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५. इष्टोपदेश : १०३ १०. विराधकः कथं हन्त्रे, जनाय परिकुप्यति।
त्र्यङ्गलं पातयन् पद्भ्यां, स्वयं दण्डेन पात्यते॥
अपकार करनेवाला व्यक्ति हता-प्रत्यपकार करने वाले पर क्यों कुपित होता है। जो व्यक्ति 'व्यंगुल' यंत्र को पैरों से भूमि पर गिराता है, यंत्र का डंडा स्वयं उसको भूमी पर गिरा देता है।
११. रागद्वेषद्वयीदीर्घनत्राकर्षणकर्मणा
अज्ञानात् सुचिरं जीवं, संसाराब्धौ भ्रमत्यसौ॥ यह जीव अज्ञानवश राग-द्वेषरूपी दो लंबी डोरियों की खींचातानी से इस संसार-समुद्र में दीर्घकाल तक घूमता रहता है, गोते लगाते रहता है।
१२. विपद्भवपदावर्ते,
पदिकेवातिवाह्यते। यावत्तावद् भवत्यन्याः, प्रचुरा विपदः पुरः॥
यह संसार एक घटीयंत्र की भांति है। घटीयंत्र द्वारा जब पानी से भरी हुई एक 'पारी' रिक्त होती है, तब तक दूसरी ‘पारी' पानी से भर जाती है। इसी प्रकार संसार में व्यक्ति एक विपत्ति को भुगत कर पार करता है, उसी समय अन्यान्य प्रचुर विपत्तियां सामने आ उपस्थित हो जाती हैं।
१३. दुर]नासुरक्ष्येण, नश्वरेण धनादिना।
स्वस्थंमन्यो जनः कोऽपि, ज्वरवानिव सर्पिषा।।
धन आदि पदार्थ कष्ट से उपार्जित, असुरक्ष्य तथा नश्वरशील होते हैं। उनसे जो अपने आपको सुखी मानता है, वह वैसा ही मूर्ख है जैसा कोई ज्वरग्रस्त व्यक्ति घी का सेवन कर स्वयं को स्वस्थ मानता है।
१. तीन अंगुलियों के आकार का कूडा-करकट समेटने का यंत्र विशेष। यह एक
डंडे से संचालित होता है।
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