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________________ ६६ : जैन योग के सात ग्रंथ ६१. गुरु-देवयापणामं दस - मसगाइ काए गुरु और इष्टदेव को प्रणाम कर, पद्मासन आदि आसन में स्थित होकर, दंश-मशक आदि के उपद्रवों से विचलित न होता हुआ साधक चिंतनीय विषयों में मन को लगाकर चिंतन करे । ६२. ६३. काउं पउमासणाइठाणेण । अगणेंतो तग्गयऽज्झप्पो ॥ गुरु और देवता से अनुग्रह प्राप्त होता है और उसी से अधिकृत कार्य में सिद्धि मिलती है । यह अनुग्रह गुरु और देवता के निमित्त से तथा कार्य के साथ एकात्मकता से होता है। गुरु-देवयाहि जायइ अणुग्गहो अहिगयस्स तो सिद्धी । एसो य तन्निमित्तो तहाऽऽयभावाओ विण्णेओ ॥ जह चेव मंत- रयणाइएहिं विहिसेवगस्स भव्वस्स । उवगाराभावम्मि वि तेसिं होइ त्ति तह एसो ॥ जैसे मंत्र, रत्न आदि प्रत्यक्षतः किसी पर अनुग्रह नहीं करते, परन्तु उनकी विधिपूर्वक उपासना करने वाला भव्य प्राणी उनसे उपकृत होता है। उसी प्रकार गुरु-देवता भी प्रत्यक्षतः किसी को उपकृत नहीं करते, परन्तु उनकी विधियुक्त उपासना करने वाला उपकृत होता है । ६५. ६४. ठाणा कायनिरोहो तक्कारीसु बहुमाणभावो य । दंसादिअगणणम्मि वि वीरियजोगो य इट्ठफलो ॥ आसनों से कायचेष्टा का निरोध होता है तथा आसन करने वालों के प्रति बहुमान का भाव जागृत होता है। जो दंश-मशक आदि के उपद्रवों से विचलित नहीं होता, उसे वीर्ययोग - प्रबल पुरुषार्थ की प्राप्ति होती है और उसे अपना इष्टफल- योगसिद्धि प्राप्त होती है। तग्गयचित्तस्स तहोवओगओ तत्तभासणं होति । एयं एत्थ पहाणं अंगं खलु इट्ठसिद्धीए ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003079
Book TitleJain Yoga ke Sat Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages158
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size5 MB
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