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४. समाधिशतक : ८७
शरीर में आत्मबुद्धि वाले बहिरात्मा के लिए संसार विश्वासयोग्य तथा रमणीय है। अपनी आत्मा में आत्मबुद्धि वाले को कहां विश्वास और कहां रति ?
५०. आत्मज्ञानात् परं कार्यं, न बुद्धौ धारयेत् चिरम् । कुर्यादर्थवशात् किंचिद्, वाक्कायाभ्यामतत्परः ॥
आत्मज्ञान के अतिरिक्त अन्य कोई कार्य मन में चिरकाल तक धारण न करे। यदि प्रयोजनवश कुछ करना ही पड़े तो अनासक्त भाव से वचन और काया के द्वारा वह प्रवृत्ति करे, मन को उसमें योजित न करे ।
यत् पश्यामीन्द्रियैस्तन्मे नास्ति यन्नियतेन्द्रियः । अन्तः पश्यामि सानन्दं, तदस्तु ज्योतिरुत्तमम् ॥ जो कुछ मैं इन्द्रियों के द्वारा देखता हूं, वह मेरा नहीं है और इन्द्रियों को संयमित कर भीतर देखता हूं, वह आनंदमय उत्तम ज्योति मेरी है, वही मेरा स्वरूप है।
५२.
५१.
सुखमारब्धयोगस्य,
बहिर्दुःखमथात्मानि । भावितात्मनः ॥
बहिरेवासुखं सौख्यमध्यात्मं
योगारंभी को बाह्य में सुख और अन्तर में दुःख का अनुभव होता है और भावितात्मा-सिद्धयोगी को बाह्य में दुःख और अन्तर में सुख का अनुभव होता है।
५३. तत् ब्रूयात् तत् परान् पृच्छेत्, तदिच्छेत् तत्परो भवेत् । येनाविद्यामयं रूपं त्यक्त्वा विद्यामयं व्रजेत् ॥
उसी के विषय में बोले, उसी के विषय में दूसरों को पूछे, उसी
की इच्छा करे और उसी में तत्पर रहे, जिससे अविद्यामय रूप का त्याग कर साधक विद्यामयरूप प्राप्त कर सके ।
५४.
शरीरे वाचि चात्मानं, संधत्ते वाक्शरीरयोः । भ्रान्तोऽभ्रान्तः पुनस्तत्त्वं
पृथगेषां निबुध्यते ॥
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