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३. यागशतक : ६३
४७. सरणं भए उवाओ रोगे किरिया विसम्मि मंतो त्ति।
एए वि पावकम्मोवक्कमभेया उ तत्तेणं॥ ४८. सरणं गुरू उ इत्थं, किरिया उ तवो त्ति कम्मरोगम्मि।
मंतो पुण सज्झाओ मोहविसविणासणो पयडो॥ एएसु जत्तकरणा तस्सोवक्कमणभावओ पायं। नो होइ पच्चवाओ अवि य गुणो एस परमत्थो॥ चउसरणगमण दुक्कडगरहा सुकडाणुमोयणा चेव। एस गणो अणवरयं कायव्वो कुसलहेउ त्ति॥
(चतुर्भिः कलापकम्) भय में शरण-पुर, स्थान आदि, रोग में क्रिया (चिकित्सा) और विष में मंत्र उपाय है। तत्त्वतः ये ही पापकर्म के निवारण के प्रकार हैं।
(भय निवारण में) गुरु शरण है, कर्म रोग के निवारण में तपस्या क्रिया-चिकित्सा है तथा मोहरूपी विष को नष्ट करने का अनुभवसिद्ध मंत्र है-स्वाध्याय।
इन उपायों में प्रयत्नशील रहने से तथा पापकर्म का अपगम होने से प्रायः (साधनों में) प्रत्यवाय-व्याघात नहीं होता, परन्तु ये प्रयत्न परमार्थतः लाभ रूप ही होते हैं।
चार शरणों को स्वीकार करना, दुष्कृत्य की निंदा तथा सुकृत्य का अनुमोदन करना-इस कर्त्तव्य को कुशल-श्रेय का हेतु मानकर इसका निरंतर आचरण करना चाहिए।
५१. घडमाण-पावत्ताणं जोगीणं जोगसाहणोवाओ।
एसो पहाणतरओ णवरपवत्तस्स विण्णेओ॥
चरमप्रवृत्तयोगी (सर्वविरतियोगी) के लिए उपर्युक्त तथ्य योगसाधन के उपाय हैं तथा नवरप्रवृत्त अर्थात् नौसिखिया योगी के लिए तो आगे (गाथा ५२ में) कहे जाने वाले तथ्य प्रधानरूप से उपायभूत होते हैं।
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