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५४ : जैन योग के सात ग्रंथ
वह व्यवहार-योग इस प्रकार है-गुरु का विनय करना, धर्मशास्त्रों का विधिपूर्वक श्रवण, ग्रहण आदि करना तथा शास्त्रोक्त विधिनिषेधों का यथाशक्ति पालन करना। (शक्ति का गोपन न कर अनुष्ठान करना)।
एत्तो च्चिय कालेणं णियमा सिद्धी पगिट्ठरूवाणं। सण्णाणाईण तहा जायइ अणुबंधभावेण॥ इस व्यवहार-योग के पालन से कालक्रम से सम्यग्ज्ञान आदि तीनों की उत्तरोत्तर विशुद्ध अवस्था अविच्छिन्न रूप से अवश्य प्राप्त होती
है।
मग्गेणं गच्छंतो सम्मं सत्तीए इट्ठपुरपहिओ।
जह तह गुरुविणयाइसु पयट्टओ एत्थ जोगि त्ति॥ जैसे यथाशक्ति सम्यक्मार्ग पर चलता हुआ व्यक्ति अपने अभिलषित नगर का पथिक होता है, वैसे ही जो गुरु के विनय आदि में प्रवृत्त है वह व्यक्ति योगी कहलाता है क्योंकि उसे इष्टयोग की प्राप्ति अवश्य होती है। ८. अहिगारिणो उवाएण होइ सिद्धी समत्थवत्थुम्मि।
फलपगरिसभावाओ विसेसओ जोगमग्गम्मि।
योग अधिकारी तथा उचित उपायों के द्वारा ही प्रत्येक वस्तु में (कार्य में) क्रमशः फल का प्रकर्ष होते-होते कार्य की निष्पत्ति होती है। विशेषरूप से योग के मार्ग में अधिकारी और उपायों का महत्त्व है।
९. अहिगारी पुण एत्थं विण्णेओ अपुणबंधगाइ त्ति।
तह तह णियत्तपगईअहिगारो गभेओ त्ति॥ योग के मार्ग में अपुनर्बन्धक' तथा सम्यक्दृष्टि और सम्यक्चारित्री ही अधिकारी माने गए हैं और अधिकार भी कर्मप्रकृति की निवृत्ति-क्षयोपशम आदि के भेद से अनेक प्रकार का होता है। १. देखें-श्लोक १३।
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