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९० : जैन योग के सात ग्रंथ
जैसे वस्त्र के नष्ट होने पर भी ज्ञानी अपने आपको नष्ट नहीं मानता, वैसे ही अपना शरीर नष्ट हो जाने पर भी आत्मा को नष्ट नहीं मानता।
६६. रक्ते वस्त्रे यथाऽऽत्मानं, न रक्तं मन्यते तथा।
रक्ते स्वदेहेऽप्यात्मानं, न रक्तं मन्यते बुधः॥
जैसे लाल वस्त्र को धारण कर ज्ञानी अपने आपको लाल नहीं मानता, वैसे ही अपना शरीर लाल हो जाने पर भी आत्मा को लाल नहीं मानता।
६७. यस्य सस्पन्दमाभाति, निःस्पन्देन समं जगत्।
अप्रज्ञमक्रियाभोगं, स शमं याति नेतरः॥ जिसको स्पन्दनशील जगत् भी निःस्पन्द, अप्रज्ञ (चेतनाशून्य), क्रिया-शून्य और आभोगशून्य (अनुभवशून्य) प्रतीत होता है वही शम-मोक्ष को प्राप्त होता है, दूसरा नहीं।
६८. शरीरकंचुकेनात्मा,
संवृतज्ञानविग्रहः। नात्मानं बुध्यते तस्माद्, भ्रमत्यतिचिरं भवे॥
शरीर रूपी केंचुली से ज्ञानमय आत्मा के आवृत हो जाने पर बहिरात्मा आत्मतत्त्व को नहीं जानता, इसलिए वह दीर्घकाल पर्यन्त संसार में परिभ्रमण करता है।
६९. प्रविशद्गलतां व्यूहे, देहेऽणूनां समाकृतौ।
स्थितिभ्रान्त्या प्रपद्यन्ते, तमात्मानमबुद्धयः॥
शरीर में प्रतिपल परमाणुओं के समूह के आने-जाने पर भी शरीर को समान आकार में बना हुआ देखकर बहिरात्मा स्थिरता के भ्रम से उसे आत्मा मान लेता है। ७०. गौरः स्थूल कृशो वाऽहमित्यङ्गेनाऽविशेषयन्।
आत्मानं धारयेन्नित्यं, केवलज्ञप्तिविग्रहम्॥
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