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________________ ३. योगशतक : ७३ यदि उसी जन्म में योग की पूर्णता नहीं होती है तो उस योगी को नाना प्रकार की मनुष्य योनियों में उत्पन्न होना पड़ता है। उन-उन मनुष्य जन्मों में भी पूर्व अभ्यास के कारण उन योगाभ्यासों के संस्कारों का सातत्य रहता है। ९४. जह खलु दिवसऽब्भत्थं रातीए सुविणयम्मि पेच्छंति। तह इहजम्मऽब्भत्थं सेवंति भवंतरे जीवा॥ जैसे मनुष्य दिन में अभ्यस्त कार्यों को रात्रि में स्वप्न-अवस्था में देखते हैं, वैसे ही वर्तमान जीवन में अभ्यस्त योग आदि का जन्मान्तर में भी जीव आचरण करते हैं। ९५. ता सुद्धजोगमग्गोच्चियम्मि ठाणम्मि एत्थ वट्टेज्जा। इह-परलोगेसु दढं जीविय-मरणेसु य समाणो॥ इसलिए वर्तमान जीवन में निरवद्य योगमार्ग के अनुरूप प्रवृत्ति में जीव को वर्तन करना चाहिए तथा इहलोक और परलोक में और जीवनमरण में उसे तुल्यवृत्ति रहना चाहिए। (यही मोक्ष का बीज है।) ९६. परिसुद्धचित्तरयणो चएज्ज देहं ततकाले वि। आसण्णमिणं णाउं अणसणविहिणा विसुद्धेणं॥ इसी प्रकार विशुद्ध चित्तरत्न वाला योगी अंतकाल को निकट जानकर विशुद्ध अनशन विधि से शरीर को छोड़ दे। ९७. णाणं चाऽऽगम-देवय-पइहा-सुमिणंधरादऽदिट्ठीओ। णास-ऽच्छि-तारगादसणाओ कण्णग्गऽसवणाओ॥ आगमज्ञान से, देवता के सहयोग से, प्रातिभज्ञान से, स्वप्न के योग से, अरुन्धति आदि नक्षत्रों के अदर्शन से, नासिका के अदर्शन से, आंख की ज्योति अवष्टब्ध हो जाने पर, आंख के तारे के अदर्शन से, कर्णाग्नि के अश्रवण से (अर्थात् कान में अंगूठे को डालने पर कान की आंतरिक ध्वनि नहीं सुनाई देने पर)-इन सब उपायों से मृत्यु की निकटता का ज्ञान होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003079
Book TitleJain Yoga ke Sat Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages158
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size5 MB
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