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४. समाधिशतक : ९१
मैं गौरा हूं, मैं स्थूल हूं, मैं कृश हूं-इनको आत्मा की विशेषता न मानता हुआ पुरुष अपनी आत्मा को सदा केवलज्ञानमय विग्रह (शरीर) वाला माने।
७१. मुक्तिरैकान्तिकी तस्य, चित्ते यस्याचला धृतिः।
तस्य नैकान्तिकी मुक्तिर्यस्य नास्त्यचला धृतिः। जिसके चित्त में अचल धृति होती है, उसको ऐकान्तिक--नियमतः मुक्ति प्राप्त होती है। जिसके चित्त में अचल धृति नहीं होती, उसको नियमतः मुक्ति प्राप्त नहीं होती।
७२. जनेभ्यो वाक् ततः स्पन्दो, मनसश्चित्तविभ्रमाः।
भवन्ति तस्मात्संसर्ग, जनैर्योगी ततस्त्यजेत्॥
लोगों के संसर्ग से वाणी की प्रवृत्ति होती है और उससे मन की चंचलता बढ़ती है। उससे चित्त-विभ्रम पैदा होते हैं। इसलिए योगी को जन-संसर्ग का परिहार करना चाहिए।
७३. ग्रामोऽरण्यमिति द्वेधा, निवासोऽनात्मदर्शिनाम्।
दृष्टात्मनां निवासस्तु, विविक्तात्मैव निश्चलः॥
अनात्मदर्शी के लिए ग्राम और अरण्य-ये दो निवास स्थान होते हैं। आत्मदर्शी निश्चल और विविक्त आत्मा को ही निवास स्थान समझता है।
७४. देहान्तरगतेर्बीजं,
देहेऽस्मिन्नात्मभावना। बीजं
विदेहनिष्पत्तेरात्मन्येवात्मभावना। इस शरीर में आत्मबुद्धि करना देहान्तर गमन का मूल कारण है। आत्मा में ही आत्मभावना करना विदेह की. निष्पत्ति का बीज है-मूल कारण है। ७५. नयत्यात्मानमात्मैव, जन्म निर्वाणमेव च।
गुरुरात्मात्मनस्तस्मान्नान्योऽस्ति परमार्थतः।।
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