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७० : जैन योग के सात ग्रंथ क्रम के विपर्यास से (सत्वों के प्रति प्रमोद, गुणाधिकों के प्रति करुणा आदि से) असमंजसता पैदा हो जाती है और वह न्याय-विरुद्ध है। अस्थान विनियोग मिथ्या भावनात्मक होता है और वह प्रत्यवाय पैदा करता है।
८१. साहारणो पुण विही सुक्काहारो इमस्स विण्णेओ।
अण्णत्थओ य एसो उ सव्वसंपक्करी भिक्खा॥ वणलेवोवम्मेणं उचियत्तं तग्गयं निओएणं। एत्थं अवेक्खियव्वं इहराऽयोगो त्ति दोसफलो॥
____ (युग्मम्) योग की समस्त अवस्थाओं में यह सामान्य विधि है कि साधक का आहार शुक्ल हो। अन्वर्थतः शुक्लाहार ही सर्वसंपत्करी भिक्षा है।
भिक्षा व्रणलेप सदृश है। व्रणलेप की उपमा के अनुसार आहार का औचित्य अवश्य जानना चाहिए। अन्यथा, आहार का योग दोषप्रद हो जाता है। व्रण अनेक प्रकार के होते हैं। कुछ व्रणों पर नीम और तिलों का लेप किया जाता है। वैसे ही कुछ साधकों का शरीर कोद्रव धान्य के लिए उचित, कुछ का शरीर चावलों के लिए उचित और कुछ का शरीर घी आदि गरिष्ठ पदार्थोचित होता है। इनमें विपर्यास करने से भी हानि होती है।
८३. जोगाणुभावओ च्चिय पायं ण य सोहणस्स वि अलाभो।
लद्धीण वि संपत्ती इमस्स जं वण्णिया समए। योगजशक्ति के कारण प्रायः विशिष्ट आहार की प्राप्ति होने में कोई बाधा नहीं आती। सिद्धांत के अनुसार ऐसे योगी को अन्यान्य लब्धियों की प्राप्ति भी होती है।
१. सुक्काहारो-इसके दो संस्कृत रूप बनते हैं-शुष्काहार और शुक्लाहार।
स्वोपज्ञ वृत्ति में शुक्लाहार है। शुद्ध अनुष्ठान के लिए योग्य, शुद्ध अनुष्ठान का हेत और जो स्वरूप-शब्द है वह शक्ल आहार है।
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