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१. कायोत्सर्ग प्रकरण : ९
२७. मा मे चलउ त्ति तणू जह तं झाणं णिरेइणो होइ।
अजया भासविवज्जिस्स वाइअं झाणमेवं तु॥ 'मेरा शरीर कंपित न हो'-इस प्रकार का निष्प्रकंप होना शारीरिक ध्यान है, वैसे ही असंयत भाषा का परिहार करना वाचिक ध्यान है। २८. एवंविहा गिरा मे वत्तव्वा एरिसा न वत्तव्या। .. इअ वेआलियवक्कस्स भासओ वाइअं झाणं॥
मुझे इस प्रकार की भाषा बोलनी चाहिए और इस प्रकार की नहींइस प्रकार बोलने वाले के वाचिक ध्यान होता है। २९. मणसा वावारंतो कायं वायं च तप्परीणामो।
भंगिअसुयं गुणतो वट्टइ तिविहे वि झाणम्मि।
भंगिक श्रुत (दृष्टिवाद का अंश या अन्य विकल्प-प्रधान श्रुत) का गुणन करने वाला व्यक्ति तीनों ध्यानों में प्रवृत्त होता है। उसका मन भंगिक श्रुत में नियोजित होता है, वचन से उसका उच्चारण और अंगुलियों द्वारा उसका लेखन या गुणन होता है-इन तीनों में एकलय होने के कारण वह तीनों ध्यानों में प्रवृत्त होता है।
३०. धम्मं सुक्कं च दुवे झायइ झाणाइ जो ठिओ संतो।
एसो काउस्सग्गो उसिउसिओ होइ नायव्वो॥
जो खड़ा होकर धर्म्य और शुक्ल-इन दो ध्यानों में प्रवृत्त होता है, यह उच्छ्रित-उच्छ्रित कायोत्सर्ग है।
खड़े होकर कायोत्सर्ग करना-द्रव्यतः उच्छ्रित।
धर्म्य-शुक्ल ध्यान करना-भावतः उच्छ्रित। ३१. धम्मं सुक्कं च दुबे न वि झायइ न वि य अट्टरुद्दाइं।
एसो काउस्सग्गो दव्वुस्सिओ होइ नायव्वो।
जो धर्म्य-शुक्ल अथवा आर्त और रौद्र-किसी ध्यान में प्रवृत्त नहीं होता, यह द्रव्य-उच्छ्रित कायोत्सर्ग है।
खड़े रहकर कायोत्सर्ग करना-द्रव्यतः उच्छ्रित। ध्यान का अभाव-भावतः शून्य।
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