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५. इष्टोपदेश
१.
यस्य स्वयं स्वभावाप्तितरभावे कृत्स्नकर्मणः।
तस्मै संज्ञानरूपाय, नमोऽस्तु परमात्माने॥ संपूर्ण कर्मों के सर्वथा अभाव से जिसको स्वभाव-आत्म-स्वरूप की प्राप्ति हो गई है, उस चेतनस्वरूप परमात्मा-सिद्ध को नमस्कार हो।
योग्योपादानयोगेन, दृषदः स्वर्णता मता। द्रव्यादिस्वादिसंपत्तावात्मनोप्यात्ममता मता॥ योग्य कारणों का योग मिलने पर पाषाण में विद्यमान स्वर्ण प्रगट हो जाता है। उसी प्रकार स्वद्रव्य, स्वक्षेत्र, स्वकाल और स्वभाव की संपत्ति से जीव का आत्म-स्वरूप प्रगट हो जाता है।
३. वरं व्रतैः पदं दैवं, नाव्रतैर्वत नारकम्।
छायातपस्थयोर्भेदः, प्रतिपालयतोर्महान्॥ व्रतों के द्वारा देवपद प्राप्त करना अच्छा है, किन्तु अव्रतों के द्वारा नरकपद पाना अच्छा नहीं है। जैसे छाया और धूप में प्रतीक्षारत दो व्यक्तियों की सुखानुभूति में महान् भेद होता है, वैसे ही व्रत अव्रत के पालन करने वालों में महान् भेद होता है। ४. यत्र भावः शिवं दत्ते, द्यौः कियद् दूरवर्तिनी।
यो नयत्याशु गव्यूति, क्रोशार्धे किं स सीदति?
जो आत्म-परिणाम मोक्ष का प्रदाता है, उस आत्म-परिणाम के लिए स्वर्ग कितना दूर है? जो भारवाहक अपने भार को दो कोस तक शीघ्रता से ले जा सकता है, क्या वह अपने भार को आधा कोस ले जाते हुए खिन्न होगा?
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