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४. समाधिशतक : ८५
जब तपस्वी में मोह के कारण राग-द्वेष उत्पन्न हों तो वह स्वस्थ आत्मा का चिंतन - करे। इससे क्षणभर में राग-द्वेष शांत हो जाते हैं।
यत्र काये मुनेः प्रेम, ततः प्रच्याव्य देहिनम् | बुद्ध्या तदुत्तमे काये, योजयेत् प्रेम नश्यति ॥ जिस शरीर के प्रति मुनि का स्नेह हो, उससे आत्मा को हटाकर, विवेकज्ञान से उत्तम काय - आत्म-स्वरूप के प्रति अपना स्नेह नियोजित करे । इससे शरीर - राग नष्ट हो जाता है।
४०.
४१. आत्मविभ्रमज दुःखमात्मज्ञानात्
प्रशाम्यति ।
नाऽयतास्तत्र निर्वान्ति कृत्वाऽपि परमं तपः ॥ आत्म-विभ्रम से उत्पन्न दुःख आत्मज्ञान से नष्ट हो जाता है। आत्मज्ञान की प्राप्ति के लिए जो प्रयत्नशील नहीं हैं वे उत्कृष्ट तप करके भी निर्वाण को प्राप्त नहीं होते ।
४२. शुभं शरीरं
विषयानभिवाञ्छति ।
दिव्यांश्च, उत्पन्नात्ममतिर्देह, तत्त्वज्ञानी ततश्च्युतिम् ॥
शरीर में आत्मबुद्धि वाला मनुष्य सुन्दर शरीर और दिव्य भोगों की आकांक्षा करता है। तत्त्वज्ञानी पुरुष इनसे छुटकारा पाने की इच्छ करता है।
परत्राऽहंमतिः स्वस्मात् च्युतो बध्नात्यसंशयम् । स्वस्मिन्नहंमतिश्च्युत्वा, परस्मान्मुच्यते बुधः ॥
'पर' में आत्मबुद्धि वाला बाहिरात्मा आत्म स्वरूप से च्युत होकर निश्चितरूप से कर्मों का बंधन करता है। अपनी आत्मा में आत्मबुद्धि वाला ज्ञानी बहिरात्मभाव से च्युत होकर कर्मों से मुक्त हो जाता है।
४३.
४४ दृश्यमानमिदं इदमित्यवबुद्धस्तु,
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मूढस्त्रिलिङ्गमवबुध्यते । शब्दवर्जितम् ॥
निष्पन्नं
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