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१० : जैन योग के सात ग्रंथ
३२. पयलायंत सुसुत्तो नेव सुहं झाइ झाणमसुहं वा।
अव्वावारिअचित्तो जागरमाणो वि एमेव॥
जो प्रचलायमान और सुषुप्त है वह न शुभ ध्यान में प्रवृत्त होता है और न अशुभ ध्यान में। इसी प्रकार अव्यापारित चित्तवाला व्यक्ति जागता हुआ भी न शुभ में प्रवृत्त होता है और न अशुभ में।
निद्रावस्था-ध्यान का अभाव । सुषुस अवस्था-ध्यान का अभाव।
जागृत अवस्था में चित्त का अ-व्यापार-ध्यान का अभाव। ३३. अचिरोववन्नगाणं मुच्छिअअव्वत्तमत्तसुत्ताणं।
ओहाडिअमव्वत्तं च होइ पाएण चित्तं ति॥ नवजात, मूर्छित, अव्यक्त, मत्त और सुप्त इनका चित्त प्रायः स्थगित और अव्यक्त होता है। इन अवस्थाओं में ध्यान नहीं होता। ३४. गाढालंबणलग्गं चित्तं वुत्तं निरेअणं झाणं।
सेसं न होइ झाणं मउअवत्तं भमंतं च॥
आलंबन में प्रगाढ़ रूप से संलग्न होकर निष्प्रकंप बना हुआ चित्त ही ध्यान होता है। आलंबन में मृदु भावना से संलग्न, अव्यक्त और अनवस्थित चित्त ध्यान नहीं कहलाता। ३५. उम्हासेसो वि सिही होउं लद्धिंधणो पुणो जलइ।
इअ अव्वत्तं चित्तं होउं वत्तं पुणो होइ॥ जिस अग्नि में कुछ उष्मा अवशिष्ट है, ईंधन से प्राप्त होने पर वह पुनः जल उठती है। इसी प्रकार अव्यक्त चित्त भी पुनः व्यक्त हो जाता है।
३६. पुव्वं च जं तदुत्तं चित्तस्सेगग्गया हवइ झाणं।
आवन्नमणेगग्गं चित्तं चिअ तं न तं झाणं॥ शिष्य ने पूछा- पहले जो ऐसा कहा गया है कि चित्त की एकाग्रता ध्यान है, तो फिर शारीरिक, मानसिक और वाचिक ये तीनों ध्यान एक साथ कैसे हो सकते हैं। क्योंकि तीनों में व्याप्त चित्त अनेक आलंबनों से युक्त होता है। अतः वह केवल चित्त ही होगा, ध्यान नहीं हो सकता।'
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