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४. समाधिशतक : ९३
आत्म-स्वरूप का अनुभव करने वाले पुरुष को पहले यह जगत् उन्मत्त की भांति जान पड़ता है। तत्पश्चात् आत्मस्वरूप के अभ्यासी साधक को यह जगत् काष्ठ और पत्थर के समान प्रतीत होता है।
८१. शृण्वन्नप्यन्यतः कामं, वदन्नपि कलेवरात्।
नात्मानं भावयेद्भिन्नं, यावत्तावन्न मोक्षभाक्॥
आत्मा और शरीर का भेदविज्ञान दूसरों से बहुत बार सुनकर भी तथा दूसरों को भेदविज्ञान की बात बताकर भी, जब तक व्यक्ति इस भेद-विज्ञान से अपनी आत्मा को भावित नहीं कर लेता, तब तक मोक्ष प्राप्त नहीं हो सकता। ८२. तथैव भावयेदेहाद्, व्यावृत्त्यात्मानमात्मनि।
यथा न पुनरात्मानं, देहे स्वप्नेऽपि योजयेत्॥
आत्मा को शरीर से व्यावृत कर आत्मा में आत्मा की इस प्रकार भावना करे कि स्वप्न में भी पुनः देह का आत्मा के साथ योग न हो। ८३. अपुण्यमव्रतैः पुण्यं, व्रतैर्मोक्षस्तयोर्व्ययः।
अव्रतानीव मोक्षार्थी, व्रतान्यपि ततस्त्यजेत्॥
अव्रतों से पाप का बंध होता है और व्रतों से पुण्य का। पुण्य और पाप-दोनों के क्षीण होने पर मोक्ष होता है। इसलिए मोक्षार्थी अव्रतों की भांति व्रतों को भी छोड़ दे। ८४. अव्रतानि परित्यज्य, व्रतेषु परिनिष्ठितः।
त्यजेत् तान्यपि संप्राप्य, परमं पदमात्मनः॥ साधक अव्रतों को छोड़कर व्रतों का पूर्णरूप से पालन करे। फिर आत्मा का परम पद वीतरागपद प्राप्त कर उन व्रतों को भी छोड़ दे। ८५. यदन्तर्जल्पसंपृक्तमुत्प्रेक्षाजालमात्मनः
मूलं दुःखस्य तन्नाशे, शिष्टमिष्टं परं पदम्॥ __ अंतर्जल्प से संपृक्त जो विकल्पजाल है, वही आत्मा के दुःख का मूल है। उसका नाश होने पर अभिलषित परमात्मपद की प्राप्ति होती है।
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