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७४ : जैन योग के सात ग्रंथ ९८. अणसणसुद्धीए इहं जत्तोऽतिसएण होइ कायव्वो।
जल्लेसे मरइ जओ तल्लेसेसुं तु उववाओ॥
अनशन को स्वीकार करने के पश्चात् उसकी विशुद्धि के लिए विशेष प्रयत्न करना चाहिए, क्योंकि जीव जिस लेश्या-अध्यवसाय में मरता है, उसी लेश्या में अर्थात् उसी लेश्या वाले जीव स्थान में उत्पन्न होता है।
९९. लेसाय वि आणाजोगओ उ आराहगो इहं नेओ।
इहरा असतिं एसा वि हंतऽणाइम्मि संसारे॥
उस लेश्या के होने पर भी आज्ञायोग-दर्शन आदि के शुद्ध परिणाम से ही जीव आराधक-मोक्ष का साधक होता है। अन्यथा इस अनादि संसार में ऐसी लेश्या अनेक बार प्राप्त हो चुकी है। (फिर भी आराधक अवस्था प्राप्त नहीं हुई।)
१००. ता इय आणाजोगे जइयव्वमजोगअत्थिणा सम्म।
एसो चिय भवविरहो सिद्धीए सया अविरहो य॥ इसलिए अयोग-शैलेशी अवस्था को प्राप्त करने के इच्छुक योगी को आज्ञायोग का सम्यक् पालन करना चाहिए। यही आज्ञायोग भवविरह-जीवन्मुक्ति का मूल कारण है और यही सिद्धि के साथ शाश्वत योग कराने वाला है।
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