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२. ध्यानशतक : ३७
मुनि सदा युवती, पशु, नपुंसक तथा कुशील व्यक्तियों से रहित विजन-एकांत स्थान में रहे। विशेष रूप से ध्यानकाल में विजन स्थान को ही चुने।
३६. थिरकयजोगाणं पुण मुणीण झाणे सुनिच्चलमणाणं।
गामंमि जणाइण्णे सुण्णे रण्णे व. ण विसेसो॥
जो मुनि स्थिर-संहनन और धृति से युक्त हैं, कृतयोग-ज्ञान भावनाओं से अभ्यस्त हैं, जो ध्यान में अतिशय स्थिर मन वाले हैं उनके लिए जनाकीर्ण ग्राम और शून्य अरण्य में कोई अन्तर नहीं है।
३७. तो जत्थ समाहाणं होज्ज मणोवयणकायजोगाणं।
भूओवरोहरहिओ सो देसो झायमाणस्स॥ इसलिए जहां मन, वचन और काया के योगों (प्रवृत्तियों) का समाधान (स्वास्थ्य) बना रहे और जो जीवों के संघट्टन से रहित हो, वही ध्याता के लिए श्रेष्ठ ध्यान-स्थल है।
३८. कालोऽवि सोच्चिअ जहिं जोगसमाहाणमुत्तमं लहइ।
न उ दिवसनिसावेलाइनियमणं झाइणो भणियं॥
ध्यान के लिए काल भी वही श्रेष्ठ है जिसमें मन, वचन और काया के योगों का समाधान बना रहे। ध्यान करने वाले के लिए दिनरात या अन्य समय का नियमन नहीं है।
३९. जच्चिअ देहावत्था जिया ण झाणोवरोहिणी होई।
झाइज्जा तदवत्थो निसण्णो निवण्णो वा॥ जिस देहावस्था (आसन) का अभ्यास हो चुका है और जो ध्यान में बाधा डालने वाली नहीं है, उसी में अवस्थित होकर ध्याता स्थित-खड़े होकर कायोत्सर्ग आदि में, निषण्ण-बैठकर वीरासन आदि में अथवा निपन्न-सोकर दंडायतिक आदि आसन में ध्यान करे।
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