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१०२ : जैन योग के सात ग्रंथ
हृषीकजमनातकं, दीर्घकालोपलालितम्। नाके नाकौकसां सौख्यं, नाके नाकोकसामिव॥
स्वर्ग में देवताओं का इन्द्रियजन्य सुख आतंकरहित तथा दीर्घकालिक होता है। स्वर्ग में देवों का सुख स्वर्ग में देवों के सुखों के समान होता है।
६. वासनामात्रमेवैतत् सुखं दुःखं च देहिनाम्।
तथा ह्युटेजयन्त्येते, भोगा रोगा इवापदि॥ प्राणियों का सुख-दुःख केवल वासना-संस्कारजन्य होता है। ये भोग आपात्काल में रोगों की भांति उदविग्न करते हैं।
७. मोहेन संवृतं ज्ञानं, स्वभावं लभते न हि।
मत्तः पुमान् पदार्थानां, यथा मदनकोद्रवैः॥
मोह से आच्छादित ज्ञान वैसे ही स्वभाव-वास्तविक स्वरूप को नहीं जान सकता जैसे मदकारक कोद्रव धान्य खाने वाला व्यक्ति पदार्थों का यथार्थ परिच्छेद नहीं कर पाता। ८. वपुर्गृहं धनं दारा, पुत्रा मित्राणि शत्रवः।
सर्वथान्यस्वभावानि, मूढः स्वानि प्रपद्यते॥
शरीर, घर, धन, स्त्री, पुत्र, मित्र, शत्रु-ये सब सर्वथा अन्य स्वभाव वाले हैं-आत्मेतर स्वरूप वाले हैं। किन्तु मोह से मूढ व्यक्ति इन सबको आत्मीय मानता है। ९. दिग्देशेभ्यः खगा एत्य, संवसन्ति नगे नगे।
स्वस्वकार्यवशाधान्ति, देशे दिक्षु प्रगे प्रगे॥ भिन्न-भिन्न दिशाओं और क्षेत्रों से आकर पक्षीगण विभिन्न वृक्षों पर रेनबसेरा करते हैं और प्रातःकाल होने पर अपने अपने प्रयोजन से भिन्न-भिन्न दिशाओं और क्षेत्रों की ओर उड़ जाते हैं। १. इसका तात्पर्य है कि देवताओं का सुख अनन्योपम होता है। उसे उपमा से
नहीं समझाया जा सकता। राम-रावण का युद्ध कैसा था? पूछने पर कहा जाता है-'रामरावणयोयुद्धं रामरावणयोरिव।'
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