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२. ध्यानशतक : ३३
कार्यों में बार-बार प्रवृत्त होना।
आमरणदोष-हिंसा आदि करने में मृत्यु पर्यन्त अनुताप न होना।
२७. परवसणं अहिनंदइ निरवेक्खो निद्दओ निरणुतावो।
___ हरिसिज्जइ कयपावो रोद्दज्झाणोवगयचित्तो॥
जो रौद्रध्यान में संलग्न है वह दूसरों के दुःख का अभिनन्दन करता है, उससे आनंदित होता है। वह निरपेक्ष होता है-उसके मन में पाप का भय नहीं रहता। वह निर्दय और अनुताप-रहित होता है। वह पाप में प्रवृत्त होकर प्रसन्न होता है। ये रौद्रध्यानी के लक्षण हैं।
२८. झाणस्स भावणाओ देसं कालं तहाऽऽसणविसेसं।
आलंबणं कमं झाइयव्वयं जे य झायारो॥ तत्तोऽणुप्पेहाओ लेस्सा लिंगं च फलं च नाऊणं। धम्मं झाइज्ज मुणी तग्गयजोगो तओ सुक्कं॥
(युग्मम्) मुनि ध्यान की भावनाओं, देश, काल, आसन-विशेष, आलंबन, क्रम, ध्येय, ध्याता, अनुप्रेक्षा, लेश्या, लिंग और फल को जानकर धर्म्य-ध्यान में संलग्न हो। जब उसका अभ्यास पूर्ण कर ले, तब वह शुक्लध्यान में प्रवृत्त हो।
३०. पुव्वकयब्भासो भावणाहिं झाणस्स जोग्गयमुवेइ।
ताओ य नाणदंसणचरित्तवेरग्गनियताओ॥ जिसने भावनाओं के माध्यम से ध्यान का पहले अभ्यास किया है, वह ध्यान करने की योग्यता प्राप्त कर लेता है। भावनाएं चार प्रकार की हैं
१. ज्ञान भावना २. दर्शन भावना ३. चारित्र भावना ४. वैराग्य भावना
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