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६४ : जैन योग के सात ग्रंथ
५२. भावणसुयपाढो तित्थसवणमसतिं तयत्थजाणम्मि।
तत्तो य आयपेहणमतिनिउणं दोसवेक्खाए॥ भावनाश्रुत का विधिपूर्वक अध्ययन, तीर्थ-श्रुत और अर्थ के अधिकृत ज्ञाता तथा भावना मार्ग के पारगामी आचार्य से बार-बार शास्त्र सुनना, भावनाश्रुत और अर्थ का ज्ञान हो जाने पर दोषनिरीक्षण द्वारा अत्यंत सूक्ष्म बुद्धि से आत्मा का अवलोकन करना-यह 'नवर प्रवृत्त' (नौसिखिये) योग साधक के लिए योगोपाय है।
५३. रागो दोसो मोहो एए एत्थाऽऽयदूसणा दोसा।
कम्मोदयसंजणिया विण्णेया आयपरिणामा॥
राग, द्वेष और मोह-ये आत्मा को दूषित करने वाले दोष हैं, ये कर्मों के उदय से निष्पन्न आत्म-परिणाम हैं।
५४. कम्मं च चित्तपोग्गलरूवं जीवस्सऽणाइसंबद्धं।
मिच्छत्तादिनिमित्तं णाएणमतीयकालसमं॥
जीव के साथ अनादिकाल से संबद्ध ये कर्म विविध पुद्गल रूप हैं। इनकी उत्पत्ति के निमित्त हैं-मिथ्यात्व आदि दोष। तर्क के आधार पर ये अतीतकाल के समान हैं। (जैसे अतीत अनादि होता है वैसे ही जीव और कर्म का संबंध अनादिकालीन है।)
५५. अणुभूयवत्तमाणो सव्वो वेसो पवाहओऽणादी।
जह तह कम्मं णेयं कयकत्तं वत्तमाणसमं॥ यद्यपि अतीतकाल का प्रत्येक अंश वर्तमान को प्राप्त हुआ है, फिर भी वह प्रवाह रूप से अनादि है। जैसे कर्म का कृतकत्व भी वर्तमान तुल्य है अर्थात् सादि है फिर भी वह प्रवाह रूप से अनादि है।
५६. मुत्तेणममुत्तिमओ उवघाया-ऽणुग्गहा वि जुज्जंति।
जह विण्णाणस्स इहं मइरापाणोसहादीहिं॥
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