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३. योगशतक
णमिऊण जोगिणाहं सुजोगसंदंसगं महावीरं। वोच्छामि जोगलेसं जोगज्झयणाणुसारेणं॥
समाधियोग के प्रदर्शक योगीराज भगवान् महावीर को नमन कर मैं योगाध्ययन के अनुसार योग के सारभूत तत्त्वों का निरूपण करूंगा।
२. निच्छयओ इह जोगो सण्णाणाईण तिण्ह संबंधो।
मोक्खेण जोयणाओ णिहिट्ठो जोगिनाहेहिं॥ योगीश्वरों (अर्हतों) ने सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन और सम्यग्चारित्र-इन तीनों के एक साथ अवस्थान को निश्चयदृष्टि से योग कहा है, क्योंकि यह योग आत्मा को मोक्ष के साथ नियोजित करता है।
३. सण्णाणं वत्थुगओ बोहो सइंसणं तु तत्थ रुई।
सच्चरणमणुट्ठाणं विहि-पडिसेहाणुगं तत्थ॥
सम्यग्ज्ञान है-वस्तु का यथार्थबोध, सम्यग्दर्शन है-उसमें यथार्थ रुचि और सम्यक्चारित्र है-उसी विषय में शास्त्रोक्त विधि-निषेधों के अनुसार आचरण करना।
४. ववहारओ उ एसो विन्नेओ एयकारणाणं पि।
जो संबंधो सो वि य कारण कज्जोवयाराओ॥ कारण में कार्य का उपचार कर सम्यग्ज्ञान आदि कारणों का आत्मा के साथ जो संबंध है, उसको भी व्यवहार दृष्टि से योग कहा गया है। ५. गुरुविणओ सुस्सूसाइया य विहिया उ धम्मसत्थेसु।
तह चेवाणुट्ठाणं विहि-पडिसेहेसु जहसत्ति॥
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