________________
७. ज्ञानसार चयनिका : १२९
तप और ज्ञान का मद करने वाला क्रियाशील होने पर भी लिप्त होता है। भावनाज्ञान से सम्पन्न ज्ञानी निष्क्रिय होने पर भी लिप्स नहीं होता।
३१. अलिप्तो निश्चयेनात्मा, लिप्तश्च व्यवहारतः।
शुद्ध्यत्यलिप्तया ज्ञानी, क्रियावान् लिप्तया दृशा॥ निश्चयनय के अनुसार आत्मा अलिप्त है और व्यवहारनय के अनुसार वह लिप्त है। ज्ञानी अलिप्स दृष्टि से शुद्ध होता है और क्रियावान् लिप्त दृष्टि के साथ शुद्धि की यात्रा प्रारंभ करता है।
३२. ज्ञानक्रियासमावेशः, सहैवोन्मीलने द्वयोः। भूमिकाभेदतस्त्वत्र,
भवेदेकैकमुख्यता॥ जब दोनों दृष्टियों का एक साथ उन्मीलन होता है तब ज्ञान और क्रिया की एकता होती है। यहां भूमिका-भेद से दोनों-ज्ञान और क्रिया की मुख्यता होती है।
३३. स्वभावलाभात् किमपि, प्राप्तव्यं नावशिष्यते।
इत्यात्मैश्वर्यसम्पन्नो, निःस्पृहो जायते मुनिः॥ स्वभाव की प्राप्ति हो जाने पर प्रासव्य कुछ भी शेष नहीं रहता। आत्मा के ऐश्वर्य से सम्पन्न मुनि निःस्पृह होता है।
३४. गौरवं पौरवन्धत्वात्, प्रकृष्टत्वं प्रतिष्ठया।
ख्यातिं जातिगुणात् स्वस्य, प्रादुष्कुर्यान्न निस्पृहः॥ निःस्पृह मुनि नगरजनों द्वारा वंदनीय होने के कारण अपने गौरव को, प्रतिष्ठा से प्राप्त अपनी प्रकृष्टता को तथा अपने जातिगुणों से प्राप्त ख्याति को प्रकट न करे।
३५. भूशय्या भैक्षमशनं, जीर्णं वासो गृहं वनम्।
तथापि निःस्पृहस्याहो, चक्रिणोऽप्यधिकं सुखम्॥
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org