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४४ : जन या क सात ग्रंथ
५१. काउं हिअए दोसे जहक्कम जाव ताव पारेइ।
ताव सुहुमाणुपाणू धम्म सुक्कं च झाइज्जा॥ दोषों को हृदय में धारण कर, यथाक्रम उनकी आलोचना करे। जब तक गुरु कायोत्सर्ग सम्पन्न न करें, तब तक आन-प्राण को सूक्ष्म कर धर्म्य-शुक्ल ध्यान करे।
५२. देसिअ राइअ पक्खे चाउम्मासे तहेव वरिसे अ। ___इक्किक्के तिन्नि गमा नायव्वा पंचसेतेसु॥
दैवसिक, रात्रिक, पाक्षिक, चातुर्मासिक और सांवत्सरिक-इन पांचों (प्रतिक्रमणों) में एक-एक के तीन-तीन विकल्प होते हैं
१. सामायिक कर कायोत्सर्ग करना। २. कायोत्सर्ग कर सामायिक करना। ३. पुनः सामायिक कर कायोत्सर्ग करना।
५३. आइमकाउस्सग्गे पडिक्कमणे ताव काउ सामाझ्यं।
तो किं करेह बीयं तइयं च पुणोऽवि उस्सग्गे? शिष्य ने पूछा-'प्रथम कायोत्सर्ग में सामायिक कर लिया, फिर प्रतिक्रमण में दूसरा और अंतिम कायोत्सर्ग में तीसरा सामायिक क्यों किया
जाए?'
५४. समभावम्मि ठियप्पा उस्सग्गं करिय तो पडिक्कमइ।
एमेव य समभावे ठियस्स तइयं तु उस्सग्गे॥
आचार्य ने कहा-'समभाव में स्थित मुनि कायोत्सर्ग कर, दैवसिक आदि अतिचारों के लिए गुरु द्वारा प्रायश्चित्त प्राप्त कर समभावपूर्वक प्रतिक्रमण करता है। इसी समभाव में स्थित रहकर वह कायोत्सर्ग में तीसरा सामायिक करता है।'
५५. सज्झायझाणतवओसहेतु उवएसथुइपयाणेसु।
संतगुणकित्तणेसु अ न हुंति पुणरुत्तदोसा उ॥
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