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१. कायोत्सर्ग प्रकरण : १७
६३. जुज्जइ अकालपढियाइएसु दुह्रअ पडिच्छियाईसु।
समणुन्नसमुद्देसे काउस्सग्गस्स करणं तु॥ इसी प्रकार अकाल में स्वाध्याय करने, अविनीत को वाचना देने तथा दूसरों को पढ़ाने और अर्थ की वाचना देने में भी कायोत्सर्ग करना होता है। ६४. जं पुण उद्दिसमाणा अणइकंतावि कुणह उस्सग्गं। ___एस अकओवि दोसो परिधिप्पइ किं मुहा भंते! ?
शिष्य ने पूछा-'भदन्त! वाचना देने में प्रवृत्त मुनि को, श्रुत का अतिक्रमण नहीं करते हुए भी, कायोत्सर्ग करना पड़ता है। अकृत दोष के लिए कायोत्सर्ग का यह व्यर्थ विधान क्यों किया गया है?' ६५. पावुग्घाइ कीरइ उस्सग्गो मंगलंति उद्देसो।
अणुवहियमंगलाणं मा हुज्ज कहिंचि णे विग्घं।
आचार्य ने कहा-'कायोत्सर्ग मंगल है। पाप (अनिष्ट या अमंगल) का निराकरण करने के लिए यह किया जाता है। मंगल का अनुष्ठान न करने पर हमारे कार्य में कहीं विघ्न न आ जाए इस दृष्टि से कार्य के प्रारंभ में मंगल अनुष्ठान (कायोत्सर्ग) करणीय है। ६६. पाणवहमुसावाए अदत्तमेहुणपरिग्गहे चेव।
सयमेगं तु अणूणं ऊसासाणं हविज्जाहि॥ स्वप्न में प्राणिवध, मृषावाद, अदत्तादान, मैथुन और परिग्रह के सेवन से पूरे सौ श्वासोच्छ्वास का कायोत्सर्ग होता है।
जमा
१. (क) दिट्ठीविपरियासे सय मेहुन्नंमि थीविपरियासे।
ववहारेणट्ठसयं अणभिस्संगस्स साहुस्स। -इसी प्रकार दृष्टि के विपर्यास में सौ, स्त्री के प्रति विपरीत चिंतन में १०८ श्वासोच्छ्वास का कायोत्सर्ग करना होता है। (ख) नावा (ए) उत्तरिउं वहमाई तह नइं च एमेव।
संतारेण चलेण व गंतुं पणवीस ऊसासा।। (प्रक्षिप्त गाथा) -नदी को नौका से, जंघा-संतरण या पैरों से चलकर पार करने और किसी प्रकार के वध आदि में पचीस श्वासोच्छ्वास का कायोत्सर्ग करना होता है।
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