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३६ : जन याग क सात ग्रंथ
४०. सव्वाणु वट्टमाणा मुणओ जं देसकालचेट्ठासु।
वरकेवलाइलाभं पत्ता बहुसो समियपावा॥ सभी देश, काल और चेष्टा-आसनों में प्रवृत्त, उपशांत दोष वाले अनेक मुनियों ने (ध्यान के द्वारा) केवल-ज्ञान आदि की प्राप्ति की है।
४१. तो देसकालचेट्टानियमो झाणस्स नत्थि समयंमि।
जोगाण समाहाणं जह होइ तहा यइयव्वं॥
अतः आगमों में ध्यान के लिए देश, काल और आसन का कोई नियम नहीं है। जैसे योगों का समाधान हो, वैसे ही प्रयत्न करना चाहिए।
च
॥
४२. आलंबणाई वायणपुच्छणपरियट्टणाणुचिंताओ।
सामाइयाइयाई सद्धम्मावस्सयाई धर्म्यध्यान के ये आलंबन हैं१. वाचना
३. परिवर्तना २. प्रच्छना
४. अनुचिंता। ये चारों श्रुत-धर्मानुगामी आलंबन हैं। सामायिक आदि तथा सद्धर्मावश्यक आदि चारित्र-धर्मानुगामी आलंबन हैं।
४३. विसमंमि समारोहइ दढदव्वालंबणो जहा पुरिसो।
सुत्ताइकयालंबो तह झाणवरं समारुहइ॥
जैसे मजबूतं रस्सी का आलंबन लेकर मनुष्य विषम स्थान में भी ऊंचा चढ़ जाता है, वैसे ही सूत्र (वाचना आदि) का आलंबन लेकर व्यक्ति धर्म्यध्यान पर आरूढ़ हो जाता है।
४४. झाणप्पडिबत्तिकमो होइ मणोजोगनिग्गहाईओ।
भवकाले केवलिणो सेसस्स जहासमाहीए॥ केवली के भवकाल-शैलेषी अवस्था में शुक्लध्यान का प्रतिपत्तिक्रम इस प्रकार रहता है-पहले मनोयोग का, तदनन्तर वाक्योग
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