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२. ध्यानशतक : ३७
का और अन्त में काययोग का निरोध होता है। शेष अर्थात् धर्म्यध्यान में प्रवृत्त व्यक्ति के लिए यह क्रम नहीं है। उसके लिए यथासमाधि (यथास्वास्थ्य) फ्रेम का निर्देश है।
(आणा विजए अवाए विवागे संठाणओ य नायव्वा।
एए चत्तारि पया जायव्वा धम्मझाणस्स)२ धर्म्यध्यान के ध्यातव्य पद चार हैं१. आज्ञाविचय
३. विपाकविजय २. अपायविचय
४. संस्थानविचय। ४. सस्थानावर
४५. सुनिउणमणाइणिहणं भूयहियं भूयभावणमहग्छ ।
अमियमजियं महत्थं महाणुभावं . महाविसयं॥ झाइज्जा निरवज्जं जिणाणमाणं जगप्पईवाणं। अणिउणजणदुण्णेयं नयभंगपमाणगमगहणे॥
(युग्मम्) जगत्प्रदीप अर्हत् की आज्ञा (वीतराग द्वारा प्रदत्त बोध) का आशंसा से मुक्त होकर ध्यान करे। वह आज्ञा अतिनिपुण, अनादिअनंत, प्राणियों के लिए हितकर, सत्यग्राही, अनर्घ्य, अपरिमित, अपराजित, महान् अर्थवाली, महान् सामर्थ्य से युक्त, महान् विषयवाली, अनिपुण लोगों द्वारा अज्ञेय तथा नय, भंग, प्रमाण और गम (विकल्प) से गहन है।
१. धर्म्यध्यान करने वालों में से कुछ व्यक्ति मन का निरोध कर, फिर वचन, शरीर और श्वासोच्छ्वास का निरोध करते हैं और कुछ व्यक्ति शरीर, वचन और श्वासोच्छवास का निरोध कर फिर मन का निरोध कर पाते हैं। आवश्यक में-'ठाणेणं मोणेणं झाणेणं'-इन शब्दों द्वारा तीसरा क्रम प्रतिपादित है। इसका अर्थ है-पहले शरीर की चेष्टा का विसर्जन, फिर वाणी का और फिर मन का। इस क्रम में श्वासोच्छ्वास का निरोध कार्यनिरोध के अंतर्गर्भित है। २. यह गाथा अन्यकर्तृक मानी गई है।
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