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________________ १. कायोत्सर्ग प्रकरण : १३ ४६. अटुं रुदं च दुवे झायइ झाणाइ जो निवन्नो उ। एसो काउस्सग्गो निवन्नगो होइ नायव्वो॥ सोकर आर्त और रौद्र ध्यान में संलग्न होना निपन्न-निपन्न कायोत्सर्ग है। सोकर कायोत्सर्ग करना-द्रव्यतः निपन्न। आत-रौद्र ध्यान करना-भावतः निपन्न । ४७. अतरंतो निसन्नो करिज्ज तह वि अ सहू निवन्नो उ। संबाहुवस्सए वा कारणिअ समत्थ वि निसन्नो॥ जो असमर्थ है वह बैठकर कायोत्सर्ग करे। यदि बैठकर करने में असमर्थ हो तो सोकर करे। यदि रहने का स्थान संकीर्ण हो और मुनि गुरु के वैयावृत्य आदि में संलग्न हो तो समर्थ होते हुए भी बैठकर कायोत्सर्ग करे। ४८. काउस्सगं मोक्खपहदेसिओ जाणिऊण तो धीरा। दिवसाइआरजाणट्टयाइ ठायंति उस्सग्गं॥ कायोत्सर्ग मोक्ष-मार्ग के रूप में उपदिष्ट है-ऐसा जानकर धृतिमान् मुनि दैवसिक आदि अतिचारों को जानने के लिए कायोत्सर्ग करते हैं। ४९. सयणासणन्नपाणे चेइअ जइ सिज्ज काय उच्चारे। समिईभावणगुत्ती वितहायरणे अइआरो॥ शयन, आसन, अन्न, पानी, चैत्य, यति, शय्या, कायिकी (प्रसवण), उच्चार (मल), समिति, भावना और गुप्ति-इन विषयों में विपरीत आचरण करना अतिचार है। ५०. गोसमुहणंतगाई आलोए देसिए अईआरे। सव्वे समाणइत्ता हिअए दोसे ठविज्जाहि॥ कायोत्सर्ग में स्थित मुनि प्रातःकाल में मुखवस्त्रिका तथा अन्यान्य उपधियों के प्रत्यूपेक्षण संबंधि दैवसिक अतिचारों का अवलोकन करेस्मरण करे। सभी अतिचारों को बुद्धि से जानकर उन दोषों को हृदय में स्थापित करे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003079
Book TitleJain Yoga ke Sat Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages158
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size5 MB
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