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४. समाधिशतक : ८३
मूढ आत्मा जहां विश्वस्त रहता है, उससे बढ़कर और भयास्पद स्थान दूसरा नहीं है और जिससे वह भयभीत होता है, आत्मा के लिए उससे बढ़कर कोई अभय का स्थान नहीं है।
३०. सर्वेन्द्रियाणि संयम्य, स्तिमितेनान्तरात्मना।
यत् क्षणं पश्यतो भाति, तत् तत्त्वं परमात्मनः॥
समस्त इन्द्रियों का नियमन कर, स्थिरीभूत अंतरात्मा से क्षणभर के लिए जो प्रतिभासित होता है, वही परमात्मा का स्वरूप है।
३१. यः परात्मा स एवाऽहं, योऽहं स परमस्ततः।
अहमेव मयोपास्यो, नान्यः कश्चिदिति स्थितिः॥
जो परम आत्मा है, वही मैं हूं और जो मैं हूं, वही परम आत्मा है। इसलिए मैं ही मेरा उपास्य हूं, कोई दूसरा नहीं। यही वास्तविक स्थिति है।
३२. प्रच्याव्य विषयेभ्योऽहं, मां मयैव मयि स्थितम्।
बोधात्मानं प्रपन्नोऽस्मि, परमानन्दनिर्वृतम्॥ मैं अपने आपको इन्द्रिय-विषयों से दूर कर स्वयं में स्थित, परम आनंद से परिपूर्ण, ज्ञानात्मा को प्राप्त हुआ हूं।
३३. यो न वेत्ति परं देहादेवमात्मानमव्ययम्।
लभते स न निर्वाणं, तप्त्वाऽपि परमं तपः॥
जो आत्मा को अविनाशी और देह से भिन्न नहीं जानता, वह उत्कृष्ट तप की आराधना करके भी निर्वाण को प्राप्त नहीं होता।
३४. आत्मदेहान्तरज्ञानजनितालादनिर्वृतः
तपसा दुष्कृतं घोरं, भुजानोऽपि न खिद्यते॥
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