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________________ ६. स्वरूपसम्बोधन मुक्तामुक्तैकरूपो यः कर्मभिः संविदादिना। अक्षयं परमात्मानं, ज्ञानमूर्तिं नमामि तम्॥ मैं उस परमात्मा को नमस्कार करता हूं जो कर्मों से मुक्त है, अपने चैतन्यस्वभाव से अमुक्त है तथा अक्षय है और ज्ञानमूर्ति है। २. सोऽस्त्यात्मा सोपयोगोऽयं, क्रमाद्धेतुफलावहः। यो ग्राह्योऽग्राह्यनाद्यन्तः, स्थित्युत्पत्तिव्ययात्मकः॥ वह आत्मा ज्ञान के उपयोग से उपयुक्त है। वह क्रमशः हेतुफलावह-कार्य भी है और कारण भी है। वह स्वानुभव प्रत्यक्ष से ग्राही तथा पुद्गल द्रव्य को आत्मसात् नहीं करता इस दृष्टि से अग्राही भी है। वह अनादि-अनन्त तथा उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यात्मक है। ३. प्रमेयत्वादिभिर्धर्मेरचिदात्मा चिदात्मकः। ज्ञानदर्शनतस्तस्माच्चेतनाचेतनात्मकः ॥ प्रमेयत्व आदि धर्मों की अपेक्षा आत्मा अचेतनरूप है और ज्ञानदर्शन की अपेक्षा वह चेतनरूप है। अतः आत्मा चेतन-अचेतनरूप है। ४. ज्ञानाद् भिन्नो न चाऽभिन्नो, भिन्नाभिन्नः कथञ्चन। ज्ञानं पूर्वापरीभूतं, सोऽयमात्मेति कीर्तितः॥ आत्मा ज्ञान से न सर्वथा भिन्न है और न सर्वथा अभिन्न है। वह कथंचिद् भिन्न है और कथंचिद् अभिन्न है। वह पूर्व और अपर ज्ञान का समच्चय है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003079
Book TitleJain Yoga ke Sat Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages158
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size5 MB
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