________________
४. समाधिशतक : ७९
तिर्यंच, देव या नारक है नहीं । आत्मा अनन्त - अनन्त ज्ञानशक्ति से संपन्न है, स्व-संवेद्य है तथा अचल स्थिति वाला है।
१०.
११.
बहिरात्मा अपने शरीर के सदृश दूसरे के अचेतन शरीर को परआत्मा से अधिष्ठित देखकर उसे अन्य आत्मा के रूप में स्वीकार करता है।
१२.
स्वदेहसदृशं परात्माधिष्ठितं
स्वपराध्यवसायेन, विभ्रमः पुंसां
वर्त
जो आत्मा को नहीं जानते वे देह के आधार पर स्व-पर का अध्यवसाय करते हैं। उनमें ही 'मेरा पुत्र' 'मेरी भार्या' - ऐसा विभ्रम होता है।
दृष्ट्वा,
मूढः,
१३.
१४.
परदेहमचेतनम्।
परत्वेनाध्यवस्यति ॥
येन
इस विभ्रम के कारण बहिरात्मा में अविद्या का संस्कार दृढ़ होता है । इस संस्कार के कारण प्राणी जन्मान्तर में भी शरीर को ही आत्मा मानता है या अपना मानता है।
अविद्यासंज्ञितस्तस्मात्, संस्कारो जायते दृढः । लोकोऽङ्गमेव स्वं, पुनरप्यभिमन्यते ॥
देहे स्वबुद्धिरात्मानं, युनक्त्येतेन निश्चयात् । स्वात्मन्येत्वात्मधीस्तस्मात्, वियोजयति देहिनम् ॥
देह में आत्मबुद्धि के कारण देह के साथ ही योग रहता है और आत्मा में आत्मबुद्धि होने पर देह का वियोग हो जाता है।
देहेष्वात्मधिया सम्पत्तिमात्मनस्ताभिर्मन्यते
Jain Education International
देहेष्वविदितात्मनाम् । पुत्रभार्यादिगोचरः ॥
जाताः,
पुत्रभार्यादिकल्पनाः।
हतं
जगत् ॥
हा
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org