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९२ : जैन योग के सात ग्रंथ
आत्मा ही आत्मा को जन्म (संसार) और निर्वाण की ओर ले जाता है। इसलिए वास्तव में आत्मा ही आत्मा का गुरु है, दूसरा कोई गुरु नहीं है।
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दृढात्मबुद्धिदेहादावुत्पश्यन्नाशमात्मनः मित्रादिभिर्वियोगं च, बिभेति मरणाद् भृशम् ॥
देह आदि में दृढ़ आत्मबुद्धि वाला मनुष्य मृत्यु को निकट जानकर तथा मित्र आदि के वियोग को देखकर, मृत्यु से अत्यंत भयभीत हो जाता है।
७६.
आत्मन्येवात्मधीरन्यां,
शरीरगतिमात्मनः ।
मन्यते निर्भयं त्यक्त्वा, वस्त्रं वस्त्रांतरग्रहम् ॥
आत्मा में ही आत्मबुद्धि रखने वाला मनुष्य एक वस्त्र को छोड़कर दूसरे वस्त्र को धारण करने के समान शरीरगति - शरीर के परिणमन को निर्भय रहकर आत्मा से भिन्न मानता है ।
७७.
व्यवहारे सुषुप्तो यः, स जागर्त्यात्मगोचरे । व्यवहारेऽस्मिन्, सुषुप्तश्चात्मगोचरे ॥
जागर्ति
जो व्यवहार में सुषुप्त है, वह आत्मा के विषय में जागृत है। जो व्यवहार में जागृत है, वह आत्मा के विषय में सुषुप्त है।
७८.
बहिः ।
७९. आत्मानमन्तरे दृष्ट्वा, दृष्ट्वा देहादिकं तयोरन्तरविज्ञानादभ्यासादच्युतो
भवेत्॥
साधक आत्मा को अन्तर् में देखकर तथा शरीर आदि को बाहर देखकर दोनों के भेद - विज्ञान से तथा उसके अभ्यास से अच्युत-मुक्त हो जाता है।
पूर्वं
विभात्युन्मत्तवज्जगत् ।
स्वभ्यस्तात्मधियः पश्चात् काष्ठापाषाणरूपवत्॥
८०.
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दृष्टात्मतत्त्वस्य,
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