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________________ १. कायोत्सर्ग प्रकरण : ११ ३७. मणसहिएण उ काएण कुणइ वायाइ भासई जं च। एवं च भावकरणं मणरहिअं दव्वकरणं तु॥ आचार्य ने कहा-'व्यक्ति मन सहित काया से प्रवृत्ति करता है और मन सहित वचन से बोलता है-यही भावकरण (भावक्रिया) है। जो क्रिया मन-रहित होती है वह द्रव्यकरण (द्रव्यक्रिया) है। ३८. जइ ते चित्तं झाणं एवं झाणमवि चित्तमावन्नं। तेन किर चित्तं झाणं अह नेवं झाणमन्नं ते॥ शिष्य ने पूछा-'यदि आपको यह मान्य है कि चित्त ही ध्यान है तो इस प्रकार ध्यान भी चित्त होगा और तब कायिक तथा वाचिक ध्यान असंभव हो जाएगा। इसलिए 'चित्त ही ध्यान है'-ऐसा ही आपको मानना होगा। यदि आप ऐसा नहीं मानते तो यह स्पष्ट है कि ध्यान चैतसिक ही नहीं है, उससे भिन्न भी है।' ३९. नियमा चित्तं झाणं चित्तं झाणं न यावि भइअव्वं। जइ खइरो होइ दुमो दुमो अ खइरा अखइरो अ॥ आचार्य ने कहा-'चित्त ही ध्यान है, यह नियमतः कहा जा सकता है, किन्तु ध्यान चित्त होता भी है और नहीं भी। जैसे खदिर वृक्ष होता है, किन्तु वृक्ष खदिर हो भी सकता है और नहीं भी।' ४०. अट्टं रुदं च दुवे झायइ झाणाइं जो ठिओ संतो। एसो काउस्सग्गो दव्बुस्सिओ भावओ निसन्नो॥ खड़े होकर आर्त्त और रौद्र-ये दो ध्यान करना, द्रव्यतः उच्छ्रित और भावतः निषण्ण कायोत्सर्ग है। ४१. धम्म सुक्कं च दुवे झायइ झाणाइं जो निसन्नो अ। एसो काउस्सग्गो निसन्नुस्सिओ होइ नायव्वो॥ १. इसका प्रतिपाद्य यह है कि भावकरण ही ध्यान है, द्रव्यकरण नहीं। अतः मन, वचन और काया की ध्यानावस्था में उनका प्रवर्तन अनेक विषयगत नहीं, एक ही विषयगत होता है, अतः वह ध्यान ही है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003079
Book TitleJain Yoga ke Sat Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages158
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size5 MB
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