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________________ ६२ : जैन योग के सात ग्रंथ जब साधक नई भूमिका में प्रवेश करता है तब उसके लिए यह उपाय है। वह शुभ द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव-इन सबका अवलम्बन ले तथा सद्गुरु के समीप विधिपूर्वक उस गुणस्थान को प्राप्त करे। ४३. वंदणमाई उ विही णिमित्तसुद्धी पहाण मो णेओ। सम्मं अवेक्खियव्वा एसा इहरा विही ण भवे॥ वंदन आदि की विधि में निमित्तशुद्धि (कायिक, वाचिक और मानसिक शुद्धि अथवा शकुन, स्वरनाडी, अंगस्फुरण तथा नक्षत्र, दिवस आदि निमित्तों की शुद्धि) का सम्यक् चिंतन करना चाहिए। अन्यथा वह विधि (शुद्धि) नहीं होती। ४४. उडे अहिगगुणेहिं तुल्लगुणेहिं च णिच्च संवासो। तग्गुणठाणोचियकिरियपालणासइसमाउत्तो फिर साधक अपने से अधिक गुणवालों तथा समान गुणवालों के साथ सदा निवास करे और अपने गुणस्थान (उपलब्ध भूमिका) के लिए उचित क्रिया का स्मृति-संपन्न होकर पालन करे। ४५. उत्तरगुणबहुमाणो सम्मं भवरूवचिंतणं चित्तं। अरईए अहिगयगुणे तहा तहा जत्तकरणं तु॥ उत्तरोत्तर गुणस्थानों के प्रति उसके मन में बहुमान हो-गुणानुराग हो, वह संसार के स्वरूप का नाना प्रकार से चिंतन करे तथा प्राप्त गुणों में अरति उत्पन्न होने पर उसके निवारण के लिए उस-उस प्रकार से प्रयत्न करे। ४६. अकुसलकम्मोदयपुव्वरूवमेसा जओ समक्खाया। सो पुण उवायसज्झो पाएण भयाइसु पसिद्धो॥ यह अरति अकुशल कर्मोदय का पूर्वरूप अर्थात् कारण है, ऐसा भगवान् ने कहा है। अकुशल कर्मोदय का निवारण उपाय-साध्य है, जैसे यह प्रसिद्ध है कि भय, रोग, विष आदि का निवारण उपाय-साध्य है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003079
Book TitleJain Yoga ke Sat Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages158
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size5 MB
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