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७८ : जैन योग के सात ग्रंथ
आत्मा के तीन प्रकार हैं- बहिरात्मा, अंतरात्मा और परमात्मा । अंतरात्मा से परमात्मा प्राप्तव्य है और बहिरात्मा त्याज्य है ।
बहिरात्मा शरीरादौ, जातात्मभ्रान्तिरान्तरः।
परमात्माऽतिनिर्मलः ॥
प्रति भ्रांति नहीं होती।
चित्तदोषात्मविभ्रान्तिः,
बहिरात्मा - जिसमें शरीर आदि में आत्म भ्रांति होती है ।
अंतरात्मा - जिसमें चित्त - विकल्प, दोष- राग आदि तथा आत्मा के
७.
विविक्तः
प्रभुरव्ययः ।
निर्मलः केवलः शुद्धः, परमेष्ठी परात्मेति, परमात्मेश्वरो जिनः ॥
परमात्मा के विभिन्न नाम हैं-निर्मल, केवल, शुद्ध, विविक्त, प्रभु, अव्यय, परमेष्ठी, परात्मा, परमात्मा, ईश्वर, जिन आदि ।
८.
परमात्मा - अति निर्मल, प्रक्षीण समस्त कर्ममल आत्मा ।
बहिरात्मेन्द्रियद्वारैरात्मज्ञानपराङ्मुखः
स्फुरितः स्वात्मनो देहमात्मत्वेनाध्यवस्यति ॥ बहिरात्मा आत्मज्ञान से पराङ्मुख होता है। वह इन्द्रिय-विषयों को ग्रहण करने में व्यापृत रहता है और अपने शरीर को ही आत्मा के रूप में जानता है।
नरदेहस्थमात्मानमविद्वान् मन्यते तिर्यञ्चं तिर्यगङ्गस्थं, सुराङ्गस्थं सुरं
नारकं नारकाङ्गस्थं, न स्वयं तत्त्वतस्तथा । अनंतानंतधीशक्तिः, स्वसंवेद्योऽचलस्थितिः ॥
नरम् ।
तथा ॥
( युग्मम्)
बहिरात्मा मनुष्य शरीर में स्थित आत्मा को मनुष्य, तिर्यञ्च में स्थित आत्मा को तिर्यञ्च, देवता में स्थित आत्मा को देव तथा नारक में स्थित आत्मा को नारक मानता है। यथार्थ में आत्मा वैसा - मनुष्य,
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