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________________ ८४ : जैन योग के सात ग्रंथ 'आत्मा भिन्न है और शरीर भिन्न है' इस भेदविज्ञान से उत्पन्न आह्लाद से परिपूर्ण साधक तपस्या में घोर कर्म-विपाकों को भोगता हुआ भी खिन्न नहीं होता। ३५. रागद्वेषादिकल्लोलैरलोलं यन्मनोजलम्। स पश्यत्यात्मनस्तत्त्वं, तत् तत्त्वं नेतरो जनः॥ राग-द्वेष आदि तरंगों से जिसका मनोजल क्षुब्ध नहीं होता, चंचल नहीं होता, वह आत्मतत्त्व का साक्षात्कार कर लेता है। अस्थिर साधक उस आत्मतत्त्व का साक्षात्कार नहीं कर सकता। ३६. अविक्षिप्तं मनस्तत्त्वं, विक्षिप्तं भ्रान्तिरात्मनः। धारयेत् तदविक्षिप्त, विक्षिप्तं नाश्रयेत् ततः॥ अविक्षिप्त मन ही आत्मा है और विक्षिप्त मन आत्म-भ्रांति है। इसलिए साधक अविक्षिप्त मन को धारण करे, विक्षिप्त मन का आश्रय न ले। ३७. अविद्याभ्याससंस्कारैरवशं क्षिप्यते मनः। तदेव ज्ञानसंस्कारैः, स्वतस्तत्त्वेऽवतिष्ठते॥ अविद्या के अभ्यास से उत्पन्न संस्कारों के द्वारा मन वश में न रहकर विक्षिप्त हो जाता है। वही मन भेदविज्ञान के संस्कारों से आत्मा में अवस्थित हो जाता है। ३८. अपमानादयस्तस्य, विक्षेपो यस्य चेतसः। नापमानादयस्तस्य, न क्षेपो यस्य चेतसः॥ जिसका मन विक्षिप्त है, उसी के लिए अपमान आदि होते हैं। जिसका मन विक्षिप्त नहीं है, उसके लिए अपमान आदि नहीं होते। ३९. यदा मोहात् प्रजायेते, रागद्वेषौ तपस्विनः। तदैव भावयेत् स्वस्थमात्मानं शाम्यतः क्षणात्॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003079
Book TitleJain Yoga ke Sat Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages158
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size5 MB
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