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९४ : जैन योग के सात ग्रथ
८६. अव्रती व्रतमादाय, व्रती ज्ञानपरायणः।
परात्मज्ञानसम्पन्नः, स्वयमेव परो भवेत्॥
अव्रती व्रतों को ग्रहण करे और व्रती आत्मज्ञान परायण हो। उत्कृष्ट आत्मज्ञान संपन्न साधक स्वयं मोक्ष को प्राप्त कर लेता है।
८७. लिङ्गं देहाश्रितं दृष्टं, देह एवात्मनो भवः।
न मुच्यन्ते भवात्तस्मात्, ते ये लिङ्गकृताग्रहाः।। लिंग-वेशभूषा आदि देहाश्रित है। देह ही आत्मा का संसार है। अतः लिंग का आग्रह रखने वाले वे व्यक्ति संसार से मुक्त नहीं होते।
८८. जातिदेहाश्रिता दृष्टा, देह एवात्मनो भवः।
न मुच्यन्ते भवात्तस्मात्, ते ये जातिकृताग्रहाः॥ जाति देहाश्रित है। देह ही आत्मा का संसार है। अतः जाति का आग्रह करने वाले वे व्यक्ति संसार से मुक्त नहीं होते।
८९. जातिलिंगविकल्पेन, येषां च समयाग्रहः।
तेऽपि न प्राप्नुवन्त्येव, परमं पदमात्मनः॥
जाति और वेश आदि के विकल्पों में जिनका शास्त्रीय आग्रह है, वे भी आत्मा के परम पद को प्राप्त नहीं कर सकते।
९०. यत्त्यागाय निवर्तन्ते, भोगेभ्यो यदवाप्तये।
प्रीतिं तत्रैव तत्रैव कुर्वन्ति, द्वेषमन्यत्र मोहिनः॥ मनुष्य जिसके त्याग के लिए तथा जिसकी प्राप्ति के लिए भोगों से निवृत्त होते हैं, उसी के प्रति मोहान्ध व्यक्ति प्रीति करते हैं और अन्यत्र- वीतरागभाव के प्रति द्वेष करते हैं। ९१. अनन्तरज्ञः संधत्ते, दृष्टिं पंगोर्यथाऽन्धके।
___ संयोगाद् दृष्टिमङ्गेऽपि, संधत्ते तद्वादात्मनः॥ ___ (अंधे व्यक्ति के कंधे पर पंगु बैठा है। अंधा चलता है और पंगु मार्ग बताता है।)
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