तत्त्व की स्थिति ( मर्यादा) को जानकर हेय को छोड़ कर निरालंब हो जा तथा उपादेय को ग्रहण कर सावलंबन बन ।
१९.
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६. स्वरूपसम्बोधन : ११९
२०. स्वं परं चेति वस्तु त्वं, वस्तुरूपेण भावय।
उपेक्षाभावनोत्कर्षपर्यन्ते शिवमाप्नुहि॥ तुम स्व-आत्मतत्त्व को तथा पर-आत्मेतर तत्त्व को यथार्थरूप में जानो। तुम उपेक्षा-राग-द्वेष रहित भावना के उत्कर्ष-बिन्दु पर पहुंच कर मोक्ष को प्राप्त करो।
२१. मोक्षेऽपि यस्य नाकांक्षा, स मोक्षमधिगच्छति।
इत्युक्तत्वाद्धितान्वेषी, कांक्षां न क्वापि योजयेत्॥ 'जिसमें मोक्ष की भी आकांक्षा नहीं है, वह मोक्ष को प्राप्त होता है'-इस सूक्त को ध्यान में रखकर हितान्वेषी साधक किसी की भी आकांक्षा न करे।
२२. साऽपि च स्वात्मनिष्ठत्वात्, सुलभा यदि चिन्त्यते।
आत्माधीने सुखे तात!, यलं किं न करिष्यसि॥ वह आकांक्षा स्वात्मनिष्ठ होने के कारण सुलभ है, यदि तुम ऐसा सोचते हो तो हे तात! सुख भी तो आत्मा के अधीनस्थ है, उसके लिए प्रयत्न क्यों नहीं करते?
२३. स्वं परं विद्धि तत्रापि, व्यामोहं छिन्धि किन्त्विमम्।
अनाकुलस्वसंवेद्य, स्वरूपे तिष्ठ केवले॥ तुम स्व-आत्मा और पर-पुद्गल-दोनों को जानो और इस स्वपर के व्यामोह को भी नष्ट कर दो। तुम केवल अनाकुल-स्वसंवेद्य स्वरूप में स्थिर हो जाओ।
२४. स्वः स्वं स्वेन स्थितं स्वस्मै, स्वस्मात् स्वस्याविनश्वरम्।
स्वस्मिन् ध्यात्वा लभेत स्वोत्थमानन्दममृतं पदम्॥
आत्मा अपने द्वारा, अपने लिए, अपनी आत्मा से, अपने में स्थित अपनी आत्मा का ध्यान कर, आत्मोत्थित अविनश्वर आनन्दमय अमृतपद को प्राप्त करे।
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१२० : जैन योग के सात ग्रंथ २५. इति स्वतत्त्वं परिभाव्य वाङ्मयं,
य एतदाख्याति शृणोति चादरात्। करोति तस्मै परमार्थसम्पदं, स्वरूपसम्बोधनपंचविंशतिः ॥
यह ‘स्वरूपसम्बोधन' पचीसी उसको परमार्थ-संपद् उपलब्ध कराती है, जो निजात्मस्वरूप का परिशीलन कर इस वाङ्मय का आख्यान करता है और आदर से इसको सुनता है।
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७. ज्ञानसार चयनिका
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संकेतिका
___'ज्ञानसार' ग्रंथ के कर्ता हैं-उपाध्याय श्री यशोविजयजी। इनका जन्म गुजरात के पाटन शहर के पास ‘कानोड़ा' गांव में हुआ। ये विद्वान् मुनि नयविजयजी के पास वि. सं. १६८८ में दीक्षित हुए और वि. सं. १७१८ में उपाध्याय पद प्राप्त किया। पच्चीस वर्ष तक इस पद को सुशोभित कर वि. सं. १७४३ में 'डमोई' (गुजरात) में अनशनपूर्वक समाधिमूत्यु को प्राप्त हुए।
। इन्होंने 'जैन तर्कभाषा', 'स्याद्वादकल्पलता', 'ज्ञानबिन्दु', 'नयप्रदीप', 'नयरहस्य' आदि दार्शनिक ग्रंथों तथा 'ज्ञानसार', 'अध्यात्मसार', 'अध्यात्मोपनिषद्' आदि अध्यात्म-ग्रंथों का प्रणयन किया।
'ज्ञानसार' ग्रंथ बत्तीस अष्टकों में संदब्ध है। प्रत्येक अष्टक भिन्न-भिन्न विषय पर है। हमने इन अष्टकों से श्लोकों का चयन कर 'ज्ञानसार चयनिका' के रूप में प्रस्तुत किया है।
'निर्विकारं निराबाधं, ज्ञानसारमुपेयुषाम्। विनिवृत्तपराशानां, मोक्षोऽत्रैव महात्मनाम्॥'
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७. ज्ञानसार चयनिका
१. पूर्णता या परोपाधेः, सा याचितकमण्डनम्।
या तु स्वाभाविकी सैव, जात्यरत्नविभानिभा॥
पर-वस्तु से प्राप्त पूर्णता मांग कर लाई गई वस्तु से किए गए मंडनक के समान है। स्वभाव से प्राप्त पूर्णता जात्यरत्न की कान्ति के समान है।
अवास्तवी विकल्पैः स्यात्, पूर्णताऽब्धेरिवोर्मिभिः। पूर्णानन्दस्तु भगवान्, स्तिमितोदधिसन्निभः॥ विकल्पों से आत्मा की पूर्णता मानना वैसे ही अवास्तविक है जैसे लहरों से समुद्र की पूर्णता मानना। आत्मा पूर्णानन्दस्वरूप है। वह अथाह समुद्र की भांति अतरंगित है, स्थिर है। ३. अपूर्णः पूर्णतामेति, पूर्यमाणस्तु हीयते।
पूर्णानन्दस्वभावोऽयं, जगदद्भुतदायकः॥
यह आश्चर्यकारी घटना है। जैसे-जैसे आत्मिक सुख की पूर्णता होती है, वैसे-वैसे इन्द्रिय-सुख घटता चला जाता है, क्योंकि आत्मा पूर्णानंद स्वभाव वाला है। ४. प्रत्याहृत्येन्द्रिव्यूह, समाधाय. मनो निजम्।
दधच्चिन्मात्रविश्रांतिर्मग्न- इत्यभिधीयते॥ जो इन्द्रियों को विषयों से हटाकर, अपने मन को समाहित कर, चैतन्य में ही विश्राम करता है, वह मग्न कहलाता है।
स्वभावसुखमग्नस्य, जगत्तत्त्वावलोकिनः। कर्तृत्वं नान्यभावानां, साक्षित्वमवशिष्यते॥
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१२४ : जैन योग के सात ग्रंथ
जो आत्मा स्वभावजन्य सुख में मग्न है, जगत् के तत्त्व का अवलोकन करता है, उसमें आत्मातिरिक्त भावों का कर्तृत्व नहीं होता, केवल साक्षीभाव शेष रहता है।
तेजोलेश्याविवृद्धिर्या, . साधोः पर्यायवृद्धितः। भाषिता भगवत्यादौ, सेत्थंभूतस्य युज्यते॥ संयम-पर्याय की वृद्धि के साथ-साथ मुनि में तेजोलेश्या की भी वृद्धि होती है, यह भगवती आदि आगमों में उल्लिखित है। यह कथन ज्ञानमग्न जीवात्मा के लिए युक्त है।
७. शमशैत्यपुषो यस्य, विप्रुषोऽपि महाकथाः।
किं स्तुमः ज्ञानपीयूषे, तत्र सर्वांगमग्नता॥ उपशम रस की शीतलता को पुष्ट करने वाली ज्ञानामृत की एक बूंद के प्रभाव की भी अनेक कथाएं हैं, तो फिर ज्ञानामृत में सर्वांगमग्नता की स्तुति किन शब्दों में करें ? ८. यस्य दृष्टिः कृपावृष्टिर्गिरः शमसुधाकिरः।
तस्मै नमः शुभज्ञानध्यानमग्नाय योगिने॥ जिसकी दृष्टि कृपा बरसाती है, जिसकी वाणी उपशम-सुधा का विकिरण करती है, उस प्रशस्त ज्ञान-ध्यान मग्न योगी को मेरा नमस्कार हो।
अहं ममेति मंत्रोऽयं, मोहस्य जगदान्ध्यकृत्।
अयमेव हि नव्पूर्वः, प्रतिमन्त्रोऽपि मोहजित्॥ मोह का बीजमंत्र है-'मैं' और 'मेरा'। यह जगत् को अंधा बनाने वाला है। यही नव्पूर्वक होने से मोह का प्रतिरोधक मंत्र बन जाता है अर्थात् 'न मैं हूं' और 'न मेरा है'। यह मोह को जीतने का अमोघ मंत्र है। १०. शुद्धात्मद्रव्यमेवाहं, शुद्धज्ञानं गुणो मम।
नान्योऽहं न ममाऽन्ये, चेत्यदो मोहास्त्रमुल्बणम्॥
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७. ज्ञानसार चयनिका : १२५
'मैं शुद्ध आत्मद्रव्य ही हूं, शुद्धज्ञान केवलज्ञान ही मेरा गुण है। मैं इनसे अन्य नहीं हूं, और न अन्य मेरे हैं' यह चिंतन ही मोह के लिए उत्कट शस्त्र है।
११. यो न मुह्यति लग्नेषु, भावेष्वौदयिकादिषु।
आकाशमिव पंकेन, नाऽसौ पापेन लिप्यते॥
जो जीव में विद्यमान औदयिक आदि भावों में मूढ नहीं होता, वह पापों से लिप्त नहीं होता जैसे आकाश पंक से।
१२. अनारोपसुखं
मोहत्यागादनुभवन्नपि। आरोपप्रियलोकेषु, वक्तुमाश्चर्यवान् भवेत्॥ मोह के परित्याग से योगी आरोपरहित स्वाभाविक सुख का अनुभव करता है, किन्तु आरोपप्रिय लोगों में अपने अनुभव को कहने में आश्चर्य करता है।
१३. निर्वाणपदमप्येकं, भाव्यते यन्मुहुर्मुहुः।
तदेव ज्ञानमुत्कृष्टं, निर्बन्धो नास्ति भूयसा॥
एक भी निर्वाणसाधक पद यदि आत्मा के साथ बार-बार भावित होता है तो वही उत्कृष्ट ज्ञान है। ज्ञान की अधिकता से निर्वाण की प्रतिबद्धता नहीं है।
१४. वादांश्च प्रतिवादांश्च, वन्दतोऽनिश्चितांस्तथा।
तत्त्वान्तं नैव गच्छन्ति, तिलपीलकवद् गतौ॥
वाद और प्रतिवाद यथार्थ नहीं हैं, निरर्थक हैं। वाद-प्रतिवाद करने वाले तत्त्व का पार पाने में वैसे ही असमर्थ हैं, जैसे कोल्हू का बैल अपनी गति (मार्ग) का पार पाने में अक्षम होता है।
१५. अस्ति चेद् ग्रंथिभिज्ज्ञानं, किं चित्रैस्तंत्रयंत्रणैः।
प्रदीपाः क्वोपयुज्यन्ते, तमोघ्नी दृष्टिरेव चेत्॥
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१२६ : जैन योग के सात ग्रंथ
यदि ग्रंथिभेद का ज्ञान है तो फिर नाना प्रकार के शास्त्रों के नियंत्रणों का क्या प्रयोजन ? यदि अंधकार को नष्ट करने वाली दृष्टि पास में है तो फिर दीपक की क्या आवश्यकता ?
रसायनमनौषधम् । ज्ञानमाहुर्मनीषिणः ॥
मनीषी कहते हैं - ज्ञान समुद्र से उत्पन्न न होने पर भी पीयूष है, औषधि न होने पर भी रसायन है और पर - पदार्थ - सापेक्ष न होने पर भी ऐश्वर्य है।
१६.
१७.
विकल्पविषयोत्तीर्णः,
स्वभावालम्बनः सदा ।
ज्ञानस्य परिपाको यः, स शमः परिकीर्तितः ॥
विकल्प और विषयों से शून्य तथा निरन्तर स्वभाव का आलंबन लेने वाली आत्मा के ज्ञान का परिपाक ही शम-उपशम कहलाता है।
आरुरुक्षुर्मुनिर्योगं,
श्रयेद्
बाह्यक्रियामपि । शुद्ध्यत्यन्तर्गतक्रियः ॥
योगारूढः
शमादेव,
योग में आरोहण करने का इच्छुक मुनि बाह्य क्रियाओं का भी आश्रय ले । आभ्यन्तर क्रियाओं से युक्त योगारूढ़ योगी उपशम से ही विशुद्ध हो जाता है।
१८.
पीयूषमसमुद्रोत्थं, अनन्यापेक्षनैश्वर्य,
१९. सरित्सहस्रदुष्पूर
तृप्तिमान्नेन्द्रियग्रामो
२०.
समुद्र का उदर सहस्र नदियों के जल से भी परिपूरित नहीं होता । वैसा ही है इन्द्रिय-समूह जो कभी तृप्त नहीं होता, इसलिए अंतरात्मा से तृप्त बनो ।
समुद्रोदरसोदरः । भव तृप्तोऽन्तरात्मना ॥
गुरुत्वं स्वस्य नोदेति, शिक्षासात्म्येन यावता । आत्मतत्त्वप्रकाशेन तावत् सेव्यो गुरुत्तमः ॥
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७. ज्ञानसार चयनिका : १२७
जब तक शिक्षा को आत्मसात् करने से तथा आत्मस्वरूप के बोध से अपना गुरुत्व प्रगट नहीं होता. तब तक उत्तम गुरु का आश्रय लेना चाहिए।
२१. क्रियाविरहितं हन्त, ज्ञानमात्रमनर्थकम्।
गतिं विना पथज्ञोऽपि, नाप्नोति पुरमीप्सितम्॥ क्रियारहित केवल ज्ञान अनर्थकारी होता है। मार्ग को जानने वाला भी यदि गतिविहीन है तो वह इच्छित नगर को नहीं पा सकता।
२२. गुणवृद्ध्यै ततः कुर्यात्, क्रियामस्खलनाय वा।
एकं तु संयमस्थानं, जिनानामवतिष्ठते॥
गुण की वृद्धि के लिए तथा संयम-स्थान से स्खलित न होने के लिए क्रिया करनी चाहिए। केवल तीर्थंकरों का ही संयम-स्थान अप्रतिपाती होता है।
२३. स्वगुणैरेव
तृप्तिश्चेदाकालमविनश्वरी। ज्ञानिनो विषयैः किं तैभवेत् तृप्तिरित्वरी॥ ज्ञानीजनों को अपने गुणों से ही जीवनपर्यन्त अविनश्वर तृप्ति का अनुभव होता है तो फिर अल्पकालिक तृप्ति देने वाले उन विषयों का क्या प्रयोजन?
२४. या शान्तैकरसास्वादाद, भवेत् तृप्तिरतीन्द्रिया।
सा न जिह्वेन्द्रियद्वारा, षड्रसास्वादनादपि॥ शांतरस के अनुपम रसास्वादन से जो इन्द्रियातीत तृप्ति होती है, वह तृप्ति जिह्वेन्द्रिय के द्वारा षड्सभोजन से भी नहीं होती।
२५. संसारे स्वप्नवन् मिथ्या, तृप्तिः स्यादाभिमानिकी।
तथ्या तु भ्रान्तिशून्यस्य, साऽऽत्मवीर्यविपाककृत्॥
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१२८ : जैन योग के सात ग्रंथ
__संसार में अपनी मान्यता के अनुसार जो तृप्ति मानी जाती है, वह स्वप्न की भांति मिथ्या है। वास्तविक तृप्ति भ्रांतिशून्य व्यक्ति के होती है और वह आत्म-वीर्य को पुष्ट करती है।
२६. पुद्गलैः पुद्गलास्तृप्तिं, यान्त्यात्मा पुनरात्मना।
परतृप्तिसमारोपो, ज्ञानिनस्तन्न युज्यते॥
पुद्गल पुद्गलों से तृप्त होते हैं और आत्मा आत्मा से तृप्त होता है। अतः ज्ञानी को पौद्गलिक तृप्ति में आत्मिक तृप्ति का समारोप नहीं करना चाहिए।
२७. सुखिनो विषयाऽतृप्ता, नेन्द्रोपेन्द्रादयोऽप्यहो।
भिक्षुरेकः सुखी लोके, ज्ञानतृप्तो निरंजनः॥
आश्चर्य है कि विषयों से अतृप्त इन्द्र और उपेन्द्र आदि भी सुखी नहीं हैं। इस संसार में ज्ञान से तृप्त तथा कर्ममल रहित केवल एक साधु ही सुखी है।
२८. संसारे निवसन् स्वार्थसज्जः कज्जलवेश्मनि।
लिप्यते निखिलो लोकः, ज्ञानसिद्धो न लिप्यते॥
कज्जलगृह के समान इस संसार में रहने वाले स्वार्थ-तत्पर समस्त प्राणी कर्मों से लिप्त होते हैं, ज्ञानसिद्ध लिप्त नहीं होता।
२९. नाऽहं पुद्गलभावानां, कर्ता कारयिताऽपि च।
नानुमन्ताऽपि चेत्यात्मज्ञानवान् लिप्यते कथम्? मैं पौद्गलिक भावों का न करने वाला हूं, न कराने वाला हूं और न अनुमोदन करने वाला ही हूं-ऐसा सोचने वाला आत्मज्ञानी कैसे लिप्त हो सकता है?
३०. तपःश्रुतादिना मत्तः, क्रियावानपि लिप्यते।
भावनाज्ञानसंपन्नो, निष्क्रियोऽपि न लिप्यते॥
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७. ज्ञानसार चयनिका : १२९
तप और ज्ञान का मद करने वाला क्रियाशील होने पर भी लिप्त होता है। भावनाज्ञान से सम्पन्न ज्ञानी निष्क्रिय होने पर भी लिप्स नहीं होता।
३१. अलिप्तो निश्चयेनात्मा, लिप्तश्च व्यवहारतः।
शुद्ध्यत्यलिप्तया ज्ञानी, क्रियावान् लिप्तया दृशा॥ निश्चयनय के अनुसार आत्मा अलिप्त है और व्यवहारनय के अनुसार वह लिप्त है। ज्ञानी अलिप्स दृष्टि से शुद्ध होता है और क्रियावान् लिप्त दृष्टि के साथ शुद्धि की यात्रा प्रारंभ करता है।
३२. ज्ञानक्रियासमावेशः, सहैवोन्मीलने द्वयोः। भूमिकाभेदतस्त्वत्र,
भवेदेकैकमुख्यता॥ जब दोनों दृष्टियों का एक साथ उन्मीलन होता है तब ज्ञान और क्रिया की एकता होती है। यहां भूमिका-भेद से दोनों-ज्ञान और क्रिया की मुख्यता होती है।
३३. स्वभावलाभात् किमपि, प्राप्तव्यं नावशिष्यते।
इत्यात्मैश्वर्यसम्पन्नो, निःस्पृहो जायते मुनिः॥ स्वभाव की प्राप्ति हो जाने पर प्रासव्य कुछ भी शेष नहीं रहता। आत्मा के ऐश्वर्य से सम्पन्न मुनि निःस्पृह होता है।
३४. गौरवं पौरवन्धत्वात्, प्रकृष्टत्वं प्रतिष्ठया।
ख्यातिं जातिगुणात् स्वस्य, प्रादुष्कुर्यान्न निस्पृहः॥ निःस्पृह मुनि नगरजनों द्वारा वंदनीय होने के कारण अपने गौरव को, प्रतिष्ठा से प्राप्त अपनी प्रकृष्टता को तथा अपने जातिगुणों से प्राप्त ख्याति को प्रकट न करे।
३५. भूशय्या भैक्षमशनं, जीर्णं वासो गृहं वनम्।
तथापि निःस्पृहस्याहो, चक्रिणोऽप्यधिकं सुखम्॥
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१३० : जैन योग के सात ग्रंथ
निःस्पृह मुनि की शय्या है पृथ्वीतल, भोजन है भिक्षा में प्राप्त अन्न, वस्त्र हैं जीर्ण-शीर्ण और घर है वन। फिर भी आश्चर्य है कि वह चक्रवर्ती से भी अधिक सुखी है।
३६. परस्पृहा महादुःखं, निस्पृहत्वं महासुखम्।
एतदुक्तं समासेन, लक्षणं सुखदुःखयोः॥ 'पर' की स्पृहा महान् दुःख है, निस्पृहा महान् सुख है। सुख और दुःख का यह संक्षेप में लक्षण बताया गया है।
३७. मन्यते यो जगत् तत्त्वं, स मुनिः परिकीर्तितः।
सम्यक्त्वमेव तन्मौनं, मौनं सम्यक्त्वमेव वा॥ जो जगत् के तत्त्व को जानता है, उसे मुनि कहा गया है। सम्यक्त्व ही मौन है और मौन ही सम्यक्त्व है।
३८. आत्माऽऽत्मन्येव यच्छुद्धं, जानात्यात्मानमात्मना।
सेयं रत्नत्रये ज्ञप्तिरुच्याचारैकता मुनेः॥
आत्मा आत्मा में ही आत्मा के द्वारा विशुद्ध आत्मा को जानता है, यही मुनि की रत्नत्रयी में ज्ञान, श्रद्धा और आचार की एकात्मकता है।
३९. यथा शोफस्य पुष्टत्वं, यथा वा वध्यमण्डनम्।
तथा जानन् भवोन्मादमात्मतृप्तो मुनिर्भवत्॥
जैसे सूजन की पृष्टता तथा वध्य पुरुष का मंडन अवास्तविक है, वैसे ही भव का उन्माद अवास्तविक है। यह जानकर मुनि आत्मतृस रहे।
४०. सुलभं वागनुच्चारं, मौनमेकेन्द्रियेष्वपि।
पुद्गलेष्वप्रवृत्तिस्तु, योगानां मौनमुत्तमम्॥ एकेन्द्रिय प्राणियों में भी वाणी का अनुच्चार रूप मौन सुलभ है, किन्तु मन, वचन, काया की पुद्गलों में अप्रवृत्ति ही उत्तम मौन है।
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७. ज्ञानसार चयनिका : १३१
विद्याञ्जनस्पृशा ।
अविद्यातिमिरध्वंसे, दृशा पश्यन्ति परमात्मानं, आत्मन्येव हि योगिनः ।। अविद्यारूपी अंधकार का नाश हो जाने पर योगी विद्या - अंजन से अंजित दृष्टि से आत्मा में ही परमात्मा को देखते हैं ।
४१.
सर्वदा सुलभो
भवे ।
देहात्माद्यविवेकोऽयं, भवकोट्यापि
तद्भेदविवेकस्त्वतिदुर्लभः ॥
देह और आत्मा के अभेद का अविवेक सदा सुलभ है। किन्तु करोड़ों जन्मों के उपरांत भी देह और आत्मा का भेद - विज्ञान अत्यंत दुर्लभ है।
४२.
आत्मन्येवात्मनः कुर्यात्, यः षट्कारकसंगतिम् । क्वाऽविवेकज्वरस्यास्य, वैषम्यं जडमज्जनात् ॥
जो आत्मा में ही आत्मा की छह कारकमयी संगति स्थापित करता है, उसके पुद्गलों में निमग्न होने से उत्पन्न अविवेकरूपी ज्वर की विषमता कैसे संभव होगी ?
४३.
मध्यस्थेनान्तरात्मना ।
स्थीयतानुपालम्भं, कुतर्ककर्करक्षेपैस्त्यज्यतां
बालचापलम् ॥
अंतरात्मा से मध्यस्थ होकर, उपालंभ न आए, इस प्रकार रहो । कुतर्कों के कंकर फेंकने रूप बाल- चापल्य को छोड़ो।
४४.
युक्तिगविं,
मध्यस्थस्यानुधावति ।
मनोवत्सो तामाकर्षति पुच्छेन,
तुच्छाग्रहमनः कपिः ॥
मध्यस्थ व्यक्ति का मनरूपी बछड़ा युक्तिरूपी गाय के पीछे दौड़ता है जबकि मिथ्याग्रही व्यक्ति का मनरूपी बन्दर युक्तिरूपी गाय की पूंछ पकड़कर अपनी ओर खींचता है।
४५.
१. आत्मा ही कर्त्ता है, आत्मा ही कर्म है, आत्मा ही करण है, आत्मा ही संप्रदान है, आत्मा ही अपादान है और आत्मा ही अधिकरण है ।
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१३२ : जैन योग के सात ग्रंथ
४६.
नयेषु
परचालने ।
स्वार्थसत्येषु, मोघेषु समशीलं मनो यस्य स मध्यस्थो महामुनिः ॥ अपने-अपने अभिप्राय में सत्य तथा दूसरों का निराकरण करने में सर्वथा निष्फल - ऐसे नयों में जिसका मन सम-स्वभावी है, वह महामुनि मध्यस्थ होता है।
४७. मनः
स्याद्व्यापृतं यावत्, परदोषगुणग्रहे । कार्यं व्यग्रं वरं तावन् मध्यस्थेनात्मभावने ॥
जब तक मन पर-दोष और पर - गुण ग्रहण करने में व्यापृत है तब तक मध्यस्थ पुरुष को अपना मन आत्म-भावना में व्यग्र करना
श्रेष्ठ है।
४८.
विभिन्ना अपि पन्थानः, समुद्रं सरितामिव । मध्यस्थानां परं ब्रह्म प्राप्नुवन्त्येकमक्षयम् ॥ जैसे विभिन्न मार्गों से आती हुई नदियां समुद्र को प्राप्त हो जाती हैं, वैसे ही विभिन्न मार्गों पर चलनेवाले मध्यस्थ व्यक्ति भी एक और अक्षय परम परमात्मा को प्राप्त हो जाते हैं।
४९.
स्वोगमं
रागमात्रेण,
द्वेषमात्रात्
परागमम् ।
न श्रयामस्त्यजामो वा, किन्तु मध्यस्थया दृशा ।
हम अपने आगमों को रागवश स्वीकार नहीं करते और दूसरों के आगमों का द्वेषवश परित्याग नहीं करते, किन्तु मध्यस्थदृष्टि से उनका स्वीकार या परित्याग करते हैं।
५०. यस्य नास्ति
परापेक्षा, स्वभावाद्वैतगामिनः ।
तस्य किं न भयभ्रान्तिक्लान्तिसन्तानतानवम् ॥
जिसे दूसरे की अपेक्षा नहीं है और जो स्वभाव के अद्वैत को प्राप्त करनेवाला है, उसके भय की भ्रांति से उत्पन्न क्लान्ति की परंपरा की प्रतनुता क्यों नहीं होगी ?
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७. ज्ञानसार चयनिका : १३३
५१. न गोप्यं क्वापि नारोप्यं, हेयं देयं च न क्वचित्।
क्व भयेन मुनेः स्थेयं, ज्ञेयं ज्ञानेन पश्यतः॥
जो मुनि ज्ञान से ज्ञेय को देखता है, उसके लिए कहीं कोई गोपनीय, आरोप करने योग अथवा हेय और उपादेय भी नहीं है। फिर वहां भय कहां टिक पाएगा? ५२. मयूरी ज्ञानदृष्टिश्चेत्, प्रसर्पति मनोवने।
वेष्टनं भयसर्पाणां, न तदानन्दचन्दने॥ यदि ज्ञानदृष्टिरूपी मयूरी मनोवन में घूमती रहती है, तो आनन्दरूपी चंदनवृक्ष पर भयरूपी सों का आवेष्टन नहीं रह सकता।
५३. चित्ते परिणतं यस्य, चारित्रमकुतोभयम्।
अखण्डज्ञानराज्यस्य, तस्य साधोः कुतो भयम्॥ जिसके चित्त में अभयरूपी चारित्र परिणत हो गया है, उस अखंड ज्ञानराज्य के अधिपति साधु को भय कैसा?
५४. गुणैर्यदि न पूर्णोऽसि, कृतमात्मप्रशंसया।
गुणैरेवासि पूर्णश्चेत्, कृतमात्मप्रशंसया॥
यदि तुम गुणों से परिपूर्ण नहीं हो तो आत्मप्रशंसा से क्या? यदि तुम गुणों से परिपूर्ण हो तो आत्मप्रशंसा से क्या? ५५. आलंबिता हिताय स्युः, परैः स्वगुणरश्मयः। ____ अहो! स्वयं गृहीतास्तु, पातयन्ति भवोदधौ॥
दूसरे यदि तुम्हारे गुणरूपी रस्सी का आलंबन लेते हैं तो वह उनके लिए हितावह है लेकिन आश्चर्य है कि व्यक्ति यदि स्वयं अपने गुणरूपी रस्सी को थामता है तो वह उसे भवसिन्धु में गिरा देती है। ५६. रूपे रूपवती दृष्टिदृष्ट्वा रूपं विमुह्यति।
मज्जत्यात्मनि नीरूपे, तत्त्वदृष्टिस्त्वरूपिणी॥ रूपवती दृष्टि रूप को देखकर रूप में विमूढ़ बन जाती है। रूपरहित तत्त्वदृष्टि रूपरहित आत्मा में लीन हो जाती है।
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१३४ : जैन योग के सात ग्रंथ ५७. ग्रामारामादि मोहाय, यद् दृष्टं बाह्यया दृशा।
तत्त्वदृष्ट्या तदेवान्तर्-नीतं वैराग्यसंपदे॥ बाह्यदृष्टि से देखे गए गांव, बगीचे आदि मोह के कारण बनते हैं। तत्त्वदृष्टि से उनकी आंतरिक मीमांसा कर उनको आत्मा में उतारते हैं तब वे वैराग्य की संपदा के लिए होते हैं।
५८. भस्मना केशलोचेन, वपु¥तमलेन वा।
महान्तं बाह्यदृग् वेत्ति, चित्साम्राज्येन तत्त्ववित्॥
बाह्यदृष्टि मनुष्य शरीर पर राख लगाने वाले, केशलोच करने वाले अथवा शरीर पर मैल धारण करनेवाले को महान् समझता है, किन्तु तत्त्व-दृष्टि मनुष्य ज्ञानगरिमा से संपन्न व्यक्ति को महान् मानता है।
५९. बाह्यदृष्टिप्रचारेषु, मुद्रितेषु महात्मनः।
अन्तरेवावभासन्ते, स्फुटाः सर्वाः समृद्धयः॥ जब बाह्य दृष्टि की प्रवृत्तियां बंद हो जाती हैं तब महात्माओं को भीतर में ही सारी संपदाओं का स्फुट दर्शन हो जाता है।
६०. या सृष्टिब्रह्मणो बाह्या, बाह्यापेक्षावलम्बिनी।
मुनेः परानपेक्षाऽन्तर्गुणसृष्टिः ततोऽधिका॥ __ब्रह्म की सृष्टि बाह्य है और बाह्य कारणों की अपेक्षा रखने वाली है। मुनि की आंतरिक गुण-सृष्टि परापेक्ष नहीं है तथा उस (बाह्यसृष्टि) से अधिक श्रेष्ठ है।
६१. दुःखं प्राप्य न दीनं स्यात्, सुखं प्राप्य च विस्मितः।
मुनिः कर्मविपाकस्य, जानन् परवशं जगत्॥ मुनि जानता है कि सारा जगत् कर्म-विपाक के अधीन है। इसलिए वह दुःख पाकर दीन नहीं होता और सुख पाकर विस्मितप्रसन्न नहीं होता।
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७. ज्ञानसार चयनिका : १३५
६२. येषां भ्रूभंगमात्रेण, भज्यन्ते पर्वता अपि।
तैरहो कर्मवैषम्ये, भूपैर्भिक्षाऽपि नाप्यते॥ जिनकी भृकुटी तनने मात्र से पर्वत भी चूर-चूर हो जाते हैं, ऐसे राजाओं को कर्म की विषमता होने पर भिक्षा भी नहीं मिलती, कितना आश्चर्य! ६३. विषमा कर्मणः सृष्टिः, दृष्टा करभपृष्ठवत्।
जात्यादिभूतिवैषम्यात्, का रतिस्तत्र योगिनः॥ कर्मों की यह सृष्टि जाति आदि की उत्पत्ति की विषमता के कारण ऊंट के पीठ की भांति वक्र है, विषम है। ऐसी विषम सृष्टि में योगी को रति कैसे हो? ६४. आरूढाः प्रशमश्रेणिं, श्रुतकेवलिनोऽपि च।
भ्राम्यन्तेऽनन्तसंसारमहो दुष्टेन कर्मणा॥ यह आश्चर्य है कि उपशम श्रेणी पर आरूढ़ चौदह पूर्वधरों को भी दुष्ट कर्म अनंत संसार में भटका देते हैं।
६५. तैलपात्रधरो यद्वद्, राधावेधोद्यतो यथा।
क्रियास्वनन्यचित्तः स्याद्, भवभीतस्तथा मुनिः॥ जिस प्रकार तैलपात्र धारण करने वाला तथा राधावेध साधने वाला व्यक्ति अपनी क्रिया में अनन्यचित्त होता है, वैसे ही भवभ्रमण से भयभीत मुनि अपनी संयम-क्रियाओं में दत्तचित्त होता है।
६६. विषं विषस्य वन्हेश्च, वन्हिरेव यदौषधम्।
तत्सत्यं भवभीतानामुपसर्गेऽपि यन्न भीः॥ विष की औषधि है विष और अग्नि की औषधि है अग्नि। इसलिए यह सच है कि जो भव-भ्रमण से भीत हैं, उन्हें उपसर्गों से भय नहीं होता। ६७. लोकसंज्ञामहानद्यानुस्रोतोऽनुगा न के॥
प्रतिस्रोतोऽनुगस्त्वेको, राजहंसो महामुनिः।
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१३६ : जैन योग के सात ग्रंथ
लोकसंज्ञारूपी महानदी के अनुस्रोत में बहने वाले कौन नहीं हैं ? किन्तु प्रतिस्रोत में बहने वाले तो केवल राजहंस जैसे एक महामुनि ही होते हैं। ६८. श्रेयोऽर्थिनो हि भूयांसो, लोके लोकोत्तरे न च।
स्तोका हि रत्नवणिजः, स्तोकाश्च स्वात्मसाधकाः॥
लौकिक और लोकोत्तर-दोनों मार्गों में मोक्षार्थियों की संस्था न्यून ही है। जैसे रत्नवणिक् कम होते हैं, वैसे ही अपनी आत्मा की साधना करने वाले साधक भी कम होते हैं।
६९. चर्मचक्षुभृतः सर्वे, देवाश्चावधिचक्षुषः।
सर्वतश्चक्षुषः सिद्धाः, साधवः शास्त्रचक्षुषः॥
सभी प्राणी चर्मचक्षु वाले हैं। देवता अवधिज्ञानरूपी चक्षु से संपन्न हैं, सिद्ध सर्वतः चक्षु हैं और साधु शास्त्ररूपीचक्षु वाले हैं। ७०. शासनात् त्राणशक्तेश्च, बुधैः शास्त्रं निरुच्यते।
वचनं वीतरागस्य, तत्तु नान्यस्य कस्यचित्॥
जिसमें शासन की और त्राण की शक्ति हो, वह शास्त्र है। यह निर्वचन विद्वानों द्वारा सम्मत है। वह (शासन और त्राण की) शक्ति वीतराग के वचन में ही होती है, इसलिए वही शास्त्र हो सकता है, अन्य पुरुष का वचन शास्त्र नहीं हो सकता। ७१. अदृष्टार्थेऽनुधावन्तः, शास्त्रदीपं विना जड़ाः।
प्राप्नुवन्ति परं खेदं, प्रस्खलन्तः पदे पदे॥
अज्ञानी शास्त्रदीप के बिना अदृष्ट के पीछे दौड़ते हुए पग-पग पर स्खलित होते हैं तथा अत्यधिक कष्ट पाते हैं। ७२. अज्ञानाहिमहामन्त्रं, स्वाच्छन्द्यज्वरलंघनम्।।
धर्मारामसुधाकुल्यां, शास्त्रमाहुमहर्षयः॥
महर्षियों ने शास्त्र को अज्ञानरूपी सर्प-विष के लिए महामंत्र, स्वच्छन्दता ज्वर के निवारण के लिए लंघन तथा धर्मरूपी उद्यान में अमृत की नहर के समान माना है।
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७३.
शास्त्रोक्त आचार का पालन करने वाला, शास्त्रों का ज्ञाता, शास्त्रों का उपदेशक तथा शास्त्र में ही दृष्टि रखने वाला महायोगी परम पद - मोक्ष को पा लेता है।
७४.
परिग्रहम् ।
जगत्त्रयी ॥
जो बाह्य और आभ्यन्तर - दोनों प्रकार के परिग्रह को तृण की भांति छोड़कर उदासीन रहता है, उसके चरणकमल की सेवा तीन लोक करता है।
७५.
शास्त्रोक्ताचारकर्त्ता च शास्त्रज्ञः शास्त्रदेशकः । शास्त्रैकदृग् महायोगी, प्राप्नोति परमं पदम्॥
७. ज्ञानसार चयनिका : १३७
मूर्च्छामुक्तस्य
योगिनः ।
का
पुद्गलनियन्त्रणा ?
जिसने पुत्र, पत्नी आदि को त्याग दिया है, जो मूर्च्छा से मुक्त है तथा जो ज्ञानमात्र से प्रतिबद्ध है, ऐसे योगी के पुद्गलों का नियंत्रण कैसा ?
७६.
यस्त्यक्त्वा तृणवद् बाह्यमान्तरं च उदास्ते तत्पदांभोजं, पर्युपास्ते
७७.
त्यक्तपुत्रकलत्रस्य, चिन्मात्रप्रतिबद्धस्य,
सर्वं,
जगदेव परिग्रहः ।
जगदेवाऽपरिग्रहः ॥
मूर्च्छाछन्नधियां मूर्च्छया रहितानां तु, जिनकी बुद्धि मूर्च्छा से आच्छादित है, उनके लिए सारा जगत् परिग्रह है और जो मूर्च्छा से रहित हैं, उनके लिए यह सारा जगत् ही अपरिग्रह है।
सन्ध्येव दिनरात्रिभ्यां
बुधैरनुभवो दृष्टः,
जिस प्रकार दिन और रात से संध्या पृथक् है, उसी प्रकार ज्ञानी पुरुषों ने केवलज्ञान और श्रुतज्ञान से भिन्न केवलज्ञानरूपी सूर्योदय से पूर्व होनेवाले अरुणोदय के समान अनुभव की प्रतीति की है।
केवलश्रुतयोः पृथक् ।
केवलार्कारुणोदयः ॥
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१३८ : जैन योग के सात ग्रंथ
७८. व्यापारः सर्वशास्त्राणां, दिक्प्रदर्शनमेव हि।
पारं तु प्रापयत्येकोऽनुभवो भववारिधेः॥
सभी शास्त्रों की प्रवृत्ति दिशा दिखाना मात्र है। केवल एक अनुभव ही संसार-समुद्र से पार लगा सकता है। ७९. अतीन्द्रियं परं ब्रह्म, विशुद्धानुभवं विना।
शास्त्रयुक्तिशतेनापि, न गम्यं यद् बुधा जगुः॥ ___ ज्ञानियों ने कहा है कि परम ब्रह्म-आत्मा अतीन्द्रिय है। वह विशुद्ध अनुभव के बिना शास्त्रों की सैकड़ों युक्तियों से भी नहीं जाना जा सकता। ८०. ज्ञायेरन् हेतुवादेन, पदार्था यद्यतीन्द्रियाः।
कालेनैतावता प्राज्ञैः, कृतः स्यात् तेषु निश्चयः॥
यदि हेतुवाद से अतीन्द्रिय पदार्थ जान लिए जाते तो पंडित लोग इतने समय में उनका निश्चय कर लेते।
८१. केषां न कल्पनादर्वी, शास्त्रक्षीरान्नगाहिनी।
विरलास्तद्रसास्वादविदोऽनुभवजिह्वया ॥ किनकी कल्पना-दर्वी शास्त्ररूपी क्षीरान्न में प्रवेश नहीं करती? लेकिन अनुभव की जिह्वा से उसका रसास्वादन करने वाले विरले ही होते हैं।
८२. पश्यतु ब्रह्म निर्द्धन्द्धं, निर्द्वन्द्वानुभवं बिना।
कथं लिपिमयी दृष्टिाङ्मयी वा मनोमयी॥ ब्रह्म-आत्मा निर्द्वन्द्व है। उसे निर्द्वन्द्व अनुभव के बिना नहीं जाना जा सकता। लिपिमयी, वाङ्मयी अथवा मनोमयी दृष्टि से उसे कैसे देखा जा सकता है?
८३. अधिगत्याऽखिलं शब्दब्रह्म शास्त्रदृशा मुनिः।
स्वसंवेद्यं परं ब्रह्मानुभवेनाधिगच्छति॥
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७. ज्ञानसार चयनिका : १३९ मुनि शास्त्रदृष्टि से समस्त शब्दब्रह्म को अवगत कर, अपने अनुभव से स्वसंवेद्य परम ब्रह्म को जान लेता है।
८४. मोक्षेण योजनाद् योगः, सर्वोप्याचार इष्यते।
विशिष्य स्थानवार्थालम्बनैकाग्रयगोचरः॥
मोक्ष के साथ योजित करने के कारण समस्त आचार 'योग' कहलाता है। उस योग के पांच प्रकार हैं-स्थान (आसन), वर्ण अर्थज्ञान, आलंबन तथा एकाग्रता।
८५. ध्याता ध्येयं तथा ध्यानं, त्रयं यस्यैकतां गतम्।
मुनेरनन्यचित्तस्य, तस्य दुःखं न विद्यते॥ जिस अनन्यचित्त वाले मुनि को ध्याता, ध्येय और ध्यान-इन तीनों की एकता प्राप्त है, उसके दुःख नहीं होता।
८६. ध्यातान्तरात्मा ध्येयस्तु, परमात्मा प्रकीर्तितः।
ध्यानं चैकाग्र्यसंवित्तिः, समापत्तिस्तदेकता॥ ध्याता है-अंतरात्मा, ध्येय है-परमात्मा और ध्यान है-एकाग्रता की संवित्ति। इन तीनों की एकता ही समापत्ति है।
८७. मणाविव प्रतिच्छाया, समापत्तिः परमात्मनः।
क्षीणवृत्तौ भवेद् ध्यानादन्तरात्मनि निर्मले॥
मणि में जैसे प्रतिबिम्ब उभरता है वैसे ही क्षीणवृत्ति वाले निर्मल अंतरात्मा में ध्यान से परमात्मा का प्रतिबिंब उभरता है। यही समापत्ति है। ८८. आपत्तिश्च ततः पुण्यतीर्थकृत्कर्मबन्धतः।
तद्भावाभिमुखत्वेन, संपत्तिश्च क्रमाद् भवेत्॥
समापत्ति के पश्चात् पुण्य प्रकृति स्वरूप तीर्थंकर नामकर्म का उपार्जन होता है, यही आपत्ति है। तीर्थंकर के अभिमुखत्व से क्रमशः आत्मिक संपत्ति का लाभ होता है।
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१४० : जैन योग के सात ग्रंथ
८९.
९०.
९१.
जितेन्द्रियस्य धीरस्य, प्रशान्तस्य स्थिरात्मनः । सुखासनस्थस्य नासाग्रन्यस्तनेत्रस्य योगिनः ॥
रुद्धबाह्यमनोवृत्तेर्धारणाधारया
प्रसन्नस्याऽप्रमत्तस्य,
साम्राज्यमप्रतिद्वन्द्वमन्तरेव ध्यानिनो नोपमा लोके
वितन्वतः ।
सदेवमनुजेऽपि हि ॥
(त्रिभिर्विशेषकम् ) जो जितेन्द्रिय, धीर, प्रशान्त और स्थिरात्मा है, जो सुखासन में स्थित है, जिसकी दृष्टि नासाग्र पर स्थित है, जो योगी है, जिसने धारणा की धार से बाह्य मनोवृत्ति को शीघ्र ही रोक लिया है, जो प्रसन्नचित्त है, जो अप्रमत्त है, जो चिदानन्द के अमृत का आस्वाद लेता है, जो अन्तर में प्रतिद्वन्द्वरहित चक्रवर्तित्व का विस्तार करता है, ऐसे ध्यानी को उपमित करने के लिए देवलोक सहित मनुष्यलोक में भी कोई उपमा नहीं है।
९२.
९४.
रयात् ।
चिदानन्दसुधालिहः ॥
ज्ञानमेव बुधाः प्राहुः, कर्मणां तापनात् तपः । तदाभ्यन्तरमेवेष्टं, बाह्यं तदुपबृंहकम् ॥ पंडितों का कहना है कि कर्मों को तपाने के कारण तप ज्ञान ही है। तप के दो भेद हैं- बाह्य और आभ्यन्तर । आभ्यन्तर तप ही इष्ट है। बाह्य तप उसका उपबृंहण करनेवाला है।
९३.
सुखशीलता ।
परमं
तपः॥
अज्ञानी की अनुस्रोत में बहने की वृत्ति सुखशीलता है तथा ज्ञानी की प्रतिस्रोत में बहने की वृत्ति परम तप है।
सदुपायप्रवृत्तानामुपेयमधुरत्वतः नित्यमानन्दवृद्धिरेव
ज्ञानिनां
तपस्विनाम्॥
सद् उपाय में प्रवृत्त ज्ञानी और तपस्वियों के उपेय- मोक्षरूप साध्य की मिठास से नित्य आनंद की वृद्धि ही होती रहती है ।
वृत्तिर्बालानां
आनुस्रोतसिकी प्रातिस्रोतसिकी वृत्तिर्ज्ञानिनां
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७. ज्ञानसार चयनिका : १४१
९५. यत्र ब्रह्म जिनार्चा च, कषायाणां तथा हतिः।
सानुबन्धा जिनाज्ञा च, तत् तपः शुद्धमिष्यते॥ _ जहां ब्रह्मचर्य, जिन-अर्चा, कषायों की क्षति और अनुबंध सहित जिनाज्ञा हो, वह शुद्ध तप माना जाता है। ९६. तदेव हि तपः कार्य, दुर्व्यानं यत्र नो भवेत्।
येन योगा न हीयन्ते, क्षीयन्ते नेन्द्रियाणि च॥ वही तप करणीय है जिसमें दुर्ध्यान न हो, मन-वचन और काया के योगों की हानि न हो तथा इन्द्रियों की क्षीणता न हो। ९७. धावन्तोऽपि नयाः सर्वे, स्युर्भावे कृतविश्रमाः।
चारित्रगुणलीनः स्यादिति सर्वनयाश्रितः।।
अपने अपने अभिप्राय के अनुसार गतिमान् सभी नय वस्तुस्वभाव में स्थिर हो जाते हैं। चारित्रगुण में लीन मुनि सभी नयों का आश्रय लेता है। ९८. लोके सर्वनयज्ञानां, ताटस्थ्यं वाप्यनुग्रहः। __ स्यात् पृथग्नयमूढानां, स्मयार्तिर्वाऽतिविग्रहः॥
जो सभी नयों का ज्ञाता है उसीमें मध्यस्थता तथा अनुग्रह की बुद्धि होती है। जो विभिन्न नयों में मूढ होते हैं, वे अभिमान की पीड़ा से पीड़ित अथवा अति विग्रह से व्यथित होते हैं। ९९. निश्चये व्यवहारे च, त्यक्त्वा ज्ञाने च कर्मणि।
एकपाक्षिकविश्लेषमारूढाः शुद्धभूमिकाम्॥ १००. अमूढलक्ष्याः सर्वत्र पक्षपातविवर्जिताः। जयन्ति परमानन्दमयाः सर्वनयाश्रयाः॥
(युग्मम्) निश्चयनय, व्यवहारनय, ज्ञाननय तथा कर्मनय-इनका एकपाक्षिक स्वीकार को छोड़कर तथा शुद्ध भूमिका में आरूढ़ होकर, अमूढलक्ष्यी तथा सर्वत्र पक्षपात रहित मुनि सर्वनयों का आश्रय लेकर परमानन्दमय होकर जयवन्त होते हैं।
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________________ कारण पमाक्खा विज्जा चर 'जैन विश्व गरती लाडनू जैन विश्व भारती लाडनूं (राज.)