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________________ ८ : जैन योग के सात ग्रंथ यदि किसी वस्तु में चित्त को एकाग्र करना या निरोध करना ध्यान है तो वाणी और काया को एकाग्र करना या उनका निरोध करना भी ध्यान होता है। २३. देसिअदंसिअमग्गो वच्चंतो नरवई लहइ सह। रायत्ति एस वच्चइ सेसे अणुगामिणो तस्स। ___ मार्गदर्शक आगे-आगे चलता है। राजा आदि उसके द्वारा बताए हुए मार्ग पर चलते हैं। फिर भी कहा जाता है-'यह राजा जा रहा है।' शेष उसके अनुगामी होते हैं (उनका कोई निर्देश नहीं किया जाता)। २४. पढमिल्लुगस्स उदए कोहस्सिअरे वि तिन्नि तत्थत्थि। न य ते न संति तहिअ न य पाहन्नं तहेअं पि॥ प्रथम प्रकार के क्रोध (अनंतानुबंधी) की उदयावस्था में शेष तीनों प्रकारों (अप्रत्याख्यान, प्रत्याख्यान और संज्वलन) का भी अस्तित्व रहता ही है। ये तीनों नहीं हैं ऐसा नहीं, किन्तु वे हैं ही। उनकी प्रधानता न होने के कारण उनका व्यपदेश नहीं किया जाता। २५. मो मे एयउ काओत्ति अचलओ काइअं हवइ झाणं। एमेव य माणसिअं निरुद्धमणसो हवइ झाणं॥ 'मेरा शरीर कंपित न हो'-ऐसा सोचकर जो निश्चल हो जाता है उसके कायिक ध्यान होता है। उसी प्रकार मन का निरोध करने वाले के मानसिक ध्यान होता है। २६. जह कायमणनिरोहे झाणं वायाइजुज्जइ न एवं। तम्हा वई उ झाणं न होइ को वा विसेसुत्थ॥ 'जिस प्रकार काया और मन के निरोध को ध्यान कहा जाता है, वैसे ही वचन के विषय में नहीं कहा जा सकता। वह मन और काया की तरह सदा प्रवृत्त नहीं होता, इसलिए वाचिक ध्यान नहीं हो सकता। यहां विशेष क्या है-यह आप बताएं,' शिष्य ने आचार्य ने पूछा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003079
Book TitleJain Yoga ke Sat Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages158
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size5 MB
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