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३. योगशतक : ६५ जैसे मदिरापान, औषधिसेवन आदि से चेतनायुक्त जीव पर बुरा या अच्छा (उपघात-अनुग्रह) प्रवाह होता है, वैसे ही मूर्त्त कर्मों का अमूर्त आत्मा पर उपघात-अनुग्रह रूप प्रभाव होता है।
५७. एवमणादी एसो संबंधो कंचणोवलाणं व।
एयाणमुवाएणं तह वि विओगो वि हवइ ति॥
जैसे स्वर्ण और उपल का अनादि संबंध है, वैसे ही जीव और कर्म का अनादि संबंध है। फिर भी उपाय से जैसे स्वर्ण और उपल का पृथक्करण होता है वैसे ही उपाय से जीव और कर्म का वियोग-पृथक्करण भी होता है।
५८. एवं तु बंध-मोक्खा विणोवयारेण दो वि जुज्जंति।
सुह-दुक्खाइ य दिट्ठा इहरा ण कयं पसंगेण॥ इस प्रकार बंध और मोक्ष-दोनों अनुपचरित-वास्तविक हैं। अन्यथा जो सुख-दुःख प्रत्यक्ष हैं, वे आत्मा में घटित नहीं हो सकते। इतना कथन पर्याप्त है।
५९. तत्थाभिस्संगो खलु रागो अप्पीइलक्खणो दोसो।
अण्णाणं पुण मोहो को पीडइ मं दढमिमेसिं?॥
जो आसक्ति है वह राग है, जो अप्रीति रूप है वह द्वेष है और जो अज्ञान है वह मोह है। साधक यह सोचे कि इनमें से कौन-सा दोष मुझे अधिक पीड़ित कर रहा है?
६०. णाऊण ततो तब्विसयतत्त-परिणइ-विवागदोसे त्ति।
चिंतेज्जाऽऽणाए दढं पइरिक्के सम्ममुवउत्तो॥
यह सोच-समझकर उन दोषों के विषय-स्वरूप, परिणाम और विपाक-तीनों का एकांत में एकाग्र होकर वीतराग की आज्ञा के अनुसार सम्यक् चिंतन करे।
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