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१६ : जैन योग के सात ग्रंथ ६०. पणवीसमद्धतेरस सिलोग पन्नत्तरिं च बोद्धव्वा।
सयमेणं पणवीसं बे बावन्ना य वारिसिए॥
चार उच्छ्वासों में एक श्लोक गृहीत होता है। इस परिमाण से दैवसिक में पचीस श्लोक, रात्रिक में साढ़े बारह श्लोक, पाक्षिक में पचहत्तर श्लोक, चातुर्मासिक में सवा सौ श्लोक और वार्षिक में दो सौ बावन श्लोक होते हैं।
६१. गमणागमणविहारे सुत्ते वा सुमिणदंसणे राओ।
नावानइसंतारे इरियावहियापडिक्कमणं॥ गमन, आगमन, विहार, शयन, स्वप्नदर्शन, नावादि से नदीसंतरण, ईर्यापथिकी प्रतिक्रमण-इनमें पचीस श्वासोच्छ्वास का कायोत्सर्ग किया जाता है।
६२. उद्देससमुद्देसे सत्तावीसं अणुन्नवणियाए।
अट्ठेव य ऊसासा पठ्ठवणपडिक्कमणमाई।।
सूत्र के उद्देश और समुद्देश के समय सतावीस श्वासोच्छ्वास का कायोत्सर्ग तथा अनुज्ञा, प्रस्थापना तथा काल-प्रतिक्रमण में आठ श्वासोच्छवास का कायोत्सर्ग होता है।
१. (क) आवश्यक भाष्यगाथा, २३४ :
भत्ते पाणे सयणासणे य अरिहंतसमणसिज्जासु।
उच्चारे पासवणे पणवीसं हंति ऊसासा॥ -भक्त, पान, शयन और आसन के निमित्त बाहर जाना, चैत्यगृह में वन्दनार्थ जाना, श्रमण-वसति से बाहर जाना तथा उच्चार-प्रस्रवण के लिए जाना-इन कार्यों के लिए पचीस श्वासोच्छवास का कायोत्सर्ग करना होता
है।
(ख) प्रक्षिप्त गाथा
नियआलयाओ गमणं अन्नत्थ उ सुत्तपोरिसिनिमित्तं।
होइ विहारो इत्थवि पणवीसं हुंति ऊसासा॥ --अपने स्थान से सूत्र पौरुषी के लिए बाहर जाना भी विहार ही है। इसमें बीस श्वासोच्छ्वास का कायोत्सर्ग करना होता है।
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