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१२८ : जैन योग के सात ग्रंथ
__संसार में अपनी मान्यता के अनुसार जो तृप्ति मानी जाती है, वह स्वप्न की भांति मिथ्या है। वास्तविक तृप्ति भ्रांतिशून्य व्यक्ति के होती है और वह आत्म-वीर्य को पुष्ट करती है।
२६. पुद्गलैः पुद्गलास्तृप्तिं, यान्त्यात्मा पुनरात्मना।
परतृप्तिसमारोपो, ज्ञानिनस्तन्न युज्यते॥
पुद्गल पुद्गलों से तृप्त होते हैं और आत्मा आत्मा से तृप्त होता है। अतः ज्ञानी को पौद्गलिक तृप्ति में आत्मिक तृप्ति का समारोप नहीं करना चाहिए।
२७. सुखिनो विषयाऽतृप्ता, नेन्द्रोपेन्द्रादयोऽप्यहो।
भिक्षुरेकः सुखी लोके, ज्ञानतृप्तो निरंजनः॥
आश्चर्य है कि विषयों से अतृप्त इन्द्र और उपेन्द्र आदि भी सुखी नहीं हैं। इस संसार में ज्ञान से तृप्त तथा कर्ममल रहित केवल एक साधु ही सुखी है।
२८. संसारे निवसन् स्वार्थसज्जः कज्जलवेश्मनि।
लिप्यते निखिलो लोकः, ज्ञानसिद्धो न लिप्यते॥
कज्जलगृह के समान इस संसार में रहने वाले स्वार्थ-तत्पर समस्त प्राणी कर्मों से लिप्त होते हैं, ज्ञानसिद्ध लिप्त नहीं होता।
२९. नाऽहं पुद्गलभावानां, कर्ता कारयिताऽपि च।
नानुमन्ताऽपि चेत्यात्मज्ञानवान् लिप्यते कथम्? मैं पौद्गलिक भावों का न करने वाला हूं, न कराने वाला हूं और न अनुमोदन करने वाला ही हूं-ऐसा सोचने वाला आत्मज्ञानी कैसे लिप्त हो सकता है?
३०. तपःश्रुतादिना मत्तः, क्रियावानपि लिप्यते।
भावनाज्ञानसंपन्नो, निष्क्रियोऽपि न लिप्यते॥
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