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६ : जैन योग के सात ग्रंथ
१४. अंतोमुहुत्तकालं चित्तस्सेगग्गया हवइ झाणं।
तं पुण अट्टं रुई धम्म सुक्कं च नायव्वं॥
अंतर्मुहूर्त तक चित्त की एकाग्रता को ध्यान कहा जाता है। वह चार प्रकार का है-आर्त, रौद्र, धर्म्य और शुक्ल।
१५. तत्थ य दो आइल्ला झाणा संसारवड्डणा भणिया।
दुन्नि य विमुक्कहेऊ तेसिऽहिगारो न इयरेसिं॥
प्रथम दो ध्यान-आर्त और रौद्र संसार बढ़ाने वाले और शेष दोधर्म्य और शुक्ल मुक्ति के हेतु हैं। यहां धर्म्य और शुक्ल ही अधिकृत हैं।
१६. संवरिआसवदारो अव्वाबाहे अकंटए देसे।
काऊण थिरं ठाणं ठिओ निसन्नो निवन्नो वा।। १७. चेअणमचेअणं वा वत्थु अवलंबिउं घणं मणसा। झायइ सुयमत्थं वा दविअं तप्पज्जए वावि॥
(युग्मम) इन दो गाथाओं में ध्याता, क्षेत्र, आसन और आलंबन का स्वरूपनिर्देश है
• ध्याता-इन्द्रिय आदि आस्रवद्वारों का संवरण करने वाला। • क्षेत्र-कोलाहल आदि बाधा तथा पत्थर और जीव-जन्तु से
रहित। • आसन-स्थिर खड़ा होना, बैठना या सोना। • आलंबन-चेतन या अचेतन वस्तु, श्रुत या अर्थ, द्रव्य या पर्याय में मन का सघन योग।
१८. तत्थ उ भणिज्ज कोई झाणं जो माणसो परीणामो।
तं न भवइ जिदिढं झाणं तिविहे वि जोगम्मि॥ कोई कहता है कि ध्यान तो मानसिक परिणाम है (ध्यान मानसिक ही होता है), यह यथार्थ नहीं है। क्योंकि मन, वचन और शरीर-तीनों योगों से ध्यान होता है, ऐसा अर्हत् द्वारा निरूपित है।
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