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१. कायोत्सर्ग प्रकरण : ७
१९. वायाईधाऊणं जो जाहे होइ उक्कडो धाऊ।
कुविउत्ति सो पवुच्चइ न य इअरे तत्थ दो नत्थि॥ शरीर में वात, पित्त और कफ-ये तीन वस्तुएं हैं। इनमें जिस समय जो धातु उत्कट (प्रचुर) होता है, वह कुपित कहलाता है। दूसरे दो धातुओं का निर्देश नहीं किया जाता। इसका यह अर्थ नहीं है कि दूसरे दो धातुओं का अस्तित्व ही नहीं है।
२०. एमेव य जोगाणं तिण्हवि जो जाहि उक्कडो जोगो।
तस्स तहिं निद्देसो इयरे तत्थिक्क दो व न वा॥ इसी प्रकार तीनों योगों में जिस समय जो योग उत्कट होता है, उसी का निर्देश किया जाता है। शेष दो योगों में से उस समय एक योग हो सकता है, दोनों हो सकते हैं या दोनों नहीं भी होते।'
२१. काए वि अ अज्झप्पं वायाइमणस्स चेव जह होइ।
कायवयमणो जुत्तं तिविहं अन्झप्पमाहंसु॥ जैसे मन में अध्यात्म होता है, वैसे ही शरीर और वचन में भी अध्यात्म होता है। शरीर में एकाग्रतापूर्वक चंचलता का निरोध करना कायिक ध्यान है। वचन में एकाग्रतापूर्वक असंयत भाषा का निरोध करना वाचिक ध्यान है। तीर्थंकरों ने अध्यात्म के तीन प्रकार बतलाए हैं
१. मन में अध्यात्म-मानसिक ध्यान (मनोगुप्ति)। २. वचन में अध्यात्म-वाचिक ध्यान (वाग्गुप्लि)। ३. काय में अध्यात्म-कायिक ध्यान (कायगुप्ति)।
२२. जइ एगग्गं चित्तं धारयओ वा निरंभओ वा वि।
झाणं होइ ननु तहो इयरेसु वि दोसु एमेव॥ १. इसका तात्पर्य यह है कि केवलज्ञानी के जब वाग्योग की उत्कटता होती है
तब काययोग भी रहता है। छद्मस्थ के वाग्योग की उत्कटता के समय मनोयोग और काययोग हो भी सकता है और नहीं भी। केवली जब शैलेशी (पर्वत की भांति निष्प्रकंप) अवस्था में होते हैं तब उनके केवल काययोग ही होता है।
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