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१. कायोत्सर्ग प्रकरण : १५
स्वाध्याय, ध्यान, तप, औषधि, उपदेश, स्तुतिपद, आज्ञा और संतों के गुण-कीर्तन में पुनरुक्त दोष नहीं होता ।
उस्सासं न निरुंभइ आभिग्गहिओवि किमु अ चिट्ठाउ ? सज्जमरणं निरोहे सुहुमुस्सासं तु जयणाए ॥ शिष्य ने पूछा- 'अभिभव कायोत्सर्ग करने वाला भी सम्पूर्ण रूप से श्वास का निरोध नहीं करता है तो फिर चेष्टा कायोत्सर्ग करने वाला उसका निरोध क्यों करेगा?' आचार्य ने कहा- 'श्वास के निरोध से मृत्यु हो जाती है, अतः कायोत्सर्ग में यतनापूर्वक सूक्ष्म श्वासोच्छ्वास लेना चाहिए।'
५६.
देसि राय पक्खिय चउमासे या तहेव वरिसे य । एएस हुंति नियया उस्सग्गा अनिअया सेसा ॥ दैवसिक, रात्रिक, पाक्षिक, चातुर्मासिक और वार्षिक- इनमें किए जाने वाले कायोत्सर्ग श्वासोच्छ्वास की दृष्टि से नियत और शेष अनियत होते हैं।
५७.
५८. सायं सयं गोसऽद्धं तिन्नेव सया हवंति पक्खमि । पंच य चाउम्मासे अट्ठसहस्सं च वारिसए ॥ सायंकालीन कायोत्सर्ग में श्वासोच्छ्वास का परिमाण सौ, प्रातःकालीन में पचास, पाक्षिक में तीन सौ, चातुर्मासिक में पांच सौ और वार्षिक में १००८ है । दैवसिक कायोत्सर्ग में सौ श्वासोच्छ्वास (चार लोगस्स का पाठ ) । '
चत्तारि दो दुवालस वीसं चत्ता य हुंति उज्जोआ । देसिय राय पक्खिय चाउम्मासे अ वरिसे य ।। इस प्रकार दैवसिक के चार, रात्रिक के दो, पाक्षिक के बारह, चातुर्मासिक के बीस और वार्षिक प्रतिक्रमण के चालीस उद्योतकर (लोगस्स) होते हैं।
५९.
१. कायोत्सर्ग में 'चंदेसु निम्मलयरा' तक पाठ किया जाता है। उसके पचीस चरण होते हैं। एक उच्छ्वास में एक चरण का स्मरण होता है।
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