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________________ ४. समाधिशतक : ९५ पंगु और अंधे के भेद को न जानने वाला व्यक्ति, संयोग के कारण, जैसे पंगु की दृष्टि को अंधे में आरोपित कर लेता है, वैसे ही भेद-विज्ञान को न जानने वाला, शरीर और आत्मा के संयोग के कारण, आत्मा की दृष्टि को शरीर में आरोपित कर लेता है। ९२. दृष्टभेदो यथादृष्टिं, पनोरन्धे न योजयेत्। तथा न योजयेद्देहे, दृष्टात्मा दृष्टिमात्मनः॥ जो पंगु और अंधे के भेद को जानता है, वह जैसे पंगु की दृष्टि को अंधे में संयोजित नहीं करता, वैसे ही आत्मद्रष्टा आत्मा की दृष्टि को शरीर में आरोपित नहीं करता। ९३. सुप्तोन्मत्ताद्यवस्थैव, विभ्रमोऽनात्मदर्शिनाम्। विभ्रमोऽक्षीणदोषस्य, सर्वावस्थाऽऽत्मदर्शिनः॥ ___ अनात्मदर्शी (बहिरात्मा) सुप्त, उन्मत्त आदि अवस्थाओं को ही विभ्रम मानता है। आत्मदर्शी अक्षीण दोष वाले बहिरात्मा की सारी अवस्थाओं को विभ्रम मानता है। ९४. विदिताशेषशास्त्रोऽपि, न जाग्रदपि मुच्यते। देहात्मदृष्टिञ्जतात्मा, सुप्तोन्मत्तोऽपि मुच्यते॥ शरीर में आत्मदृष्टि रखनेवाला बहिरात्मा संपूर्ण शास्त्रों का पारगामी तथा जागृत हो जाने पर भी मुक्त नहीं होता। आत्मज्ञानी सुप्त और उन्मत्त होने पर भी मुक्त हो जाता है। ९५. यत्रैवाहितधीः पुंसः श्रद्धा तत्रैव जायते। यत्रैव जायते श्रद्धा, चित्तं तत्रैव लीयते॥ मनुष्य की बुद्धि जिसमें लीन होती है, उसी में श्रद्धा (रुचि) पैदा होती है और जहां श्रद्धा पैदा होती है, उसी में चित्त लीन होता है। ९६. यत्राऽनाहितधीः पुंसः, श्रद्धा तसमान्निवर्तते। यस्मान्निवर्तते श्रद्धा, कुतश्चित्तस्य तल्लयः॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003079
Book TitleJain Yoga ke Sat Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages158
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size5 MB
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