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________________ ४६ : जैन योग के सात ग्रंथ भवस्थ सयोगी या अयोगी केवली के चित्त का अभाव होने पर भी जीव का उपयोग रहता ही है। अतः उनमें शुक्लध्यान के सूक्ष्म और उपरत-क्रिया-ये दो अंतिम प्रकार होते हैं। उनमें ध्यान का अस्तित्व मानने के चार हेतु ये हैं१. जीव के पूर्व प्रयोग के कारण। २. कर्मों की निर्जरा के कारण। ३. शब्द के अनेक अर्थों के कारण। ४. आगमिक साक्षी के कारण। ८७. सुक्कज्झाणसुभाविअचित्तो चिंतेइ झाणविगमेऽवि। णिययमणुप्पेहाओ चत्तारि चरित्तसंपन्नो॥ ८८. आसवरदारावाए तह संसारासुहाणुभावं च। भवसंताणमणंतं वत्थूणं विपरिणामं च॥ (युग्मम्) शुक्लध्यान से सुभावित चित्तवाला चारित्रसम्पन्न मुनि ध्यान से उपरत होने पर भी सदा चारों अनुप्रेक्षाओं का चिंतन करता है। वे ये हैं १. आस्रवों के अपाय का चिंतन। २. संसार के अशुभ अनुभाव का चिंतन। ३. भवसंतति की अनन्तता का चिंतन। ४. वस्तुओं के विपरिणाम का चिंतन। ८९. सुक्काए लेसाए दो ततियं परमसुक्कलेस्साए। थिरयाजियसेलेसिं लेसाईयं परमसुक्कं॥ शुक्लध्यान केवक पहले दो प्रकारों में शुक्ललेश्या और तीसरे प्रकार में परमशुक्ललेश्या होती है। चतुर्थ प्रकार लेश्यातीत होता है। वह स्थिरता से शैलेश को जीतनेवाला अर्थात् मेरु पर्वत से भी निष्प्रकम्पतर होने के कारण परमशुक्ल होता है। ९०. अवहाऽसंमोहविवेगविउसग्गा तस्स होति लिंगाई। लिंगिज्जइ जेहिं मुणी सुक्कज्झाणोवगयचित्तो॥ ९१. चालिज्जइ बीभेइ य धीरो न परीसहोवसग्गेहि। सुहुमेसु न संमुज्झइ भावेसु न देवमायासु॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003079
Book TitleJain Yoga ke Sat Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages158
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size5 MB
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